बहाना बहस का, आरोप-प्रत्यारोप के बहाव में!
लोकसभा में संविधान के 75वें वर्ष पर हुई बहस बेशक देश के सबसे महत्वपूर्ण कानूनी दस्तावेज पर विचार-विमर्श का अवसर था, लेकिन दुर्भाग्यवश यह अवसर भी आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति का शिकार बन गया। अ़फसोस कि यह बहस उम्मीद से ज़्यादा शोर-शराबे, हंगामे और व्यर्थ के आरोपों में घिरी रही। संविधान जैसे गरिमापूर्ण विषय पर इस तरह का स्तरहीन बरताव न केवल लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है, बल्कि देश के प्रति हमारी गंभीरता पर भी सवाल खड़ा करता है।
लोकसभा में संविधान पर हुई इस बहस में दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर आरोपों की झड़ी लगाते हुए, संविधान की मूल भावना की अपेक्षा अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को प्राथमिकता दी। विपक्ष ने इस दौरान संविधान के खतरे में होने का आरोप लगाया, लेकिन उसके पास इसे साबित करने के लिए ठोस तर्क नहीं थे। वहीं, सत्ता पक्ष ने विपक्ष पर संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को नकारने का आरोप लगाया। इस द्वंद्व में संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान तिरोहित हो गया, जबकि इसका उद्देश्य उन मुद्दों पर बहस करना था, जो हमारे संविधान के वास्तविक अनुपालन में आ रही चुनौतियों और सुधारों को लेकर हो सकते थे।
संविधान पर चर्चा के दौरान विपक्ष ने कुछ ऐसे मुद्दों को उठाया, जो संविधान से जुड़ी असल बहस से बहुत दूर थे। आरक्षण, सावरकर, मनुस्मृति और अदाणी जैसे विषयों को घसीटना न केवल राजनीति की दिशा से भटकाव था, बल्कि यह बहस के स्तर को भी घटाने वाला था। संविधान पर चर्चा करते समय किसी भी महापुरुष या ऐतिहासिक संदर्भ का बेजा उपयोग न केवल सामाजिक विघटन को बढ़ावा देता है, बल्कि उन विचारों और कार्यों की भी अवहेलना करता है जिनसे हम आगे बढ़ने की प्रेरणा लेते हैं।
विपक्ष द्वारा संविधान के खतरे में होने का आरोप लगाया गया, लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि इसके पीछे क्या तर्क है। क्या संविधान में किसी संशोधन की ज़रूरत है, या इसकी मूल भावना को कमजोर किया जा रहा है? यदि विपक्ष संविधान पर किसी खतरे को लेकर गंभीर था, तो उसे इसे साबित करने के लिए ठोस और विचारशील तर्क देने चाहिए थे। इसके बजाय, यह आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति बनकर रह गया। सत्ता पक्ष ने भी इस अवसर का फायदा उठाने की कोशिश की और विपक्ष के 70 साल पुराने कार्यकाल की गलतियों को उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस बहस ने केवल राजनीतिक अनावश्यकता और असहमति का रूप लिया, जबकि हमें संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के नवीनीकरण की ज़रूरत थी।
संविधान की सही समझ और पालन की बात करें तो यह महत्वपूर्ण है कि हम उसे केवल एक कानूनी दस्तावेज के रूप में न देखें, बल्कि इसे एक सामाजिक और राजनीतिक दिशा-निर्देश के रूप में स्वीकार करें। संविधान की मूल भावना में सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, समानता, स्वतंत्रता और न्याय की बात की गई है। हमें यह समझना होगा कि किसी भी संविधान का उद्देश्य केवल सत्ताधारी दल/दलों को फायदा पहुँचाना नहीं, बल्कि पूरे देश की जनता का कल्याण होता है। यदि हम संविधान के महत्व को न समझकर केवल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को प्राथमिकता देंगे, तो यह लोकतंत्र के पतन की दिशा में एक बड़ा कदम होगा।
संविधान के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता यह है कि हम इसके निर्माण में योगदान देने वाले हर व्यक्ति और दल का सम्मान करें और इसकी मूल भावना के अनुसार देश की नीति-निर्माण प्रािढया को आगे बढ़ाएँ। इसका मतलब यह नहीं है कि हम किसी एक दल या विचारधारा को सर्वोच्च मान लें, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि संविधान की आत्मा बनी रहे। इस दिशा में सार्थक और विचारशील बहस होनी चाहिए, न कि आरोप-प्रत्यारोप का राजनीतिक प्रहसन!