आप तो ऐसे न थे, लखनऊ जी!
लखनवी तहज़ीब क्या स़र्फि मुहावरा बन कर रह जाएगी? लखनऊ के गोमती नगर इलाक़े से आई अशिष्टता, अराजकता, अश्लीलता और असभ्यता की हालिया ख़बर से तो कुछ ऐसा ही लगता है!
अपने पुरुष मित्र के साथ मोटरसाइकिल पर पीछे बैठी एक महिला को भीड़ ने पानी से भरी सड़क पर परेशान किया और उसके साथ छेड़छाड़ की। शहर के एक पॉश इलाके में हुई इस घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है और महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के व्यापक मुद्दे को उजागर किया है। दिन के उजाले में और कथित तौर पर सुरक्षित इलाक़े में घटित यह बेशर्मी भरा कृत्य न केवल कानून और व्यवस्था की विफलता को उजागर करता है, बल्कि एक व्यापक सामाजिक अस्वस्थता को भी दर्शाता है, जिसका तत्काल समाधान किया जाना चाहिए।
घटना का विवरण बहुत ही दर्दनाक है। बाइक सवार लड़का-लड़की बारिश में सड़क पर भरे पानी में फँस जाते हैं, जहाँ कुछ मनचलों की भीड़ उन्हें घेर लेती है। बदतमीज़ी और हुडदंग पर उतरे इन मनचलों ने लड़की के साथ अभद्र हरकतें और अश्लील छेड़छाड़ की। यह कृत्य वीडियो में कैद हो गया और बाद में सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से प्रसारित हुआ। यह तथ्य- कि ऐसी घटना सार्वजनिक स्थान पर, भीड़ के बीच हो सकती है- एक भयावह सच को उजागर करता है कि ऐसे लोगों के मन में न तो व्यवस्था के प्रति कोई सम्मान है, न ही कानून का कोई डर। रही बात सभ्यता, संस्कृति या महिलाओं के सम्मान की, तो दरिंदों की भीड़ से उसकी उम्मीद करना नादानी होगी!
बताया गया है कि सोशल मीडिया पर लानत-मलामत के बाद सोलह आरोपियों को गिरफ़्तार किया गया है। गुस्साए मुख्यमंत्री जी ने 2 आईपीएस समेत 3 अफसरों को हटा दिया। इंस्पेक्टर समेत पूरी पुलिस चौकी को सस्पेंड कर दिया। मामला विधानसभा में भी गूँजा। बेशक ये कदम ज़रूरी हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। कुछ अधिकारियों के निलंबन से उन प्रणालीगत मुद्दों का समाधान नहीं हो सकता, जो इस तरह के ख़तरनाक अपराधों की पुनरावृत्ति के लिए ज़िम्मेदार हैं। इस अवांछित घटना से पता चलता है कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों और नीतियों के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर ये लगभग निष्प्रभावी ही हैं!
यह घटना दर्शकों की भूमिका के बारे में भी गंभीर सवाल उठाती है। वीडियो फुटेज में भीड़ को इकट्ठा होते हुए देखा जा सकता है, फिर भी हमले को रोकने या पीड़ितों की सहायता करने के लिए कोई भी तत्काल हस्तक्षेप करने का साहस नहीं करता। शायद एक मीडियाकर्मी ने ज़रूर विरोध में कुछ कहा, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। दर्शकों की यह उदासीनता क्या गहरी सामाजिक समस्या का संकेत नहीं है, जहाँ लोग अक्सर डर, उदासीनता या निजता की गलत भावना के कारण हस्तक्षेप करने से कतराते हैं? यह एक सांस्कृतिक बदलाव की ज़रूरत को दर्शाता है, जहाँ लोग सशत्त महसूस करें और संकट में फँसे लोगों की रक्षा करने के लिए आगे आने में न झिझकें। यदि ऐसा नहीं होता, तो समझना चाहिए कि लोकतंत्र तेज़ी से जंगलराज में तब्दील हो रहा है!
इसके अलावा, गोमती नगर की घटना कोई अकेली घटना नहीं है। यह महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न और हिंसा के एक परेशान करने वाले पैटर्न का हिस्सा है, जो हमारे समाज को बार-बार कलंकित करता रहता है। निर्भया के बाद बढ़ी हुई जागरूकता और कड़े कानूनों के बावजूद, महिलाओं के लिए रोज़मर्रा की वास्तविकता खतरे और असुरक्षा से भरी हुई है। सार्वजनिक स्थान, जो सभी के लिए सुलभ और सुरक्षित होने चाहिए, वे अभी भी ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ महिलाएँ उत्पीड़न और हिंसा की चपेट में आती हैं।
इस मुद्दे के निदान के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यौन उत्पीड़न और हमले से संबंधित कानूनों को दृढ़ता से लागू किया जाना चाहिए। पुलिस बल को ऐसे मामलों को गंभीरता से सँभालने के लिए पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित और संवेदनशील होना चाहिए। इसके अलावा, महिलाओं और लिंग-आधारित हिंसा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने के लिए भी ठोस पहल की ज़रूरत है। इसमें कम उम्र से ही लिंग संवेदनशीलता पर व्यापक प्रशिक्षण और सार्वजनिक जागरूकता अभियान शामिल हैं, जो हानिकारक रूढ़ियों को चुनौती दे सकें तथा स्ति्रयों को खिलवाड़ की वस्तु समझने की मर्दवादी मानसिकता को बदल सकें।
और हाँ, गिरफ़्तारियाँ काफी नहीं, त्वरित न्याय भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए!