अपराजिता
(संगीता झा)
समय के अपने ही खेल हैं, कभी ठहरता ही नहीं। चलता रहता है, ठीक सुबह की गुनगुनी धूप की तरह। जब तक सुबह के अपने क्रिया-कलापों से फ़ारिग हो धूप सेकने आती हूँ तो ये चिल्लाती गर्मी में बदल जाता है। यूँ तो मैं मालती नायक ख़ुद में एक जाना-पहचाना चेहरा हूँ। मेरी पहचान केवल राजस्थान के डीजीपी धीरेंद्र नायक की पत्नी नहीं बल्कि एक मुख्य सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में है। बचपन से ही माँ-बाप, रिश्तेदार मुझे अपराजिता कहते थे, क्योंकि सबका मानना था कि मैं अपने जीवन के सभी पड़ाव साम, दाम, दंड, भेद का उपयोग करके पार कर लेती थी। हारना तो कभी सीखा ही ना था। जीवन में कभी मेरे परेशान होने पर अम्मा कहती, मालू बेटा, परेशान ना हो, ये समय भी बीत जाएगा।
शायद मेरा अच्छा समय भी बीत गया आज मैं अपराजिता ज़िंदगी के इस मोड़ पर आकर अपने आपको इतना पराजित महसूस कर रही थी, जिस भाग्य पर मुझे रश्क था, उसी से घृणा हो रही थी। सिनेमा की रील की तरह बीता समय आँखें के सामने घूमने लगा और पलक झपकते ही मैं अपनी अम्मा-बाबूजी की आँखों का तारा मालू बन गई।
मेरा जन्म एक ज़मींदार खानदान में हुआ था। दादी ने भगवती का जागरण करवाया था, तब जाकर चौधरी खानदान में सात पुश्तों के बाद कन्या का जन्म हुआ था। अम्मा बताती थीं कि ख़ुद जमीदार साहेब यानी दादा ने हाथी पर चढ़कर पैसे लुटाये थे। कहाँ तो उस जमाने में जब बेटों का बोलबाला था, उल्टी गंगा बही थी। दादी का मानना था कि देवी ख़ुद लड़की का रूप ले उनके आँगन में उतरी है। घर पर सब मुझे मालू बिटिया कहकर पुकारते थे। चार भाइयों की अकेली बहन तो थी ही, लेकिन साथ ही दरबान, चौकीदार, माली, ख़ानसामा सबकी आँखों का तारा थी। चोट मुझे लगती थी तो रोती पूरी हवेली थी।
मेरी बड़ी सधी दिनचर्या थी, जिसमें छ बजे उठना, सुबह एक घंटा रामायण या गीता का पाठ पढ़ना जैसे काम शामिल थे। पिताजी ज़मींदार थे, इसलिए डरते थे कि कोई उनकी मालू का अपहरण न कर ले। इसलिए मुझे शाला भेजने के बदले शाला को ही घर पर बुला लिया। प्राइमरी स्कूल के सारे टीचर्स मुझे घर पर आकर सब़क सीखाते थे। ऊपर वाले ने मुझे रंग-रूप के साथ अच्छा भाग्य भी दिया था। मेरे जन्म के पहले ज़मीनदारी की कुछ जमीनों पर दूसरों का क़ब्जा था। उन पर कोर्ट में मुकदमा भी चल रहा था। आमदनी का एक बड़ा हिस्सा वकीलों को चला जाता था और क़ब्ज़े की जमीनों की उपज भी दूसरे ही ले लेते थे। मेरे जन्म के तुरंत बाद सारे म़ुकदमों के फ़ैसले पापा के ह़क में ही हुए तो आमदनी चार गुना हो गई।
