डोंगी
नदी के उस पार लाल हो आया सूरज उस भीषण तूफान के बाद गेंदला गए पानी में धीरे-धीरे उतरने लगा था। इधर राजा घाट से कुछ कोस दूर इस सुनसान किनारे पर चार मछुआरे चप्पू और जाल का ताना बनाए, नदी में मिली एक लाश को उस पर लादे गाँव की तरफ चले आ रहे थे। लगता था, वे मछुआरे नियती के जाल में फँसे, इस बुरे वक्त में अपनी ही लाश उठाए चले आते हैं। जो मरा था, वह किसी का न था, या कहें कि उसका कोई न था, जिसके लिए सुबह का इंतज़ार किया जाता। इसलिए गाँव पहुँचते ही, आनन-फानन में उसकी चिता लगी और नदी में डूबकर बुझ जाने से पहले सूरज खुद ही उसे सुलगा गया।
करता भी क्यों न, रोज सुबह इस घाट पर उगते और नदी के उस पार डूबते इस सूरज, गाँव के इस घाट को छूकर न जाने कब से बहती आई इस नदी और इसके किनारे अब तक बचे रह गए, पेड़ों को छूकर चलती हवाएँ, यही सब तो इसके नातेदार थे, अगर मैं कहूँ कि मैं जो यह कथा आपसे कह रहा हूँ, उसे भी आप सूरज की रोशनी, नदी की एक लहर, या पत्तों पर रुकी नमी, इनमें से कुछ भी समझ सकते हैं, तो आप हँसेंगे और मुमकिन है कि आप मेरी बात पर विश्वास न करें, पर जिसका कोई नहीं होता, उसकी कथा किसी न किसी को तो कहनी ही पड़ती है, पर किसी कथा को कहते हुए, यह बेहद ज़रूरी है कि सुनने या पढ़ने वाले को वह विश्वसनीय लगे, वह कथारची की बात पर भरोसा करे, इसलिए मैं बता देता हूँ कि यह जो मरा है, वह इस गाँव का एक बूढ़ा मछुआरा था, और मैं उम्र में इससे कई साल छोटा, पर इसी की राह पर चलता, अपनी एक टूटी डोंगी के सहारे, कुछ इसके जैसा ही जीवन जीता, एक मछुआरा ही हूँ। मेरी यादों में मेरा जितना पुराना रिश्ता इस नदी से है, उतना ही इस बूढ़े मछुआरे से भी है, बचपन में जब कोई पूछता, बड़े होकर क्या बनोगे? तो मैं कहता, बुद्धन काका जैसा मछुआरा। एक जमाने में यह यहाँ के खिवैयों, मल्लाहों का उस्ताद था।
तो यों अगर सीधे-सीधे, केवल ऊपर ऊपर से देखें तो यह कहानी मेरे सामने धीरे-धीरे ठंडी पड़ती चिता में जल चुके एक बूढ़े मछुआरे बुद्धन की है, पर अगर थोड़ा ठहरकर, इस नदी की तलहटी में एक बहुत धीरे-धीरे साँस लेते। दो सौ साल बूढ़े कछुए की आँख से देखें, तो यह कहानी सदियों से निरंतर बहती आ रही, एक नदी, उसके किनारों पर दूर तक फैली रेत और उसके आस-पास बसी उन ज़िंदगियों की कहानी जान पड़ेगी, जो अपनी आँखों के सामने इस रेत और पानी के बीच के रिश्ते को दरकते, टूटते, बरबाद होते देख रहे हैं।
