प्रभु-भक्ति-महात्मा आनंद स्वामी की दृष्टि में

जो मनुष्य सत्य, प्रेम, भक्ति से परमेश्वर की उपासना करेंगे, उन्हीं उपासकों को परम कृपामय अंतर्यामी परमेश्वर मोक्ष सुख देकर सदा के लिए आनंद युक्त कर देगा।

सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में स्वामी जी लिखते हैं – जो उपासना आरंभ करना चाहे, उसके लिए यही आरंभ है कि वह किसी से वैर न रखे, सर्वदा सबसे प्रीति करे, सत्य बोले, चोरी न करे, सत्य व्यवहार करे, जितेन्द्रिय हो, लम्पट न हो और निराभिमानी हो। यह तो हुई उपासना की तैयारी, परंतु उपासना किस प्रकार करनी चाहिए, इसका वर्णन महर्षि इस प्रकार करते हैं –

जब उपासना करना चाहे, तब एकांत शुद्ध देश में जाकर आसन लगाकर प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इंद्रियों को रोककर, मन को नाभि प्रदेश, हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर करके अपनी आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो जाने से संयमी होते हैं। जब साधक इन साधनों को करता है, तब उसकी आत्मा और अन्तकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है। नित्य प्रति ज्ञान-विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुंच जाता है। जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है, वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है।

यजुर्वेद के एकादश अध्याय के पांचवें मंत्र का भावार्थ लिखते हुए स्वामी दयानंद जी ने यह बतलाया है कि योगाभ्यास के ज्ञान को चाहने वाले मनुष्यों को चाहिए कि योग में कुशल विद्वानों का संग करें, उनके संग से योग की विधि को जानकर ब्रह्म-ज्ञान का अभ्यास करें। जैसे विद्वान् का प्रकाशित किया हुआ मार्ग सबको सुख से प्राप्त होता है, वैसे ही योगाभ्यासियों के संग से योग विधि सहज में प्राप्त होती है। कोई भी जीव संग और ब्रह्मज्ञान के अभ्यास के बिना पवित्र होकर सब सुखों को प्राप्त नहीं हो सकता। अत योग-विधि के साथ ही सब मनुष्य परब्रह्म की उपासना करें।

तात्पर्य यह है कि योग-विधि के बिना उपासना अथवा भक्ति नहीं हो सकती और न ही ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हो सकता है। योग विधि क्या है? यह योग-दर्शन में बताया गया है। यदि कोई भक्त यह समझ बैठा है कि यम-नियमों का पालन किये बिना और आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा ध्यान को प्रयोग में लाए बिना ही यह प्रभु-दर्शन कर लेगा, तो वह भूलता है। थोड़ा-बहुत जितना भी हो सके, इन साधनों की भट्टियों में से भक्त या उपासक को गुजरना ही पड़ता है। महर्षि दयानंद ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में लिखते हैं – यह उपासना योग दुष्ट मनुष्य को सिद्ध नहीं होता, क्योंकि जब तक मनुष्य दुष्ट कर्मों से अलग होकर आपने मन को शांत और आत्मा को पुरुषार्थी नहीं करता तथा भीतर के व्यवहारों को शुद्ध नहीं करता, तब तक कितना ही पढ़े या सुने, उसको परमेश्वर की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती।

जब तक मन यम-नियमों की मंज़िलें तय नहीं करता, तब तक भक्ति का अधिकार ही प्राप्त नहीं होता। मन की वृत्ति इस प्रकार की हो जानी चाहिए कि उसमें हिंसा के भाव न आएं, वह चोरी का चिंतन भी न करने पाए, सत्य और ब्रह्मचर्य पर आरूढ़ रहे, लोभ में न फंसे और शौच, संतोष तथा तप से अपनी वृत्ति भक्तों की-सी बना ले। ऐसी वृत्ति बनाने में ईश्वर पर पूर्ण भरोसा, उसी की इच्छा पर रहने का स्वभाव डालना और वेद, उपनिषद्, गीता आदि का स्वाध्याय बहुत सहायक होते हैं।