यहाँ मैं ही सबकी आँखों का केंद्र बिंदु थी। नाईन आकर रोज़ उबटन लगाती, माली अपनी मालू बिटिया को बाग में ले जाकर घंटों दौड़-दौड़ कर तितलियाँ और भौरें पकड़ता। मैं सारे भँवरों को रस्सी से बांधकर एक साथ उड़ा देती और खूब तालियाँ बजाती। इन सबके साथ दादी इस बात का बड़ा ध्यान रखती कि मुझसे कोई बेअदबी ना हो।
बड़े भैया और मेरी उम्र में बीस साल का फ़ासला था। मैं उन्हें बेटी की ही तरह प्यारी थी। बड़े भैया ने बचपन में पापा को म़ुकदमों की वजह से क़ाफी कठिनाइयों का सामना करते देखा था, जिससे वह क़ाफी गंभीर रहते थे और मैट्रिक की पढ़ाई के बाद से पापा की जमींदारी संभालने में मदद करने लगे थे। दूसरे और तीसरे भैया ने वकालत पास की और पास ही के क़स्बे में वकालत करने लगे। सबसे छोटे और चौथे भैया पढ़ने में क़ाफी तेज थे। उन्होंने जबलपुर मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस किया और आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए तो वहीं के हो गये। मेरे बचपन का बड़ा हिस्सा बड़े भैया के साथ ही बीता था। वो मुझे जी-जान से चाहते थे। जैसे जैसे मैं बड़ी होती गई सारी हवेली से मेरी ही ख़ुशबू आने लगी। मुझे देखकर सब कहते सुंदरता और संस्कारों का ऐसा मिलन विधाता कभी-कभी ही करते हैं।
मैं जब सात बरस की थी तब भैया का ब्याह हुआ। भाभी बड़ी सुशील और घर को संभालने वाली आई। उनका सुंदर चेहरा माँ दुर्गा की तरह था। हमेशा माथे पर वह बड़ा टीका लगाये रहती थीं। वो हमारे घर की बहू कम बेटी ज़्यादा बन गई। मेरी तो जैसे वो छोटी माँ हों। उन्होंने मुझे सिलाई-कढ़ाई भी सिखाई, जिसमें उनकी अच्छी-खासी मास्टरी थी। बड़ी होने पर मैंने चारों भाइयों के लिए एक-एक स्वेटर बनाया। सभी स्वेटरों में मैंने कढ़ाई करके उनके नाम के पहले अक्षर लिखे थे ताकि सब अपना ही स्वेटर पहनें। बड़े भैया ने जब पहली बार अपना स्वेटर पहना तो ख़ुशी के मारे उनकी आँखो में आंसू आ गए थे।
गाँव में अंग्रेज़ी के अच्छे मास्टर ना होने पर शहर से अंग्रेज़ी के मास्टर को महीने में दो बार गाड़ी भेजकर बुलाया जाता था। इससे मैंने अंग्रेजी पढ़ना भी सीख लिया और मैं ही पापा को अंग्रेज़ी का अख़बार पढ़कर सुनाया करती थी। कुल मिलाकर गाँव में रहने के बावजूद मुझे शहर की लड़की बनाया गया। मैं पंद्रह साल की हुई तो घर वालों को मेरी शादी की चिंता हुई। विधाता ने बड़े भैया को संतान सुख नहीं दिया था, लेकिन इसकी जरा भी उनके चेहरे पर कमी नहीं थी। उनकी मालू ही उनकी आत्मा थी। पापा की इच्छा मुझे ज़मींदार खानदान में ब्याहने की थी, लेकिन भैया ने समझाया धीरे-धीरे सारी ज़मींदारी ख़त्म हो जाएगी और आने वाले समय में आईएएस या आईपीएस अधिकारियों का बोलबाला रहेगा। पापा को भी नौकरों का विरोध, मज़दूरों का अभाव और गाँव वालों का शहर पलायन देखकर यह बात समझ में आने लगी थी। दादी भी अब बूढ़ी हो चली थीं और चाहती थीं कि ठाकुर जी के पास जाने से पहले वो अपनी पोती का ब्याह ज़रूर देख लें।