इस घाट के किनारे बसे गाँव की ऐसी ही तमाम ज़िंदगियों में से एक बुद्धन की थी, जिसने कई साल पहले एक महामारी में अपने को खो दिया था, और उसके बाद उसका सोलह साल का नाती केशो हैं। उसकी पूरी दुनिया बन गया था। उसकी सारी उम्मीदें उसी से शुरू होती और उसी पर खत्म। बुद्धन के दिल में दिन-रात केशो के लिए दुआएँ ही रहती थीं, जिस दिन से बुद्धन के बेटा-बहू उसे छोड़कर गए थे, उसने अकेले ही केशो को बहुत जतन से पाला था और इसके लिए वह इस उम्र में भी जी-तोड़ मेहनत करता आता था। समझो, वह अपने नाती केशो के लिए कुछ भी कर सकता था। बेटे-बहु मुझे याद है, एक सुबह जब नदी के घाट पर दिन शुरू हो रहा होता था, तो डोंगी नदी में उतारते हुए बुद्धन के साथी मछुआरे ने उसे समझाते हुए कहा था कि अगर वह अपनी मन्नतों का एक लाल धागा, नदी किनारे ऊँचे पर लगे, पुराने पेड़ की डाल पर बाँध देगा तो उसका नाती केशो उसके बहू-बेटे की तरह कभी उसे छोड़कर उससे दूर नहीं जाएगा। वह पेड़ जो सभी मछुआरों का पुरखा है, जिसके तने में हम सभी के पुरखों की आत्मा का एक अंश बसता है। वह हमेशा उसकी रक्षा करेगा और उसकी राह में कभी कोई रुकावट नहीं आने देगा। अपने साथी की बात मानकर एक दिन बुद्धन ने नदी किनारे लगे उस पेड़ पर केशों के लिए लाल धागा बाँधने का निश्चय किया और इसलिए उस दिन अपनी डॉगी उसने नदी में नहीं उतारी और सुबह-सवेरे जल्दी ही केशो को बिना कुछ कहे वह घाट की ओर चल दिया।
यहाँ केशो, बुद्धन के नाती ने, जो अपने दादा को दिन-रात हाड़ त्तोड़ मेहनत करते देखता था और जानता था कि यह सब वह उसी के लिए कर रहा है, सोचा कि आज न जाने क्यों बाबा काम पर नहीं गए, शायद उनकी तबीयत ठीक न हो, पर इससे तो उनके काम और कमाई का हर्जा होगा, सो उस दिन उसने वह किया, जिसके लिए बुद्धन उसे हमेशा रोका करता था, उस दिन उसने अकेले ही डॉगी नदी में ले जाने का निश्चय किया और नदी की ओर चल दिया।
उस दिन घाट का माहौल और दिनों की तरह सामान्य ही था, मौसम में भी कोई विशेष हलचल दिखाई नहीं देती थी। इसलिए केशो ने जब अपनी डोंगी नदी में उतारी, तो वह मछली पकड़ने के लिए घाट से कुछ दूर निकल गया। घाट से दूर, नदी के बीचोबीच जाल फैलाता केशो और उस समय नदी में अपनी डोंगी पर सवार दूसरे मछुआरे इस बात से बिल्कुल बेखबर थे कि पिछली रात उस जगह से मीलों दूर हुई बारिश से, घाट से बीस मील दूर बने बाँध में पानी का स्तर बहुत बढ़ गया था और अभी कुछ ही समय पहले, बिना किसी चेतावनी के बाँध के गेट अचानक खोल दिए गए थे। इसके बाद जैसे ही कुछ समय में बाँध से छोड़ा गया पानी तेजी के साथ घाट तक पहुँचा, उसने बाढ़ की शक्ल ले ली, नदी में इस अचानक आए उफान से घाट पर अफरा-तफरी मच गई।
यहाँ केशो, जो घाट और किनारे से दूर नदी में जाल फैलाकर वापस खींच रहा था और उस दिन अपने तब तक के काम से बहुत खुश था, कुछ समझ ही नहीं पाया, जब अचानक एक बड़ी लहर आकर उसकी डोंगी से टकराई। जब तक वह अपना जाल वापस खींच पाता, अचानक आए पानी के उस बड़े रेले ने उसकी डोंगी को पलट दिया। केशो छिटक कर डोंगी से दूर जा गिरा। एक पल में उस बाढ़ में उसकी डोंगी, पतवार, जाल सब उससे छूट गए। उस तेज धार में भी हाथ-पाँव मारता केशो अपनी डोंगी बचाने की नाकाम कोशिश करता रहा और तूफान से लड़ने की इस कोशिश में नदी में उफनती लहरें जीतीं या केशो, किसी को पता नहीं चला।
