दिल की दुविधा

(प्रेम बजाज)

हरीश बजाज परइवेट दफ़्तर में क्लर्क थे। उनकी चाह थी कि अपने बेटों गौरव और सौरभ को अपने जैसा क्लर्क नहीं बनने देंगे। इसलिए ओवर टाइम भी करते थे। उनकी पत्नी भी लोगों के कपड़े सिलती थी, ताकि बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके।

दोनों बेटे पढ़-लिखकर ऊंची पोस्ट पर बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरी करने लगे। पिता ने रिटायर होने के बाद दोनों बेटों में सब कुछ बांट दिया।

उन्हें ऐसा करते देख पत्नी कहने लगी, सुनो, बच्चों में सब कुछ मत बांटो। कुछ अपने लिए भी रखो ताकि अपने बुढ़ापे में काम आ सके।' पत्नी की बात को हवा में उड़ाते हुए हरीश कहने लगे,तुम यूँ ही चिंता करती हो। बुढ़ापे में हमारा साथ देने के लिए बच्चे हैं। अब हमें किस बात की चिंता?’
शुरु-शुरू में दोनों बच्चों ने खूब प्यार दिखाया तो दोनों में पुश्तैनी घर भी बंट गया।

माता- पिता ने सोचा कि चलो अब बच्चों के साथ ही रह लें, कभी एक के पास तो कभी दूसरे के पास। गौरव दिल्ली और सौरभ मुम्बई में रहता था। हरीश ने इस संबंध में दोनों बेटों से बात की।
गौरव ने तुरंत फोन मिलाकर अपने भाई से बात करते हुए कहने लगा, सौरभ क्या तुम मा-बाबूजी को रख सकते हो? मेरे पास तो उनका रहना मुश्किल है। मंहगाई बहुत है, उस पर बच्चे भी अब बड़ी क्लास में हैं। उनके भी खर्चे दिन पर दिन बढ़ते ही जा रहे हैं।' तो भैया मेरा भी तो यही हाल है।’

इस हालात में ऐसा करते हैं कि एक को तुम रखो लो और एक को मैं।' हां, यही ठीक रहेगा। ना आप पर ज्यादा बोझ पड़ेगा और ना ही मुझ पर। पापा को मैं रख लेता हूं और आप मां को ले जाओ।’
लाचार मां-बाप दो हिस्सों में बंट गए। कुछ समय बाद हरीश की तबीयत बिगड़ लगी। जाँच की गई तो डॉक्टर ने बताया कि कुछ कहा नहीं जा सकता की इनकी साँसें कब तक चलेंगी।
हरीश की इच्छा थी कि वह अपने अंतिम समय में पत्नी के साथ रहे, लेकिन दोनों को एक साथ रखने के लिए कोई बेटा राज़ी नहीं था।

एक दिन हरीश की पत्नी अपने बेटे से कहने लगी, गौरव तुम्हारे पापा के साथ कब क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता है। इसलिए ऐसे समय मैं उनके साथ रहना चाहती हूँ।' अपनी माँ के अहसासों को दरकिनार करते हुए वह कहने लगा,मां आप जानती हो दो लोगों का खर्च ना तो मैं उठा सकता हूं और ना ही सौरभ। आप लोग फोन पर तो रोज़ बात कर ही लेते हो। हाँ, उन्हें देखना चाहती हैं तो रोज मेरे फ़ोन से वीडियो कॉल कर लिया करें। लो मैं अभी आपकी बात कराता हूं।’
इसके साथ ही उसने फ़ोन पर वीडियो कॉल किया।

हरीश बाबू उदास से होकर कहने लगे, आशा तुम्हें देखकर मन खुश हो गया। ऐसा लग रहा है जैसे हम पास-पास बैठे हैं।' अपने जज्बातों को काबू में करते हुए उनकी पत्नी कहने लगी,हाँ, हम पास ही तो हैं, दूर कहां हैं? ये तो सिर्फ राहों की दूरियां हैं, दिलों की नहीं।’
आशा तुम अक्सर एक गीत नगुनाया करती थीं।' हाँ, अब तो वह गीत हर पल गुनगुनाती हूं।’
आज वही गीत सुनने का मन हो रहा है और मैं भी तुम्हारे साथ गाऊंगा।' दोनों गीत गाने लगे...तेरे बिना िंज़दगी से शिकवा तो नहीं, शिकवा नहीं, शिकवा नहीं, तेरे बिना िंज़दगी भी लेकिन ज़िन्दगी तो नहीं...। गाते-गाते हरीश ख़ामोश हो गए। आगे तो गाइये भूल गए क्या? गौरव के पापा बोलिए ना.. क्या हुआ?’
वो तो अचानक से खामोश हो गए, सदा के लिए। इसके साथ ही आशा की आत्मा भी विलीन हो गई परमात्मा में। यह देख गौरव रो पड़ा।

उसका बेटा साहिल कहने लगा, `पापा, आप क्यों रो रहे हैं? अब तो कोई समस्या ही नहीं रही कि दोनों को एक साथ कैसे रखें? लेकिन पापा मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है कि क्या दादू-दादी को वहां भी अलग रखा जाएगा या दोनों एक साथ रहेंगे?’
साहिल की आंखों में बहुत से सवाल नज़र आए गौरव को। वो उसके मन की दूविधा को मिटाने में असमर्थ था।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button