इसके पश्चात् आसन की बारी आती है। कितने ही आसन तो केवल शरीर रक्षा के लिए और कुछ मन को एकाग्र करने के निमित्त होते हैं। पद्यासन और सिद्ध आसन विशेष रूप से प्रयोग में आते हैं। परन्तु आप चाहे किसी भी आसन में बैठें, सुख से बैठें और वह आसन ऐसा हो, जिसमें आप बिना थकान के कम-से-कम साढ़े तीन घंटे बैठ सकें। कोई एक आसन ग्रहण कर लीजिए और उसी में शरीर को बिना हिलाये कम-से-कम साढ़े तीन घंटे प्रतिदिन बैठने का अभ्यास कर लीजिए। मन को स्थिर करने से पूर्व शरीर को काबू करने की आवश्यकता है, जिसका शरीर ही वश में नहीं, उसका मन कदापि काबू में नहीं होता है। एक ही आसन में निरंतर साढ़े तीन घंटे निश्चल बैठने के अभ्यास के साथ प्राणायाम का भी अभ्यास करना चाहिए।
महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका में उपासना विषय में लिखा है – जैसे भोजन के पीछे किसी प्रकार की लापरवाही से वमन हो जाता है, वैसे ही भीतर की वायु को बाहर निकाल कर सुखपूर्वक जितना हो सके, उतना बाहर ही रोक दें। पुन धीरे-धीरे भीतर लेकर पुनरपि ऐसे ही करें। इसी प्रकार बारंबार अभ्यास करने से प्राण उपासक के वश में हो जाता है और प्राण के स्थिर होने से आत्मा भी स्थिर हो जाती है। इन तीनों के स्थिर होने के समय अपनी आत्मा के बीच में जो आनंद स्वरूप अंतर्यामी व्यापक परमेश्वर है, उसके स्वरूप में मग्न हो जाना चाहिए। जैसे मनुष्य जल में गोता मारकर ऊपर आता है, फिर गोता लगाया जाता है, इसी प्रकार अपनी आत्मा को परमेश्वर के बीच में बारंबार मग्न करना चाहिए। शरीर आसन से स्थिर हो गया, प्राण प्राणायाम से स्थिर हो गया, तो फिर मन का स्थिर होना स्वाभाविक हो जाता है, क्योंकि प्राण के साथ ही मन का घनिष्ठ संबंध है।
प्राणायाम
प्राणायाम आरंभ करने से पहले दोनों नासिकाओं को स्नान कराना आवश्यक है। नासिका स्नान की विधि यह है कि हाथ पर या लोटे में जल लेकर नासिकाओं में श्वास द्वारा ऊपर खींचना चाहिए और फिर जल नीचे फेंक देना चाहिए। इस प्रकार पांच-छ बार कर लेने से नासिकाएं स्वच्छ हो जाएंगी और बलगम कम हो जाएगा। प्राणायाम भी तभी भलीभांति हो सकेगा।

आसन में बैठकर कमर और गर्दन सीधी रखनी चाहिए। बहुत अधिक तन कर भी नहीं बैठना चाहिए। पहले बायें स्वर से श्वास ऊपर खींचकर दायें स्वर से छोड़ देना चाहिए। उसके बाद दायें से ऊपर खींचकर बायें से छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार सात-आठ बार करने के पश्चात् दोनों स्वरों से प्राण अंदर ले जाइये और नाभि तक अच्छी तरह भर लीजिए और आसानी के साथ जितना रोका जा सकता है, रोकिये। तब एकाएक ऐसे, जैसे वमन किया जाता है, नासिकाओं द्वारा ही प्राण को बाहर फेंक दीजिए और पेट वायु से सर्वथा खाली कर दीजिए। पेट वायु से खाली करते समय नाभि को ऊपर की ओर खींचना चाहिए। प्राण बाहर फेंककर फिर इन्हें बाहर ही रोके रहिए। जब मन घबराने लगे तो धीरे-धीरे प्राण अंदर भर लीजिए। प्राणायाम का सबसे सुगम तरीका यही है। इसी में बाह्य, आभ्यंतर तथा बाह्याभ्यंतराक्षेपी प्राणायाम हो जाते हैं। यह प्राणायाम बिना किसी से सीखे भी किया जा सकता है। इससे आगे फिर किसी सच्चे वीतरागी गुरु की शरण लेनी आवश्यक है।