वहाँ बुद्धन केशो के लिए मन्नतों का लाल धागा अपने पुरखों के उस पेड़ की एक डाल पर बाँधकर उसके सामने हाथ जोड़े खड़ा, केशो के लिए प्रार्थना कर रहा था, तभी उसने नदी किनारे मचे शोर को सुना, उसने देखा कि लोग बदहवास किनारे से दूर भागे जा रहे हैं। उसने जानने की कोशिश की कि आखिर हुआ क्या? पर किसी के पास किसी को कुछ बताने की कुर्यंत न थी और तभी मैंने या मेरी उम्र के किसी लड़के ने बुद्धन को केशों के बाड़ में डोंगी सभेत बह जाने की खबर दी थी। बताते वाले ने बताया था कि उसने केशों को अपनी डॉगी में घाट से दूर जाते देखा था। सुन्दन एक पल को यह सुनकर जड़ हो गया था और अगले ही क्षण वह अपने होश खोकर वहीं, उस पेड़ के नीचे बैठ गया था। उधर गाँव के माहिर गोताखोर मछुआरे बाढ़ में बह गए अपने
साथियों को ढूँढ़ने के लिए नदी में अपनी नावें उत्तारकर कूद पड़े थे, किसी को किसी की लाश मिली, किसी को किसी की डोंगी, तो कोई बेहोशी की हालत में अपने आप ही किसी किनारे आ लगा, पर केशो, केशो की देह और उसकी डोंगी का कहीं कोई निशान तक न मिला। उधर कुद्धन ने उस खबर को सुनने के बाद कई घंटों तक आँख तक न खोली। अब उसे जानने वाले, उसके टोले के हर आदमी को इस बात की चिंता थी कि जब बुद्धन होश में आएगा, तो उनके ऊपर टूटे इस पहाड़ से दुःख के बाद कोई उसे कैसे सांत्वना देगा? उनसे क्या कहेगा? उसे कैसे समझाएगा कि केशो को, उसकी डॉगी को नदी ने लील लिया है, लेकिन किसी आश्चर्य की तरह जब बुद्धन ने आँख खोली, तो वह इस विश्वास के साथ उठा कि उसके केशो को कुछ नहीं हुआ, वह तो उस यात्रा पर निकला है, जहाँ वह अपनी डोंगी लेकर हमेशा से जाना चाहता था, वह तो पहले ही चला जाता, पर वह खुद ही उसे हमेशा रोक देता था। बुद्धन ने कहा, उसे पूरा विश्वास है कि अगर वह रोज उस पेड़ के आगे, जहाँ उसने केशो की सलामती के लिए लाल धागा बाँधा था, हाथ जोड़कर मनौती माँगेगा, प्रार्थना करेगा, तो रब ज़रूर उसकी बात सुनेगा और जल्दी ही एक दिन उसका केशो बिल्कुल सही सलामत उसके पास लौट आएगा।
इसके बाद तो नदी किनारे जाना, उस पेड़ के आगे प्रार्थना करना, हर समय इस उम्मीद से भरे रहना कि एक दिन केशो अपनी डोंगी में वापस लौट आएगा, और ऐसा सोचते हुए, कभी नदी के बहते पानी को ताकते रहना, कभी नदी और घाट पर चलती गतिविधियों के अंतहीन सिलसिले को अपनी सूनी निचाट आँखों से देखते रहना, जैसे बुद्धन का रोज का ही काम बन गया था। वह कभी ऐसे ही घाट के आसपास घूमता रहता, कभी किसी परिचित से बतियाने लगता, तो कभी किसी अजनबी को रोककर उसका हालचाल पूछता, उससे कहता, जैसे तुम कहीं से यहाँ आए हो, वैसे ही मेरा केशो भी अपनी