सेक्युलर सिविल कोड’ बोले तो?
ऐतिहासिक लाल किले से 15 अगस्त, 2024 को दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वतंत्रता दिवस के भाषण में सेक्युलर सिविल कोड (धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता) के उल्लेख से देश भर में एक नई चर्चा छिड़ गई है। भारत के कानूनी ढाँचे की प्रकृति और देश के सामाजिक ताने-बाने पर इसके संभावित प्रभाव पर विचार जरूरी है। अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने मौजूदा कानूनी ढाँचों से हटकर
धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता’ की ओर जाने की वकालत की और इसे आधुनिक भारत के विकास के लिए जरूरी बताया। सुधार के इस आह्वान में समान नागरिक संहिता' (यूसीसी) पर व्यापक चर्चा की प्रतिध्वनि भी सुनी जा सकती है, जो भारत में प्रत्येक प्रमुख धाार्मिक समुदाय के धर्मग्रंथों और रीति-रिवाजों पर आधारित
व्यत्तिगत कानूनों’ को बदलने के लिए प्रस्तावित कानूनों का एक समूह है।
सयाने बता रहे हैं कि समान नागरिक संहिता' के स्थान पर
धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता’ का सुझाव, विपक्ष से उसका एक मूलभूत मुद्दा छीनने की मोदी सरकार की चाल भी हो सकती है और सांप्रदायिक ताक़तों को कमजोर करने की रणनीति भी। अगर यूसीसी का उद्देश्य सभी धर्मों में समानता सुनिश्चित करने के लिए व्यत्तिगत कानूनों को मानकीकृत करना रहा है, तो प्रधानमंत्री के भाषण में धर्मनिरपेक्षता पर जोर व्यत्तिगत अधिकारों और धाार्मिक स्वतंत्रता के सम्मान के साथ कानूनी एकरूपता को संतुलित करने की आकांक्षा को दर्शाता है। इसके पीछे यह सोच निहित है कि नागरिक संहिता केवल कानूनों का एक समान सेट नहीं है, बल्कि उसे धर्मनिरपेक्षता और निष्पक्षता के सिद्धांतों को कायम रखने में सक्षम होना चाहिए।धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता' अपनाने के निहितार्थ बहुत गहरे हैं। एक ओर, यह एक कानूनी प्रणाली के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जहाँ नागरिकों के साथ उनके धर्म की परवाह किए बिना समान व्यवहार किया जाए, जिससे राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिले। यह विभिन्न समुदायों के बीच विवाह, तलाक, विरासत और गोद लेने को नियंत्रित करने वाले व्यत्तिगत कानूनों के बीच विसंगतियों को खत्म करने की दिशा में एक क़दम का संकेत है।
सरी ओर, यह बदलाव सांस्कृतिक और धाार्मिक स्वायत्तता के संभावित क्षरण के बारे में महत्वपूर्ण चिंताएँ पैदा करता है। आलोचकों का तर्क है कि धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता एकसमान कानूनी ढाँचा लागू करके धाार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन कर सकती है, क्योंकि उसमें विभिन्न समुदायों द्वारा पोषित विविध व्यत्तिगत कानूनों को समायोजित नहीं किया जा सकता। इस तरह, धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक संरक्षण के बीच तनाव इस बहस में एक महत्वपूर्ण मुद्दा होगा।
धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता’ के आह्वान को समकालीन भारतीय राजनीति के संदर्भ में भी समझने की जरूरत है। प्रधानमंत्री द्वारा इस अवधारणा की अभिव्यत्ति शासन के विभिन्न पहलुओं को एकीकृत ढाँचे के तहत लाने के उनकी पार्टी के व्यापक एजेंडे के अनुरूप है। इसमें एक राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देने के साधन के रूप में यूसीसी के लिए भाजपा के लंबे समय से चले आ रहे समर्थन की गूँज सुनी जा सकती है। धर्मनिरपेक्ष' पर जोर को इस एजेंडे के किनारों को नरम करने और मतदाताओं के व्यापक स्पेक्ट्रम को आकार्षित करने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। यह आह्वान ऐसे समय में आया है, जब भारत में विभिन्न मोर्चों पर ध्रुवीकरण बढ़ रहा है। पर्सनल लॉ और यूसीसी के इर्द-गिर्द होने वाली चर्चा अक्सर सांप्रदायिक और राजनीतिक नैरेटिव से जुड़ी होती है। इसलिए, प्रधानमंत्री के भाषण को राष्ट्रवाद के नैरेटिव को मजबूत करने के लिए एक रणनीतिक कदम और मौजूदा कानूनी व्यवस्था में कथित असमानताओं को दूर करने के एक वास्तविक प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार नागरिक संहिता के संदर्भ में
धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को ग्रहण कर रही है तो अपने राष्ट्रवाद' से डिग जाएगी। अंततः,
धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता’ की ओर बढ़ने के लिए निस्संदेह व्यापक विचार-विमर्श और आम सहमति बनाने की जरूरत होगी। इस प्रक्रिया में कानूनी सुधार, विभिन्न हितधारकों के साथ परामर्श और एक संतुलित दृष्टिकोण चाहिए होगा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि धाार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों को कम किए बिना समानता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को बरकरार रखा जाएगा। इसके लिए अल्पसंख्यक समुदायों की चिंताओं के प्रति संवेदनशील होना होगा। साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि कानूनी ढाँचा असमानता को कायम रखने की वजह न बने।