प्राणायाम से जब प्राण स्थिर होने लगता है और प्राण के साथ मन भी चंचलता छोड़ने लगता है, तो इंद्रियां स्वयं ही काबू में आ जाती हैं। इसी को प्रत्याहार कहते हैं। अब धारणा और ध्यान की बारी आती है। धारणा के लिए हृदय में अथवा भ्रू-मध्य में मन को स्थिर कीजिए और इसका सुगम उपाय यह है कि हृदय अथवा भृकुटि में मन से ओम् के अर्थ की चिंता कीजिए और इसका मानसिक जप कीजिए, जिसमें न जिा हिले, न कण्ठ, केवल मन ही से जाप हो। जब यह अवस्था प्राप्त हो जाए, तो समझिये कि ध्यान लगने लगा है। ऐसी अवस्था में एक ऐसा आनंद प्राप्त होगा, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। आपका मन यही चाहेगा कि घंटों इसी अवस्था में बैठे रहें। जब आप दूसरे सांसारिक काम करेंगे, तब भी अंदर से यही प्रेरणा होगी कि चलो, अब प्रिय-दर्शन करें। तब आपकी आँखें सजल हो उठेंगी और आपके मुख से अकस्मात् निकल पड़ेगा –

जी चाहता है फिर वही फुरसत के रात-दिन,
बैठे रहें तसव्वुरेजानां किये हुए।

इससे आगे की अवस्था का वर्णन कुछ असंभव-सा है, उसे समाधि कहते हैं। भक्त शिरोमणि योगिराज भगवान् दयानंद ने इस अवस्था का वर्णन इन शब्दों में किया है- जैसे अग्नि के बीच में लोहा भी अग्नि रूप हो जाता है, इसी प्रकार परमेश्वर के ज्ञान में प्रकाशमय होकर अपने शरीर को भी भूले हुए के समान जान कर, आत्मा को परमेश्वर के प्रकाश स्वरूप आनंद और ज्ञान से परिपूर्ण करने को समाधि कहते हैं। ध्यान और समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में तो ध्यान करने वाला, जिसके द्वारा ध्यान हो रहा है, जिसका ध्यान हो रहा है, वे तीनों विद्यमान रहते हैं, परंतु समाधि में केवल परमेश्वर के ही आनंद स्वरूप ज्ञान में आत्मा मग्न हो जाती है, वहां तीनों का भेदभाव नहीं रहता। जैसे मनुष्य जल में डुबकी मार कर थोड़ा समय भीतर रुका रहता है, वैसे ही जीवात्मा परमेश्वर के बीच में मग्न होकर फिर बाहर आ जाती है।
इसी अवस्था को प्राप्त करने वाले के लिए ईशोपनिषद् में कहा गया है-

यस्मिन् सर्वाधि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत।
तत्र को मोह क शोक एकत्वमनुपश्यत।।

जहाँ (पहुंचकर) सब भूत आत्मा ही हो गया, वहां एकता को देखते हुए विज्ञानी को क्या शोक है? वहां शोक और मोह रह ही कैसे सकते हैं, जहां सर्वत्र आनंद ही आनंद का स्रोत बह रहा हो। वहां तो सारे झंझट समाप्त हो जाते हैं, हर ओर आनंद ही आनंद दिखाई देता है। वहां अब आनंदघन रह जाता है। अथर्ववेद के दूसरे काण्ड के पहले सूक्त का पहला मंत्र है-

वेनस्तत्पश्यत्परमं गुहा यद्यत्र विश्वं भवत्येकरूपम्।
इदं पृश्निरदुहज्जायमान स्वर्विदो अभ्यनूषत व्राः।।