या ने हमारी जाति के युवा आईएएस लड़कों की खोज आरंभ कर दी। आईएएस के रिजल्ट में धीरेंद्र का नाम देख तो भैया की बाँछें खिल उठीं। बिना देर किए बड़ों की सलाह लेकर वरिष्ठ नायक दंपत्ति से मिलने उनके घर जा पहुँचे। ज़मींदारों के घर से रिश्ता आना तो उन लोगों की कल्पना से परे था। उन्होंने तुरंत हामी भर दी। बस फिर क्या था,बरसों तक याद किए जाने वाले विवाह की तैयारियाँ शुरू हो गयीं। मुझे तो इस तरह पाला गया था कि शादी माँ-बाप की पसंद से होनी है और शादी के बाद ही पति से मिल सकते हैं।आख़िर वो दिन आ ही गया, जब मुझे धीरेंद्र की पत्नी बनना था। जयपुर के रजवाड़े से विशालकाय हाथी, घोड़े और ऊँट मंगवाये गयेष बारात का कुछ इस प्रकार प्रबंध किया गया था कि दुल्हा कुछ दूर तक महावत के साथ सजे हाथी, फिर घोड़ी और सबसे आख़िरी में ऊँट पर सवार होकर आने वाला था। लैंप फ़ानूस और बारात तो इस तरह देखते बनती थी कि आज भी विवाह के पच्चीस सालों बाद नरसिंगपुर वाले याद करते हैं। विदाई पर सारा गाँव रो रहा था और घर के मवेशी तक शोकमग्न थे।
इसके बाद मेरा स़फर मिसेज़ मालती नायक एक आईपीएस अधिकारी की पत्नी के रूप में आरंभ हुआ, जो आज तक चल रहा है। मैंने नये परिवेश में ख़ुद को बड़ी जल्दी ढाल लिया। पहली बार जयपुर से मैं जब अपने गाँव पहुँची तो मेरी स्टाइल से बंधी साड़ी, बिना बाँहों वाला ब्लाउज़, हाई हील की सैंडिल और आँखों पर काला चश्मा देखकर पूरे गाँव का मुँह खुला का खुला रह गया था। इधर मेरी विदाई उधर भाभी की गोद हरी हो गई। भैया-भाभी को उनकी मालू यानी मेरे बदले एक प्यारी-सी गुड़िया शालू मिल गई, जो लगभग मेरी यानी अपनी बुआ की प्रतिछवि थी। दादी का देहांत हो गया और नरसिंगपुर में सब यथावत चल रहा था। यहाँ आईपीएस लेडीज क्लब की हर प्रतियोगिता यहाँ तक कि तैराकी और घुड़सवारी प्रतियोगिता में भी मैं ही प्रथम आती थी। यहाँ भी मेरा फिर से अपराजिता नामकरण किया गया। मैंने छोटे ओहदे वाले पुलिसकर्मियों की पत्नियों के उत्थान के लिए प्रयास करना आरंभ कर दिया। मेरा मिशन था- हर हवलदार, कांस्टेबल और सूबेदार के घर में सुख-शांति बहाल करना।
इसी बीच मेरी शादी को पाँच साल हो चले थे। मैंने कई महिला विशेषज्ञों और इंफ़रटिलिटी क्लिनिक के चक्कर काटने शुरू कर दिये। मेरी हालत देखकर धीरेंद्र भी बुझ से गये थे, लेकिन मेरे अपराजिता वाले ख़िताब को वो मिटने नहीं देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने एक योजना बनाई। धीरेंद्र ने बड़े सुनियोजित तऱीके से अपनी पोस्टिंग एक साल के लिए लद्दाख में करा ली और