डोंगी से कहीं गया है। वह अकसर अपनी बातों में केशो की हिम्मत की दाद देता। कहता, वह अपनी हिम्मत का बहुत पक्का है। अगर कोई उसकी बात पर यकीन नहीं करता तो वह उससे कहता, वह ऐसे कई मछुआरों को जानता है, जो सालों बाद लौटे हैं, ऐसे चमत्कार और संजोग होते हैं। कभी-कभी तो लोग बचपन में यात्रा पर जाते हैं और जब लौटते हैं तो वे पूरी तरह जवान हो चुके होते हैं। उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ी-मूछें आ चुकी होती हैं। उनके घर-परिवार के लोग उन्हें पहचान भी नहीं पाते। ऐसे ही एक दिन केशो भी अपनी बढ़ी हुई दाढ़ी-मूँछों के साथ लौटेगा। बुद्धन का समय रोज इसी तरह घाट पर बीतता, और वहाँ नदी में और उसके आसपास, दुनिया-जहान की गतिविधियों भी अपनी रफ्तार से चलती रहतीं। नए समय में नदी को जोड़ने वाली योजना के बोर्ड, नए प्रस्तावित बाँध की परियोजना के बोर्ड, घाट के संरक्षण और नदी की सफाई के बोर्ड घाट पर लगते जाते, पर नदी पहले से ज्यादा दुर्बल, मलिन और प्रदूषित दिखाई देने लगती, अब धीरे-धीरे घाट के रास्ते और सैकरे दिखाई देने लगते, समय बीतते रेत के अवैध खनन का काम धीरे-धीरे जंगल, टीले तक सीमित न रहकर गाँव, घाट, मंदिर और उसके किनारे लगे पुरखों के उस पुरातन पेड़ तक बढ़ आता। खनन माफिया के बुलडोजर, जे.सी.बी., जो कभी चोरी छुपे रात में नदी में उतरा करते थे, वे अब सहज ही नदी किनारे खड़े रेत निकालते दिखाई देने लगते। अब उनका नदी में उतरना, रेत निकालकर नाव पर डालना, नाव का किनारे तक आना और फिर रेत का नदी किनारे खड़े ट्रकों में लदना, लोगों की नज़रों के लिए आम बात हो गई थी और इस आम बात में, खास बात थी वहाँ की फिज़ा, वहाँ का माहौल और इतना सब होने के बाद भी इस सबसे किसी को कोई फर्क न पड़ता था, क्योंकि वहाँ मौजूद हर आदमी या तो इस सबका हिस्सा बन चुका था, या अब वह एक ऐसा तमाशाई था, जिसने हर भले-बुरे को चुपचाप देखते रहने की आदत डाल ली थी।
बुद्धन जो इस बीच और कमजोर, पहले से और बहका हुआ, केशो को देखने, उससे मिलने के लिए ज्यादा आतुर, ज्यादा उतावला लगने लगा था, वह नदी के आसपास होते इन बदलावों का चश्मदीद तो था, पर केशो के इंतज़ार में डूबा हुआ, वह इसे नियति का खेल मानकर इससे बिल्कुल बेखबर भी था। यों वह अब भी उसी तरह पेड़ के पास जाता, प्रार्थना करता, जो अब उस पुरखों के पेड़ से की जा रही एक मिन्नत में बदल चुकी थी। वह अभी भी घंटों उसी पेड़ के पास बैठा रहता, कभी-कभी थककर वहीं सो भी जाता, पर शायद ही कभी उसका ध्यान इस तरफ जाता हो कि रेत का खनन करते रेत माफिया के आदमी, उनके बुलडोजर, जे.सी.बी. और ट्रक उस पेड़ के चबूतरे, उसके टीले के चारों तरफ से लगभग सारी रेता उठा चुके हैं और अब हिलोरें लेता नदी का पानी, हवा में खुल चुकी पेड़ की जड़ों से जितनी बार भी टकराता है, तो उतनी ही बार वहाँ से थोड़ी-सी मिट्टी वह अपने साथ ले जाता है।