विद्वान् उस परमात्मा को गुहा (हृदय की गुफा) में देखता है, जहां विश्व एक रूप हो जाता है। यह पृथ्वी भी व्यवहार के अयोग्य हो जाती है। तत्त्व ज्ञानी बाकी जगत् को भी व्यवहार में आने के अयोग्य समझता है। अर्थात् जिस समय भक्त प्रभु चिंतन में हृदयस्थ होकर मग्न हो जाता है, तब उसके लिए समस्त जगत् एकरूप प्रतीक होता है और यह सब कुछ व्यर्थ-सा प्रतीत होने लगता है। प्रभु-चिंतन में वह इतना लवलीन हो जाता है कि इनकी ओर उसका ध्यान ही नहीं रह जाता है। केवल आनंदघन ही उसके सामने रह जाता है। श्वेताश्वतर-उपनिषद् की तो यही पुकार उठी है-

यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोण्मेनेह युक्त प्रपश्येत्।
अजं ध्रु वं सवतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः।।

जब वह युक्त होकर आत्म-तत्त्व के दीपक से उस ब्रह्म तत्त्व को देख लेता है, जो अजन्मा, अटल और सारे तत्त्वों से शुद्ध निखरा हुआ है, तब वह उस देव को जानकर सारी फांसों से छूट जाता है।
लेकिन यह स्मरण रखिए कि जितनी शीघ्रता से ये बातें कह दी गई हैं, उतनी ही शीघ्रता से होती नहीं हैं। इनमें बहुत लंबा समय लग जाता है। इसलिए पूर्ण श्रद्धा, विश्वास तथा प्रेम से इन पर आचरण करना होगा। आलस्य को त्यागकर निम्न आचरण कीजिए-

  1. रात को यदि तीन बजे उठ सकें, तो अच्छा है, अन्यथा चार बजे अवश्य उठ जाइये और एक घंटा ओम् अथवा गायत्री का जाप कीजिए। स्वामीजी के जीवन चरित्र में लिखा है कि कलकत्ते में एक बार पण्डित हेमचन्द्र पावर्ती ने स्वामी जी से पूछा, ईश्वर से मिलने का क्या उपाय है?
    स्वामी जी ने कहा, बहुत दिन तक योग करने से ईश्वर की उपलब्धि होती है।
    तब उन्होंने पूछा, वह योग कैसा है?
    उत्तर में स्वामी जी ने अष्टांग योग की व्याख्या करके सुनाई और उपदेश दिया कि तीन घड़ी रात में उठकर गायत्री का अर्थसहित ध्यान किया करो।
    जो भी लोग स्वामी जी के साथ रहते थे, उन्हें वे सदा प्रातकाल उठने का उपदेश देते थे।
  2. पांच बजे स्नान से निवृत्त होकर प्राणायाम कीजिए। पहले एक-एक नासिका से, फिर दोनों नासिकाओं से बाह्य, आभ्यांतर और बाह्याभ्यांतराक्षेपी प्राणायाम कीजिए। इसके पश्चात भस्त्रा प्राणायाम करें और तब शांत होकर भृकुटि अथवा हृदय में ध्यान लगाएं।
    इसकी विधि पहले लिखी जा चुकी है।
  3. ध्यान के समय ओम् का जाप भी करते रहें।
  4. संध्या-हवनादि करें।
  5. दोपहर को या दिन में जब भी समय मिले, तो गायत्री मंत्र और ओम् का जाप किया करें।
  6. गायत्री मंत्र तथा ओम् का मंत्र इन दो ही के जपने का विधान वेद में है। महर्षि दयानंद ने भी इनका ही आदेश दिया है।
    यजुर्वेद अध्याय 13 मंत्र 24 में गायत्री मंत्र के उपांशु जाप से हर प्रकार के सुख की प्राप्ति का वर्णन है और यजुर्वेद के अन्तिम अध्याय में परमात्मा ने ओम् जपने की आज्ञा दी है। अनुभव बताता है कि दोनों के एक साथ जपने से लोक-परलोक दोनों सुधरते हैं और मन तथा बुद्धि की एकाग्रता प्राप्त होती है। गायत्री का जाप प्रात पूर्व की ओर मुख करके करना चाहिए।

(महात्मा आनंद स्वामी )

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