वहाँ भी बस्ती से बहुत दूर घर लिय। एक गोरखा दंपत्ति, जिनके पहले से ही दो बेटे थे, को अपने आउट हाउस में रख लिया। इस योजना को धीरेंद्र क़ाफी समय से कार्यान्वित कर रहे थे। इससे पहले भी मीटिंग के सिलसिले में वह लद्दाख आये थे। योजनानुसार गोरखा की पत्नी गर्भवती हुई। मेरे तो आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा था, जब मुझे पता चला कि ये गर्भ मेरे लिये है। पूरे नौ महीने मैं उस देवी का पेट सहलाती और अपने अजन्मे बच्चे से बात करती रहती थी। धीरेंद्र ने घर से किसी को भी आने से मना कर दिया था।
मैंने अपने आपको उन नौ महीने के लिए बंद कर लिया था। सभी को यही बताया गया था कि डॉक्टर ने मैडम को बेड रेस्ट की सलाह दी है। पलक झपकते ही नौ महीने बीत गये और अंशु का जन्म हुआ।
कॉन्ट्रैक्ट के मुताब़िक उस बेचारी ने बिना बच्चे का मुँह देखे ही बच्चा मेरी गोद में डाल दिया। ईश्वर की कृपा से मेरे चेहरे पर वो चमक भी आ गई थी, जो एक प्रसूता के चेहरे पर होती है। अंशु की पैदाइश का राज स़िर्फ मेरे और धीरेंद्र के बीच ही रहा। पहले तो धीरेंद्र से स़िर्फ प्यार था, जो अब असीम श्रद्धा में बदल गया।
एक महीने बाद अम्मा और सासूमाँ दोनों आईं और मेरी गोद में अंशु को देखकर निहाल हो गयीं। मेरे बेटे का नाम हमने सूर्य भगवान के नाम पर अंशुमान रखा और घर पर हम प्यार से अंशु कहकर बुलाने लगे। अंशु बड़ा होने लगा और मेरा मातृत्व भी निखरता गया। बीच-बीच में धीरेंद्र मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाते थे, लेकिन अंशु की पढ़ाई की वजह से मैं कभी साथ नहीं गई। अंशु आईआईटी में दाख़िला लेना चाहता था, जिस कारण मैं और अंशु आईआईटी कोचिंग की वजह से कोटा में रहने लगे।
धीरेंद्र अब राजस्थान के डीजीपी बन गये थे। उनकी पोस्टिंग राजधानी जयपुर हो गई थी। धीरेंद्र महीने में एक बार लॉन्ग वीक एंड में कोटा आते थे, किंतु ओहदा बढ़ने के साथ ही हर हफ़्ते उनका आना आसंभव-सा होता था। मेरी तपस्या और अंशु की मेहनत रंग लाई। अंशु का आईआईटी में चयन हो गया। मैं अब अपराजित माँ बन गई। अंशु आईआईटी पवई चला गया और मैं अपनी प्यारी नगरी कोटा को अनाथ करके धीरेंद्र के साथ जयपुर आ गई। कोटा छोड़ते वक्त राजस्थान के भीषण सूखे में भी मेरी आँखें नम थीं। धीरेंद्र को मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाने का फ़रमान मिला, जहां उन्हें गृहमंत्री और रक्षामंत्री से मिलकर राजस्थान गुजरात सीमा पर हो रही घुसपैठ पर निर्णय लेना था। धीरेंद्र के मना करने के बावजूद भी मैं उनके साथ निकल पड़ी।
