…और अब जनसंख्या बढ़ाओ अभियान?

हाल के सप्ताहों में, दक्षिण भारत के राजनीतिक परिदृश्य में दो प्रमुख मुख्यमंत्रियों की एक असामान्य और कुछ क्षेत्रों में विवादास्पद अपील ने हलचल मचा दी है। आंध्रप्रदेश के चंद्रबाबू नायडू और तमिलनाडु के एमके स्टालिन ने अपने-अपने राज्यों में परिवारों को अधिक बच्चे पैदा करने की सलाह दी है। दोनों नेताओं की अपील के केंद्र में एक महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय वास्तविकता है- घटती जन्म दर और बढ़ती उम्रदराज आबादी। हाल के वर्षों में, आंध्रप्रदेश और तमिलनाड, दोनों में जन्म दर में तेज गिरावट देखी गई है। इन मुख्यमंत्रियों की इस चिंता को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता कि प्रजनन दर में गिरावट क्षेत्र के भविष्य के लिए बड़ी चुनौती है। कम बच्चे पैदा होने से कामकाजी उम्र की आबादी कम हो रही है, जिससे जनसांख्यिकीय बदलाव हो रहा है और वृद्ध आबादी का भरण-पोषण करने वाले युवाओं की संख्या कम हो रही है। इस बदलाव के न केवल आर्थिक विकास बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य, रोजगार और कल्याण कार्पामों की स्थिरता पर भी दूरगामी असर की कल्पना मात्र से डर लगता है! यही वजह है कि नायडू और स्टालिन, दोनों ही इस मुद्दे को राज्यों के भविष्य से जोड़कर देख रहे हैं।

जनसांख्यिकीय चिंताओं से परे, राजनीतिक हिसाब-किताब की भी इन नेताओं की अपील में तयशुदा भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। जनसंख्या और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बीच संबंध एक महत्वपूर्ण विचार है। भारत में, संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन जनसंख्या के आँकड़ों के आधार पर किया जाता है, जिसका अर्थ है कि धीमी जनसंख्या वृद्धि वाले राज्य भविष्य के चुनावों में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में पिछड़ सकते हैं। यदि आंध्र और तमिलनाडु की जनसंख्या वृद्धि स्थिर रहती है, तो अगली जनगणना के बाद निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण के दौरान इन राज्यों में लोकसभा सीटों की संख्या तुलनात्मक रूप में कम हो जा सकती है।

ऐसा लगता है कि नायडू और स्टालिन, दोनों इस जनसांख्यिकीय प्रवृत्ति के संभावित राजनीतिक निहितार्थों को पहचान रहे हैं। इसीलिए वे अभी से बड़े परिवारों को प्रोत्साहित करके, भविष्य के चुनावों में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के संभावित नुकसान का मुकाबला करने की तैयारी कर रहे हैं! बढ़ी हुई आबादी इन राज्यों को संसदीय सीटों के अपने हिस्से को बनाए रखने, या बढ़ाने, में मदद कर सकती है। इस तरह वे आने वाले वर्षों में अपना राजनीतिक दबदबा सुरक्षित रखने का दाँव चल रहे हैं।

नायुडु और स्टालिन चाहे जो सोच रहे हों, लेकिन परिवारों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने का विचार अपनी जटिलताओं से रहित नहीं है। सबसे पहले तो, यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु, दोनों भारत के सबसे विकसित दक्षिणी राज्यों में से हैं। दोनों ने शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और महिला सशक्तीकरण में सुधार के लिहाज से भारी प्रगति की है। बड़े परिवारों को प्रोत्साहित करने की नीति कई नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं की आकांक्षाओं के विपरीत हो सकती है, जिन्होंने अपने प्रजनन विकल्पों को नियंत्रित करने और अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को सुधारने में पर्याप्त प्रगति की है।

वैसे भी इन स्वनामधन्य राजपुरुषों के कहने से लोग 16-16 बच्चे पैदा करने नहीं जा रहे। सत्ता-मोह में राजनेताओं को भले न दिखता हो, जनता को तो साफ दिखता है कि बच्चों की परवरिश का मुद्दा बुजुर्गों के बढ़ने और लोकसभा की सीटें घटने के मुद्दों से कहीं ज़्यादा बड़ा और अहम है। यह एक अहम आर्थिक और सामाजिक जिम्मेदारी है। ऐसे देश में, जहाँ अनेक परिवार वित्तीय दबावों से जूझ रहे हों, किसी भी राज्य में ज़्यादा बच्चे पैदा करने का सुझाव लोगों की ज़िंदगी की वास्तविकताओं के प्रति असंवेदनशीलता नहीं तो और क्या है? अनेक परिवारों के लिए, कम बच्चे पैदा करने का फ़ैसला अक्सर अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा और अवसर प्रदान करने की इच्छा से प्रभावित

होता है। क्या बड़े परिवार बनाने का उपदेश उनकी इन आकांक्षाओं पर कुठाराघात नहीं होगा?
कुल मिलाकर, भले ही नायडू और स्टालिन, दोनों की चिंताएँ वैध हों, उनके समाधान एक बहुत ही जटिल मुद्दे को बहुत सरलीकृत करते प्रतीत होते हैं। इतना तो वे भी जानते होंगे ही कि जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन को राजनीतिक औजार के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक विकास के उन महत्वपूर्ण पहलुओं के रूप में देखा जाना चाहिए जो लोगों की जरूरतों और आकांक्षाओं को दर्शाते हों।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button