असार संसार
असार है यह संसार, और फिर यह शरीर तो सर्वथा क्षणभंगुर है। जो श्वास आता है, उसके जाते समय कोई नहीं कह सकता कि फिर यह लौटकर आयेगा या यही अंतिम श्वास सिद्ध होगा। यजुर्ववेद का स्वाध्याय करते हुए, जब मैं पैंतीसवें अध्याय पर पहुंचा और इसके बाईस मंत्रों का पाठ किया तो मेरी आंखें खुल-सी गईं। भगवान ने हमें इस संसार में क्यों भेजा? जीव को यहां आकर क्या करना चाहिए? जन्म और मृत्यु क्या है? मरकर क्या गति होती है? कुछ ऐसी समस्याएँ मेरे सामने उपस्थित हो गईं, जिन पर कभी विचार करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी थी। परन्तु इस अध्ययन ने मुझे बाधित कर दिया कि मैं इन पर विचार करूं। इसी अध्याय का चौथा मंत्र है –
अश्वत्थे वो निषदनं पणे वो वसतिष्कृता। गोभाजऽ इत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम्।।
कल-पर्यंत संसार रहे न रहे, ऐसे अनित्य संसार में तुम लोगों की स्थिति है, और पत्ते के तुल्य चंचल शरीर में भगवान ने तुम्हारा निवास किया है। परन्तु, तुम इन्द्रियों ही के दास हो! परमात्मा की भक्ति करो, इसी से तुम्हारा कल्याण होगा! स्वामी दयानंद ने इस मंत्र का भावार्थ करते हुए लिखा है – मनुष्यों को चाहिए कि अनित्य शरीरों और पदार्थों को प्राप्त हो कर क्षणभंगुर जीवन में धर्माचरण के साथ नित्य परमात्मा की उपासना करके आत्मा और परमात्मा के संयोग से उत्पन्न हुए, नित्य सुख को प्राप्त हों!
क्या कांगड़े वालों को ज्ञात था कि उनके लिए 5 अप्रैल की प्रात आएगी या नहीं? बिहार के लोग दिन के समय अपने कामों में संलग्न थे। कोई दुकान पर बैठा था, कोई बाज़ार में जा रहा था। मां अपने बच्चे को दूध पिला रही थी। भोले बालक आराम से खेल-कूद रहे थे। सब अपने कार्यों में मग्न थे, परन्तु तभी एक ऐसा झटका आया, जिससे सहस्रों मृत्यु की गोद में सो गये। विशाल अट्टालिकाएं भूमि पर लौटने लगीं, हंसते बालक रो उठे और बाज़ारों की सफाई की गई तो साइकिलों पर सवार लाशें मिलीं। उन्हें इतना भी समय न मिला कि वे साइकिलों से उतर सकें। सब जहां के तहां ही मृत्यु के ग्रास बन गये। जिन दिनों खुदाई का काम हो रहा था, उन दिनों मैं वहीं था। मेरे सामने जब एक मकान की खुदाई की गई, तो दो लाशें एक साथ निकलीं। मां बच्चे को गोदी में लिये स्नान करा रही थी। साबुन की टिकिया उसके हाथ में थी, किन्तु जब मौत आई, तो इतना भी नहीं हुआ कि साबुन ही नीचे रख सकती। ठीक तो कहा है –
क्या भरोसा है जिंन्दगानी का, आदमी बुलबुला है पानी का।।
क्या क्वेटावाले जानते थे कि उनके भाग्य में क्या लिखा है? 29 जुलाई की रात को कितनी उमंग, कितने उल्लास, कितनी स्कीमें और कितने ही प्रोग्राम मन में बनाकर वे सोये थे। कितनों ने पहली रात विवाह के कंगन पहने थे। कितनी ही देवियों ने विवाह की मेहंदी लगाई थी। परन्तु रात्रि के घने अंधकार में भूकंप के एक ही झटके ने सब आशाओं पर पानी फेर दिया। सुंदर नगर मिट्टी का ढेर बन गया। सैकड़ों मर गये और सहस्रों रोने के लिए जीवित रह गये। किस बात पर मनुष्य इतना इतराता है और क्या सोचकर इस अमूल्य जीवन को व्यर्थ कामों में नष्ट करता है? अरे मन! कभी तूने इस पर विचार किया कि –
खबर नहीं घड़ी एक की, नहीं इक पल की आस।
ना जाने इस जीव का, भोर कहां हो वास।।
वृक्ष के पत्ते की भांति यह शरीर कब टूटकर गिर पड़ेगा, यह कोई नहीं कह सकता। फिर जब तक वह वृक्ष के साथ जुड़ा हुआ है, तब तक इसका सदुपयोग क्यों न कर लिया जाय? क्यों रे मन, कहो क्या इच्छा है? इस अल्प काल में, जिसमें से कितना ही समय बचपन में व्यतीत हो गया, कितना ही सोने में गुज़र गया, कितना ही रोगों और उनकी निवृत्ति में लग गया, कितना ही शरीर रक्षा में चला गया और कितना ही विषयों-वासनाओं की पूर्ति में नष्ट हो गया, क्या करने का निश्चय है? कौन जानता है श्वास अभी समाप्त हो जानी है या कुछ समय पश्चात्? तू इस शेष काल को भी खो देना चाहता है या इसका अच्छा उपयोग करना चाहता है? जीवन का उद्देश्य तो तुझे भगवान् बता चुके हैं और वह है भक्ति, अनित्य शरीर में रहते हुए दो नित्य ज्योतियों का मिलाप आत्मा और परमात्मा का योग। कितने सुंदर शब्दों में हमारे पूर्वजों ने युवकों तथा युवितयों को सावधान किया है!
यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावज्जरा दूरतो।
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावक्षयो नायुष।।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य्यः प्रयत्नो महान्।
संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यम कीदृश? जब तक शरीर स्वस्थ है, जब तक वृद्धावस्था दूर है, जब तक इन्द्रियों की शक्ति कम नहीं हुई है, आयुष्य भी क्षीण नहीं हुआ है, तब तक बुद्धिमान् पुरुष को उचित है कि अपने कल्याण का प्रयत्न भली भांति करें। घर में आग लगने पर कुआं खोदना कैसा! पत्थरों से भरी नदी यजुर्वेद के पैंतीसवें अध्याय के दसवें मंत्र में कहा गया है-
अश्वन्वती रीयते सं रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखाय।
अत्रा जहीमोऽशिवा ये असञ्छिवान्वयमुत्तरेमाभि वाजान्।।
पत्थरों से भरी हुई संसार रूपी यह नदी बही चली जा रही है। हे मित्रों! (इससे पार उतरने के लिए) कमर कसो, उठो और पार उतरकर ही दम लो। दुःखदायी जो बन्धन हैं, उनको यहीं छोड़कर कल्याणप्रद सच्चे बल, के भरोसे इसके पार उतर चलो। कितने फिसलने पत्थर हैं इस सागर में! जरा ध्यान चूका और फिसल गये। भतृहरि इस नदी का वर्णन करते हुए कहते हैं –
आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णा तरंगाकुला।
रागग्राहवती वितर्क – विहगा धैर्य्यद्रुमध्वंसिनी।।
मोहावर्तसुदुस्तरातिगहनो प्रोत्तुङ्गचिन्ता तटी।
तस्याःपारगता विसुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः।।
आशा नाम की इस नदी में मनोरथ रूपी जल भरा है। इसमें तृष्णा रूपी लहर और राग रूपी मगर हैं। नाना प्रकार के तर्क-वितर्क पक्षी हैं। यह नदी धैर्य रूपी पेड़ उखाड़ देती है। मोह ही इसके कठिन भंवर हैं और चिनार रूपी इसके ऊंचे किनारे हैं। इस नदी को शुद्ध मननशील योगी ही पार कर आनंद को प्राप्त होते हैं।
अरे मन! इसी किनारे बैठा तू खेल खेल रहा है। सारे साथी पार जा रहे हैं। ऊपर से काली रात आ पहुंची है और तू पाप की गठरी अधिक भारी करता चला जा रहा है। भारी गठरी उठाकर कैसे पार उतर सकेगा? जिन विषयों को तू सुख और आनंद देने वाला समझ बैठा है, क्या यह तेरे काम आएगा? नादान, ये तो यहीं के बखेड़े हैं। तू कुछ भी साथ नहीं ले जा सकता। न धन, न संपत्ति, न कोई मोटर, न कुछ और। हां, जिन खेलों में तू पड़ गया है, वे तेरी पाप की गठरी को भारी अवश्य बना देंगे और जब तू इस नदी को पार करने लगेगा तो वे बाधा बनकर तुझे दुःख देंगे। अरे मन! तू प्रति क्षण गठरी में बोझ बढ़ाता ही चला जा रहा है। उठ, छोड़ इन खेलों को! एक-एक क्षण जो बीत रहा है, अनमोल है, फिर नहीं मिलेगा-
दूर प्यारे की पुरी है, दिन किनारे आ चुका।
चल, नहीं तो इस झमेले में पड़ा पछताएगा।।
अतएव जो भी और जितना भी समय पास रह गया है, इसे अब धर्माचरण और प्रभु-भक्ति में लगाना चाहिए। एक क्षण के लिए भी मन को अब छुट्टी न दे, जिससे वह हमें हमारे जीवनोद्देश्यों से विमुख न होने दें।