मैंने धीरेंद्र से कहा, तुम्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। मैं अपना मन आर्टगैलरी, क़ॉफी शॉप और किताबों से बहला लूँगी। शॉपिंग तो है ही मेरा टाइम पास। पहले ही दिन दिल्ली हाट में मैंने उसे देखा। महाराष्ट्र की वर्ली पेंटिंग की प्रदर्शनी में चित्रों को वो इतने गौर से देख रही थी मानो रंगों की ज़बान समझने की कोशिश कर रही हो। उसके बाद अनजाने ही हम दोनों हर शॉप में एक साथ जा रहे थे। हर चीज को परखने का उसका अनूठा ढंग था। लकड़ी के बैलों के गले में बंधे घुँघरुओं को इस तरह ख़ुद के कान के पास बजा रही थी, जैसे पानी में जलतरंग बज रहा हो। उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था, जो अनायास ही मुझें उसकी तऱफ खींचे जा रहा था।
अगले दिन भी अचानक ाढासवर्ड में उससे मुल़ाकात हो गई। उसे देख ऐसा लगा जैसे बुक रीडिंग के बीच आँखें बंद करके सिर हिलाते हुए शब्दों को पी रही हो, तब उसकी गंभीरता और आत्मविश्वास उसके व्यक्तित्व से बिल्कुल मेल खाता नहीं लगा। शहद-सी सुनहरी आँखें, बायें गाल का गड्ढा, सुर्ख़ लाल रंग की लिपस्टिक और हाई हील की सैंडिल, लगभग मेरी ही उम्र की ही थी। नज़र उसके चेहरे पर जाकर चिपक गई और देखते ही ख़्याल आया कि विधाता ने कितनी फ़ुरसत में गढ़ा है। धत् मैं भी कितनी नासमझ, ये कोई उम्र थी मेरी, जो अपनी ही उम्र की दूसरी महिला के बारे में इतनी बारीकी से सोचूँ! मुझे ख़ुद की ओर ताकते देख वो भी मुझे ध्यान से देखने लगी। शायद उसकी आँखों में भी कल की आधी-अधूरी पहचान की छवि ब़ाकी थी। मैं मन ही मन थोड़ा हंसी और चुपचाप बाहर निकल गई।
तीसरे दिन मैं ख़ान मार्केट के ब्लू क़ैफे गई, वहाँ पहले से ही सभी कुर्सियाँ भरी थीं। कोने में एक ख़ाली कुर्सी थी, जिसके साथ की कुर्सी पर वही चंचल एक जोड़ी आँखें दिखाई थीं। कुछ अजीब-सा संयोग, पर अच्छा लगा। मैं वहाँ चलकर पहुँची तो उसने पास पड़ी ख़ाली कुर्सी की तऱफ इशारा किया। इन तीन दिनों में अपने अकेलेपन से मैं बोर हो चुकी थी। मन में उस शहदी आँखों वाली महिला से दोस्ती करने की इच्छा जगी। मैं उससे बात करने का बहाना ढूँढने लगी, लेकिन वो तो शायद क़ैफे की दीवाल पर लगे चित्रों को मानो पी जाना चाहती हो। उसके बिल्कुल पास जाकर मैंने अपनी ही तऱफ से पहल करके पूछा, क्या आप चित्रकार हैं? वो मुस्कुराई और खामोशी के साथ उसने ना का इशारा किया।
मैंने फिर प्रश्न दागा, क्या आप पत्रकार हैं? उसने फिर नहीं के अंदाज में गर्दन हिलाई। मैंने बात आगे बढ़ाने के लिए उसके हाथ में पकड़ी पुस्तक देखी जो थी, कलियुग और रामायण। मैंने फिर उससे पूछा, क्या आप भी रामायण के पात्रों में रुचि रखती हैं? जवाब में उसने स़िर्फ सिर हिलाया। मैं अकेलेपन से इस कदर उकता गयी थी कि फिर अपना मुँह खोला और पूछा, रामायण में आपका प्रिय पात्र कौन है? मैं तो राम की सीता बनी रहना चाहती हूँ।
