आज़ादी का सबूत


लघु कथा- (बाल मुकुन्द ओझा)

महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा बुलंद किया। देशभर में सत्याग्रह शुरू हो गया। दिल्ली में गांधीजी के नेतृत्व में सत्याग्रह शुरू हुआ। एक दिन वह भी गांधीजी के जुलूस में शामिल हुआ। अचानक घुड़सवार सिपाहियों ने शांत जुलूस पर लाठीचार्ज कर दिया, तो भगदड़ मच गई। एक सिपाही लाठी लेकर गांधीजी की ओर दौड़ा। लाठी उन पर पड़ने ही वाली थी कि वह भागकर गाँधी और लाठी के बीच आ गया। फलस्वरूप गांधीजी बच गए और वह लहूलुहान होकर वहीं गिर गया। अस्पताल में जैसे-तैसे उसकी जान बची। इसी बीच देश आज़ाद हो गया और गांधीजी शहीद हो गए तथा वह लाठी की मार से अपंग।
आज़ाद भारत में साँस लेकर वह बेहद खुश था। मगर उसकी यह खुशी अधिक दिन तक नहीं रह सकी। एक दिन उसने उस सिपाही को देखा जो लाठीचार्ज में शामिल था। अब वह बड़ा अफसर बन चुका था। उससे रहा नहीं गया और बैसाखियों के सहारे चीख-चीखकर सिपाही से अफसर बने व्यक्ति के काले कारनामें बखान करने लगा। अफसर कैसे चुप रहता। आज़ाद भारत में एक बार फिर उसकी पिटाई कर दी गई। पुलिस अफसर पर हमला करने के आरोप में उसे जेल में बंद कर दिया गया। आज़ाद भारत में उसकी रिहाई का प्रयास करने वाला कोई नहीं था।

सज़ा काट कर वह बाहर आया और निर्वाचित लोकप्रिय सरकार के पास स्वतंत्रता सेनानी पेंशन का आवेदन भिजवाया। उसका आवेदन यह कहकर खारिज कर दिया गया कि वह एक पुलिस अफसर पर हमले का आरोपी और सज़ायाप्ता व्यक्ति है। उसकी आँखों में आँसू आ गये। उसके पास गांधीजी की जान की रक्षा करने का कोई सबूत नहीं था।

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