एक रात जब बुद्धन घाट से घर लौट रहा था, तो आसमान में घिरे काले-घने बादलों को देख न जाने क्यों बहुत बेचैन हो उठा था? उस रात बड़ी देर तक बादल गरजते रहे और भयंकर बिजली चमकती रही थी, इससे बुद्धन केशो की यात्रा के बारे में सोचकर बहुत परेशान हो उठा था। वह बेचैनी में रातभर करवटें बदलता रहा था। सुबह जब थोड़ी देर के लिए उसकी आँख लगी थी, तो उसने एक सपना देखा था, जिसमें उसे तूफान में घिरा डोंगी में अकेला बैठा केशो दिखाई दिया था, जो मदद के लिए उरी पुकार रहा था और वह लाचार बेबस, घाट पर खड़ा उसे देखता था। जैसे ही एक लहर केशों की होगी से टकराई थी, तभी बुद्धन ने ऐक कुछ देखा था कि चौंककर खाट से उठ बैठा था।
आँख खुलते ही उसकी नज़र बाहर के मौसम पर पड़ी थी, बाहर अभी भी बहुत तेज बारिश हो रही थी। उसके बाद वह एक अजीब में बेचैनी से भरा अपने बक्से में कुछ ढूँढ़ने लगा था, उसने बक्से से निकले कपड़े-काग़ज़ सब इधर-उधर फेंक दिए थे, तभी उसके एक कोने में एक लाल धागे का गुच्छा दिखाई दिया था। उसने उसमें से पाँच हाथ का धागा नापकर, दीवार पर केशो की लंबाई के बराबर के लगे निशान से सटाकर उसे नापा था, यह वही निशान था, जो कभी केशो के रहते उसने खुद दीवार पर लगाया था। उस समय जब केशो को बड़े होकर अकेले यात्रा पर जाने की बहुत जल्दी थी, जब वह बार-बार पूछता था, बाया मैं आपके जितना लंबा कब होऊँगा? उस दिन बुद्धन केशो की लंबाई के बराबर का वह लाल धागा लेकर बारिश में भीगते, लगभग भागते हुए घाट की तरफ चल दिया था।
उधर पूरी रात हुई धुआंधार बारिश से नदी पूरे उफान पर थी। साथ ही एक बार फिर बाँध में पानी बढ़ने से उसके गेट भी खोल दिए गए थे। अबकी बार रेत के लगातार खनन से पूरी तरह कट चुके किनारे पानी को रोक नहीं पा रहे थे, नदी का तेज बहाव, नदी किनारे लगे पेड़ और उसके टीले के आसपास बची रह गई थोड़ी-बहुत मिट्टी को भी बहाकर ले जाने लगा था।
ऐसे खतरनाक मौसम में जब भोर होते ही लोग घाट से दूर अपनी डोंगियाँ सुरक्षित जगहों पर ले जा रहे थे। रेत उठवाते ठेकेदार के आदमी भी अपना सब सामान, अपनी खनन की मशीनें पीछे छोड़कर नदी से दूर भाग गए थे। ऐसे में बुद्धन ऊँचे पर लगे अपने पुरखों के पेड़ की तरफ भागता चला गया था। लोग उसे आश्चर्य से देख रहे थे। कुछ उसे रोकने के लिए अपनी जगह खड़े चिल्ला भी रहे थे, पर वह नहीं रुका था। वह वहाँ तक पहुँच गया था, जहाँ मछुआरों, मल्लाहों का रखवाला पेड़, उसकी मनौतियों, मुरादों का पेड़, उसके सामने था। बुद्धन अपने हाथ में केशो की लंबाई का लाल धागा लिए बड़ी हसरत से उस पेड़ को देख रहा था। वह हाथ बढ़ाकर उस तक पहुँचना चाहता था, तभी जड़ों से रेत के उठने, तले की ज़मीन कटने से बुद्धन के पुरखों का पुरातन पेड़, उसके