उसने खा जाने वाली नज़रों से मुझे देखा और जोर-से कहा, सीता को तो सब समझते हैं, लेकिन किसी ने उर्मिला का त्याग देखा? लक्ष्मण तो अपने भाई-भाभी के साथ वन चले गये, लेकिन उर्मिला राजप्रासाद के एक एकांत कक्ष में एक वृंतच्युत कुसुम कलिका की भाँति एक नहीं, दो नहीं, पूरे चौदह वर्षों तक पड़ी रही। महर्षि वाल्मीकि का हृदय जो एक क्रोंच पक्षी के जोड़े के बिछोह को देखकर रो पड़ा था, ने भी उर्मिला के दुःख को महसूस नहीं किया। तुलसी दास जी की पूरी रामचरितमानस में भी उर्मिला के लिए केवल दो ही लाइनें लिखी गई हैं- जानकी लघु भगिनी, सकल सुंदरी शिरोमणि जानिकै।। सो तनय दीन्ही ब्याही लखनही सकल विधि सम्मानी कै।।
मैं तो जैसे डर-सी गई। एक पल के लिये लगा मानो साक्षात मंडन मिश्र की पत्नी सरस्वती को देख रही हूँ।मुझे साहित्य, धर्म और राजनीति में क़ाफी रुचि थी। पढ़ना मेरी हॉबी थी, पर ये तो मुझसे भी बीस निकली। मेरा खुला हुआ मुँह देखकर उसने कहा, म़ाफ करना, मैं उर्मिला में ख़ुद को देखती हूँ। इससे रामायण और रामचरितमानस का प़ा आते ही भावुक हो जाती हूँ।
ये सुनकर मेरे अंदर की बरसों पहले सोई लेखिका जाग उठी और उसकी ज़िंदगी के बारे में जानने की कुलबुलाहट होने लगी। दोनों ने एक साथ कॉफी पी, पर निजी ज़िंदगी के बारे में कोई बात नहीं हुई। उसे भी मेरा साथ भा रहा था। दोनों ने अगले दिन फिर वहीं सुबह ग्यारह बजे मिलने का वादा करके एक-दूसरे से विदा ली। अगले दिन धीरेंद्र के जाते ही मैं फिर ब्लू क़ैफे पहुँच गई। वो पहले से ही वहाँ मौजूद थी। शायद उसे भी मेरा इंतज़ार था। उसने ख़ुद ही प्रस्ताव रखा, क्या आज मैं आपको दिल्ली भ्रमण करा देती हूँ। कार में पीछे बैठे-बैठे बातें भी करते रहेंगे।
मैं दिल्ली में सब देख चुकी थी, लेकिन उसके साथ का लोभ छोड़ ना सकी। ऐसा लगा मानो हम बरसों की दोस्त हों। अत पीछे सीट पर बैठकर दिल्ली भ्रमण के लिए निकल पड़ी। बसंती रंग के सलवार-कुर्ते में वो खिली-खिली धूप-सी लग रही थी। उसके बैठते ही कार के अंदर की सिहरन उसके शरीर से आती एरोमा की वजह से गुनगुनी गर्माहट में तब्दील हो गई। ज़िंदगी में पहली बार मैंने इस तरह दिल्ली भ्रमण किया। राजघाट हो या हुमायूँ का म़कबरा कब बना, किसने बनवाया, इतिहास और प्रकृति का इतना सुंदर विवरण दुनिया के किसी गाइड के बस की बात नहीं थी। मैं दो ही दिनों में उसके इतने क़रीब आ गई थी कि मुझे अब उसकी निजी ज़िंदगी से भी सरोकार होने लगा था। मैंने उससे पूछा, आप क्या करती हैं? उसने उत्तर दिया, मेरी ज़िंदगी औरों से क़ाफी अलग है।
मेरी जिज्ञासा तो अब थमने का नाम ही नहीं ले रही थी, बिना रुके दूसरा प्रश्न दागा, आपके कितने बच्चे हैं?
