लेटरल एंट्री: बवाल क्यों?

भारतीय नौकरशाही में पार्श्व प्रवेश (लेटरल एंट्री) या सीधी भर्ती शुरू करने के लिए भारत सरकार द्वारा हाल ही में उठाए गए कदम ने नई बहस खड़ी कर दी है। यह बात पीछे छूटती जा रही है कि यह नीति प्रशासनिक सुधारों के विकास में एक अहम मोड़ साबित हो सकती है। नौकरशाही में सीधी भर्ती का मतलब है, वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर पारंपरिक सिविल सेवा के बाहर से पेशेवरों की नियुक्ति करना। इस अवधारणा को लंबे समय से कठोरता और अक्षमता का आरोप झेल रही प्रशासनिक मशीनरी में नए दृष्टिकोण और विशेष विशेषज्ञता को शामिल करने के उद्देश्य से बहुत पहले पेश किया गया था। बाद में 2014 में विभिन्न क्षेत्रों से वरिष्ठ पेशेवरों को सरकारी मंत्रालयों में भूमिकाओं के लिए नियुक्त करने की अनुमति देने के निर्णय के साथ इसे गति मिली। इसके बाद कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के तहत एक अधिक स्पष्ट ढाँचा बनाया गया, जिसका उद्देश्य वित्त, परैद्योगिकी और शहरी नियोजन जैसे क्षेत्रों में विशेषज्ञों की भर्ती करके शासन में सुधार करना था।

इस नीति के समर्थकों का तर्क है कि नौकरशाही प्रणाली को आधुनिक बनाने के लिए यह दृष्टिकोण आवश्यक है, बाहरी विशेषज्ञों को लाकर, सरकार निर्णय लेने और नीति कार्यान्वयन की गुणवत्ता को बढ़ाने की उम्मीद करती है, जिससे अधिक कुशल शासन को बढ़ावा मिल सके। संभावित लाभों के बावजूद, इस कदम को काफी आलोचना का सामना करना पड़ा है – ख़ास तौर पर मौजूदा आरक्षण प्रणाली और पारंपरिक भर्ती प्रक्रिया के लिए इसके निहितार्थों के संबंध में। कई विपक्षी नेताओं सहित आलोचकों का तर्क है कि सीधे प्रवेश से वह कोटा (आरक्षण) प्रणाली कमज़ोर हो जाएगी, जिसे हाशिये पर पड़े समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए डज़िाइन किया गया था।

विपक्ष ने चिंता जताई है कि ये नियुक्तियाँ योग्यता के उस सिद्धांत को दरकिनार कर सकती हैं, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) और अन्य केंद्रीय सेवाओं का आधार है। उनका तर्क है कि इन सीधी प्रविष्टियों के लिए पारंपरिक परीक्षा और प्रशिक्षण प्रक्रियाओं को दरकिनार करने से कम प्रतिनिधित्व वाली नौकरशाही हो सकती है, जो पक्षपात और अक्षमताओं को बढ़ावा देगी।
इसके अलावा, यह आशंका भी है कि इन नियुक्तियों से सिविल सेवाओं के मूल मूल्यों और व्यवहार में गिरावट आ सकती है। डर यह भी है कि प्राइवेट और कॉर्पोरेट पेशेवरों में भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य की सूक्ष्म समझ की कमी हो सकती है, जो प्रभावी शासन के लिए बेहद अहम है। याद रहे कि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए परीक्षा देकर आने वाले अधिकारियों को इस परिदृश्य का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। दरअसल, लेटरल एंट्री को लेकर छिड़ी राजनीतिक बहस भारतीय राजनीति में जारी व्यापक तनाव को दर्शाती है। लेटरल एंट्री के लिए सत्तारूढ़ दल का समर्थन अक्सर नौकरशाही प्रणाली के भीतर जड़ता को तोड़ने के उद्देश्य से एक सुधारात्मक उपाय के रूप में देखा जाता है। हालाँकि, विपक्षी दल इसे एक अलग नज़रिये से देखते हैं। वे इसकी व्याख्या स्थापित मानदंडों को दरकिनार करने और आरक्षण प्रणाली को कमज़ोर करने के प्रयास के रूप में करते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि विपक्षी दलों की आलोचनाएँ कभी-कभी असंगत रही हैं। उदाहरण के लिए, कुछ नेता जो आज योग्यता और आरक्षण के नाम पर इस नीति की आलोचना करते नहीं थकते, अतीत में सत्ता में रहने के दौरान उन्होंने ऐतिहासिक रूप से इसी तरह के सुधारों का समर्थन किया था। यह राजनीतिक पाखंड के व्यापक मुद्दे को दर्शाता है, जहाँ नीतियों का मूल्यांकन अक्सर उनके गुण-अवगुण के बजाय वोट की राजनीति के आधार पर किया जाता है।

लेटरल एंट्री नीति का भारतीय शासन पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। एक ओर, यह बहुत ज़रूरी विशेषज्ञता और दक्षता ला सकती है, ख़ासकर उन क्षेत्रों में जहाँ विशेष ज्ञान की ज़रूरत होती है। दूसरी ओर, पारंपरिक नौकरशाहों और लेटरल एंट्री के बीच विभाजन और कटुता पैदा होने का जोखिम भी है, जिससे प्रशासनिक ढांचे के भीतर रस्साकशी और अक्षमता की संभावना बढ़ सकती है। कुल मिलाकर, लेटरल एंट्री नीति की प्रभावशीलता काफी हद तक इसके क्रियान्वयन पर निर्भर करेगी। स्पष्ट दिशा-निर्देश और पारदर्शी चयन प्रक्रिया यह सुनिश्चित करने के लिए अहम होगी कि ये नियुक्तियाँ केवल राजनीतिक संरक्षण का साधन न बनें, बल्कि वास्तव में शासन को चुस्त-दुरुस्त करने में योगदान दें। 000

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