केशो का रखवाला पेड़, खुद किसी सहारे के लिए इधर-उधर डोलता, झुका जा रहा था। अभी बुद्धन के कदम उसकी तरफ बढ़ ही रहे थे, कि एक बड़ी लहर से पेड़ के नीचे की बची रह गई मिट्टी भी धसक गई थी और बुद्धन की आँखों के सामने सालों से आस, उम्मीद और मुरादों का पेड़ अपनी जड़ों से उखड़ गया था। वह पेड़ जिसने कितनी ही मनौतियों, मुरादों, मन्नतों, आस्थाओं और मान्यताओं का बोझ अपने कंधों पर उठा रखा था, आज घाट से, अपनी जड़ों से उखड़ते ही नदी के तेज बहाव में यों बहा जाता था, मानो वह कभी वहाँ से जुड़ा ही न था।
अपनी ज़मीन से उखड़कर पानी में बहे जाते पेड़ को देखकर हाथ में लाल धागा लिये पेड़ की ओर बढ़ रहा बुद्धन अचानक ही पानी में कूद पड़ा था। लोग उसे रोकने के लिए बहुत चीखे चिल्लाए थे। आज पहली बार उन्होंने उसके सालों पुराने भरम को तोड़ते हुए बताया था कि उसका केशो मर चुका है, अब वह कभी वापस नहीं आएगा, पर बुद्धन ने किसी की एक नहीं सुनी थी, उसकी आँखों के आगे उसका आज सुबह देखा हुआ सपना था, जिसमें तूफान से घिरा, अपनी डोंगी में बैठा केशो उसे पुकारता रहा था। आज सालों से यात्रा पर निकला उसका केशो खतरे में था और उसका रखवाला पेड़ अपनी जमीन छोड़कर उखड़ चुका था।
पानी में कूदते ही बूढ़े मछुआरे के हाथ मानो चप्पू हो गए थे, आज भोर में देखे सपने में उसने अपने केशो की डोंगी को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया था, पर सपने में केशो की डोंगी उसकी आँखों के आगे पलटकर डूब गई थी, पर यह सपना नहीं था, यहाँ सपने से बाहर, इस तेज बहाव में बहे जाते उस पुरखों के पेड़ को बचाना ही केशो को बचाना था। अगर आज यह न बचा तो कल बहती धारा में एक छोटी डोंगी के सहारे रोटी कमाने कौन केशो उतरेगा? यही सब सोचते बुद्धन ने पेड़ की ओर तैरते हुए उस विशाल पेड़ की एक डाल थाम ली थी, डाल के हाथ में आते ही वह चिल्लाया था, केशो नहीं, मैं तुझे ऐसे नहीं जाने दूँगा। नदी का तेज बहाव और पेड़ का वजन बुद्धन को अपने साथ बहाता हुआ आगे ले गया था। लोग किनारे पर, ऊँची और सुरक्षित जगहों पर खड़े बुद्धन को, उस उम्मीद के पेड़ के साथ बाढ़ में बहते, घाट से दूर जाते और फिर धीरे-धीरे पानी में डूबते हुए देख रहे थे। वे आश्चर्य में डूबे थे कि जब केशो बह गया था, तब बुद्धन इतने बड़े दुःख से उबरकर उठ खड़ा हुआ था, पर आज उस पेड़ के साथ बुद्धन क्योंकर बहता चला गया और पानी में डूब गया। क्यों बुद्धन जैसा कैसी भी उफनती नदी की बड़ी-बड़ी लहरों पर डोंगी उतारने में न घबराने वाला मछुआरा, आज हाथ में एक आस का धागा लिए, उस पेड़ के साथ बहता चला गया।