उसने बिना किसी हिचक के जवाब दिया, मेरा एक बेटा है, लेकिन फॉर योर काइंड इन्फ़ॉर्मेशन आई एम नॉट मैरिड। ये सुनकर मुझे ज़ोर का झटका लगा। मुँह में कड़वाहट-सी घुल गई। एक पल को हाथ-पैर ठंडे पड़ गये। मैं उससे दूर हटने लगी। मेरी साड़ी का एक कोना, जो उसके घुटने छू रहा था, मैंने हल्के से खींच लिया, जैसे कोई गंदगी ना छू जाए। उसके बाद हमारे बीच चुप्पी पसर गई। उसकी कमान-सी भौंवें, भारी लंबी पलकें, गालों के गड्ढे, होंठों की स्मित हंसी सब कुछ ऩकली लगने लगी।
वो मुस्कुराई और बोली, मैं आपको बहुत बुरी लग रही हूँ ना! मुझे लगा क्या मेरा चेहरा इतना बोलता है, जो बात मेरे मन में उठी, उसने तुरंत भाँप ली। मुझे लगा कि इसके साथ दोस्ती करके मैंने बड़ी गलती की है। अकेले ही इधर-उधर घूमती रहती तो ये दिक़्क़त पेश ना आती। एकदम से कार से उतरना बदतमिजी होगी। समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? ऩफरत या तरस, कुछ भी नहीं सूझ रहा था। मेरे अंदर की जिज्ञासा बढ़ी तो पूछ बैठी, आप इतनी शालीन और सलीकेदार औरत हैं, फिर ऐसी ज़िंदगी कैसे जीती हैं?
उसने बड़ा सपाट-सा उत्तर दिया, मैंने सोच-समझकर बेटा पैदा किया है। मेरे पार्टनर पहले से ही शादीशुदा थे, जो अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण समर्पित भी थे।
हे भगवान! ये औरत है या त़ूफान। मेरी निगाहें उस पर टिकीं, इस उम्मीद में कि अब क्या बोलेगी
वो? मैंने ही पूछा, तुम तो पढ़ी-लिखी हो, तुम्हारे श़ौक भी पढ़े-लिखों जैसे हैं तो तुमने शादी क्यों नहीं की?
मेरे ख़्याल से शादी लोगों को सेटल कम और अनसेटल ज़्यादा करती है। कम से कम मेरे आस-पास का अनुभव तो यही कहता है। रिश्ते में पत्नी गुड़िया की तरह तोड़ी-मरोड़ी जाती है, पर आप नहीं समझेंगी। मैंने बेटे को बताया कि मैं शादी नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने उसे अडॉप्ट किया है। मुझे लगा, इस बेहूदा औरत की ज़िंदगी ठीक मुझसे उल्टी है। कहाँ मैं जो गोद लिये बेटे को स्वयं जने की तरह पाल रही हूँ और कहाँ ये जो ख़ुद के बेटे को अडॉप्ट किया बता रही है।
वो बोलती रही, मैंने फिजिक्स में एमएससी और पीएचडी की है और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हूँ।
उसने अपना कार्ड मुझे थमाया, जिसके पीछे उसका पूरा पता लिखा था। उसने मुझसे वादा लिया कि मैं कल ज़रूर उसके घर पर लंच के लिए आऊँ। कार्ड पर लिखा था- प्रोफेसर बिपाशा घोषाल। तुम मुझे रेणु कह सकती हो।
मैं अपनी पहचान की परछाई को भी उससे बचाकर रखना चाहती थी। होटल के रास्ते बिपाशा मेरे दिलोदिमाग़ में छायी रही। उसके बारे में जानने की इच्छा बढ़ती जा रही थी। उसकी ज़िंदगी मेरे दिल और दिमाग़ दोनों को बौखला गई। उसके मन पर कोई बोझ नहीं, चाहतों का कोई बंधन नहीं, और तो और, कोई अपराध बोध नहीं। नरसिंगपुर के एक क़स्बे में जन्मी मैं मालती बड़ी दुविधा में पड़ी थी कि धीरेंद्र से अपने दिन के बारे में क्या कहूँगी? एक