सबकी आँखों के आगे बुद्धन के नदी में बह जाने से जैसे अब घाट पर कोई आस, कोई मनौती न रही। दो दिन बीतते-बीतते मौसम थोड़ा सुधरने लगा था और नदी का पानी उतरता जान पड़ता था, नदी के आसपास की गतिविधियाँ भी धीरे-धीरे सामान्य होने लगी थीं। एक बार फिर जे.सी.बी. नदी की छाती में अपने डेने गड़ाकर वहाँ से कई मन रेता उठा रही थी। उधर फिर से बड़ी-बड़ी मशीनों से, नदी के बीच और किनारों से निकली रेत ट्रकों में पलटी जाने लगी थी, ट्रक आज फिर अपनी लिमिट से ऊपर लोड हो रहे थे। आज एक ओवर लोडेड ट्रक मुड़ने के लिए बैंक होता ही था कि पीछे लगे घाट व नदी संरक्षण और रेत के अवैध खनन की मनाही के बोर्ड को एक टक्कर से गिरा गया था। वह बोर्ड अपनी जगह से उखड़कर मिट्टी और बालू के कीचड़ में धँसता चला गया था, वैसे जब वह लगा था, तब भी यहाँ किसी को उसकी ज़रूरत न थी।आज फिर केशों जैसी कच्ची उम्र के एक मछुआरे ने हमेशा की तरह अपना दिन शुरू करने के लिए अपनी डॉगी पानी में धकेल ली थी और वह उस पर सवार होकर घाट से दूर चला गया था।
इस नदी के किनारे, इस घाट, इस गाँव से बहुत दूर जहाँ चौड़ी- पक्की सड़कें बनी थीं, सुबह हो रही थी, वही रेत से ओवर लोडेड सैकड़ों ट्रक एक लाइन में एक लिंक रोड से हाइवे पर चढ़ रहे थे। उनके ऊपर बादल गरज रहे थे, बिजली कड़क रही थी, लगता था मानो किसी की चोरी पर आसमान में बैठा कोई चौकीदार उन ट्रकों पर अपनी टोर्च की रोशनी फेंकता हुआ चिल्लाता है।
यहाँ घाट पर एक बारह-तेरह साल का बच्चा अभी-अभी नदी में कूदा था। उसने नदी की गहराई में जाकर, तली में पड़ा एक सिक्का रोटी की तरह उठाया था, और ऊपर आते हुए उसे अपनी तकदीर की तरह मुसकराते हुए देखा था। उसने वह सिक्का लाकर एक तीर्थयात्री, एक पर्यटक को दे दिया था। उस यात्री ने उसके इस खेल पर मुसकराते हुए उस बच्चे को एक दस का नोट दिया था। बच्चे ने उस नोट को घाट पर एक पत्थर से दबाकर रख दिया था और फिर दूसरे पर्यटक द्वारा नदी में उछाले गए सिक्के को उठाने के लिए, किसी भी खतरे से बेखबर नदी में कूद गया था।
वहाँ नदी से दूर रेत से लदे ट्रक एक कंस्ट्रक्शन साइट पर जाकर रुके थे। एक मजदूर ने ट्रक से उतरकर, उसकी ट्राली का एक पल्ला खोल दिया था। रेत भरभराकर ट्रक से बाहर गिरकर ज़मीन पर फैल गई थी। उसकी क्वालिटी चेक करने के लिए ठेकेदार ने एक मुट्ठी रेत उठा ली थी। उस रेत के साथ एक पाँच हाथ का, लाल धागा उसके हाथ में चला आया। उसने उस धागे को अलग करते हुए, हाथ की रेत वापस ढेर पर फेंक दी।
वहाँ सूरज अब नदी के ठीक ऊपर आ पहुँचा था और नदी के बीचोबीच एक डोंगी पर बैठी दो आकृतियाँ एक छोटे से मिट्टी के घड़े से किसी की अस्थियाँ नदी में छोड़ रही थीं। पानी की सतह पर बहती अस्थियाँ और उसके साथ में बहाए गए फूल नदी की धारा के साथ बहते हुए तूफान में बह आई एक टूटी-फूटी डोंगी को छूने लगे थे। मुझे लग रहा था, जैसे बुद्धन अपने केशो से मिल रहा है। एक टूटी डोंगी, बिना किसी खिवैये के पानी पर दिशाहीन बहती चली जा रही थी। (विवेक मिश्र)