बिन ब्याही माँ के साथ बिताया पल कैसे बखान करूँगी? व्हाट एन अचीवमेंट! धीरेंद्र क्या सोचेंगे? इसी उधेड़बुन में होटल पहुँच गई। रात को धीरेंद्र क़ाफी देर से आए। उन्होंने मुझसे कुछ नहीं पूछा। वे तो स़िर्फ अपनी कामयाबी की ख़ुशी में झूम रहे थे। उनका नाम प्रेसिडेंट मेडल के लिये सेलेक्ट किया गया था। दूसरे दिन जब मैं उठी तो धीरेंद्र जा चुके थे। दस बजते ही मैं बोर होने लगी और मेरे ख़्यालों में बिपाशा फिर प्रकट हो गई। मेरे अंदर की लेखिका का दिल हिचकोले लेने लगा। सोचा लिखने के लिये अच्छा मसाला मिलेगा, तैयार होकर मैं निकल पड़ी। उसका घर ढूँढने में कोई मुश्किल नहीं हुई। घर के अंदर कदम रखते ही मुझे एक जानी-पहचानी-सी मेल परफ्यूम की ख़ुशबू आयी। उसने बताया ये प्रेम यानी उसके पार्टनर का फ़ैवरेट परफ़्यूम है, जो उसे भी अच्छा लगता है। जहां तक नज़र गई हर कोना खूबसूरत और सुकून भरा लगा। ऐसा लगा मानो पल भर में पूरी दुनिया घूम आयी। पीले रंग की रंगीन दीवार पर तितलियों के चित्रों को फ्रेम में लगा रखा था। दूसरी दीवार पर कैनवास की बहुत बड़ी पेंटिंग लगी थी। उसकी पैंटिंग्स, किताबें, कट ग्लास, टेराकोटा का कलेक्शन उसके व्यक्तित्व का बयान कर रहा था। बातों ही बातों में मैंने उससे पूछा, तुम्हारा बेटा कहाँ है?
उसके चेहरे पर दर्द की कुछ हल्की लकीरें उभरी और खो गयीं। बिना किसी स्टाइल में बंधे बालों में उसने अपनी उँगलियाँ उलझा लीं जैसे कुछ छिपा रही हो। नरम और मुलायम बाल फिसलने लगे, वो हॉस्टल में रहता है। कहकर वो किचन में चली गई। मैं एक जिज्ञासु लालसा के साथ उसके घर में घूमने लगी। घूमते-घूमते मेरा ध्यान एक छोटे-से फोटो फ्रेम की तऱफ गया, जिसे बड़े जतन से ढेर सारे रंग-बिरंगे पत्थरों के पीछे छिपाकर रखा गया था, लेकिन फिर भी मेरी जासूसी नज़रों ने छिपे फ्रेम को देख लिया और झट से फ्रेम को अपनी तऱफ खींच लिया। ठंडी पथराई आँखों से मैं उस फ्रेम को देखती रह गई। उस फोटो में धीरेंद्र उसके साथ थे।
मैंने उस फोटो को वहीं रखा और किसी तरह लड़खड़ाते हुए डाइनिंग टेबल तक पहुँची, मैं अब चलती हूँ, खाना फिर कभी खाऊँगी। उसे भी शायद कुछ समझ आ गया था। वो भी फटी आँखों से मुझे देखती रही।मेरा दर्द से निचुड़ा चेहरा देख वहीं थम गई। काँटों की तरह कई सवाल मेरे दिलोदिमाग़ पर आये, पर उनका जवाब पाने के लिए मैं वहाँ रुकी नहीं।
धीरेंद्र की महक उसके घर से आना और धीरेंद्र का मीटिंग के लिए बार-बार दिल्ली आना अब सब समझ में आ रहा था। एक झटके में मैं धीरेंद्र से कट गई। अपने घर को संजोने के लिए कितने जतन किए। धीरेंद्र से जुड़ी मेरी आस्था, श्रद्धा और विश्वास मेरी इच्छाओं और संकल्पों की शक्ल में पिछले पच्चीस सालों से मेरे अंदर कितने ही रूपों में पलता रहा। अपने हिस्से आयी इस हार का ना तो मैं गला घोंट सकती थी और ना ही उसे स्वीकार कर सकती थी। ज़िंदगी भर अपराजिता का ख़िताब पाने वाली मालती जीवन के इस मोड़ पर पराजित होकर खड़ी थी।