ऋग्वेद के पहले मण्डल के 164वें सूक्त के 37 और 38वें मंत्र हैं, उनमें भी बड़ी सुगमता से अपने आपको पहचानने और अनित्य शरीर से लाभ उठाने की बात कही गई है –
न वि जानामि यदिवेदमस्मि निण्य सन्नद्धो मनसा चरामि।
यदा मागन् प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे भागमस्याः।।
(ऋ. 1 164 37)
मैं नहीं जानता, मैं कौन वस्तु हूं। मैं जो एक रहस्य बना हुआ हूं, अब मन के साथ पूरा तैयार होकर चल रहा हूँ। जब ऋतु (सृष्टि विज्ञान) का बड़ा भाई आत्मविज्ञान मुझे प्राप्त होगा, तभी मैं इस वाक् (वेद) का भेद पाऊंगा।
अपाङ् प्राङेति स्वधया गृभीतोऽमर्त्यो मर्त्येना सयोनि।
था शश्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्य न्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम्।।(ऋ.1-164-39)
अमर आत्मा इस मरने वाले शरीर के साथ रहता हुआ, माया के वशीभूत हुआ नीचे और ऊपर जाता है। (उच्च-नीच योनियों में घूमता है)। अमर और मरने वाला, दोनों साथ रहते हुए भी सदा भिन्न गति वाले रहते हैं। इनमें से लोग इक को देखते हैं, दूसरे को नहीं। इस अमर जीवात्मा और मरने वाले शरीर का संबंध इसलिए किया गया है ताकि यह अमर दूसरे महाअमर को जो आनंद स्वरूप है, पा सके। यह शरीर प्रभु को पाने का एक साधन है। यदि इस साधन को साध्य समझ लिया जाए और इसकी पूजा आरंभ कर दी जाए, तो क्या गति होगी और उस आत्मा का क्या बनेगा, जिसने हम पर भरोसा किया। इसका यह प्रयोजन नहीं कि शरीर की सर्वथा अवहेलना कर दी जाए। ऐसा नहीं। यह तो दुर्लभ है। इसी का तो ज्ञान सबसे पहले प्राप्त करना है। यही तो प्रभु मंदिर है। इसी की तो पूर्णरूपेण रक्षा करनी चाहिए। इसे भली प्रकार सजाना और खिलाना चाहिए। यह जितना स्वस्थ तथा पुष्ट होगा, उतना ही शीघ्र यात्री को प्रभु दर्शन करा सकेगा। क्या टूटी मोटर मालिक को यथास्थान पहुंचा सकती है? वह तो मार्ग में ही उसे पटक देगी। क्या मरियल टट्टू सवार को घर पहुंचायेगा? नहीं, वह तो उसे भयावने जंगल ही में छोड़ देगा। सवारी अच्छी ही होनी चाहिए। इसीलिए भक्त प्रार्थना करता है –
ममाग्ने वर्चो विहवेष्वस्तु वयं त्वेन्धनास्तन्वं पुषेम।
मह्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रस्त्वयाध्यक्षेण पृतना जयेम।।
(ऋ. 10-128-1)
हे अग्नि स्वरूप प्रभो! जीवन के संग्रामों में मेरे अन्दर तेज और चमक हो। तुम्हारी ज्योति को जगाते हुए हम शरीर को पुष्ट करें। चारों दिशाएँ हमारे आगे झुक जाये। आप हमारे अध्यक्ष बनें ताकि सब प्रकार के विरोधी वर्ग को हम पराजित कर सकें। इसलिए शरीर का स्वस्थ और पुष्ट होना नितान्त आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य भी है। मैं यह भी नहीं कहता कि शरीर को संसार के भोगों से वंचित रखिए। नहीं, जितने भोग-भोगे जा सकते हों, भोग लें, परन्तु यह स्मरण रखिए –
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।
मैंने विषयों का भोग नहीं किया, किन्तु विषयों ने ही मुझे भोग लिया। मैंने तप न किया, पर तपों ने ही मुझे तप डाला। काल नहीं बीता, हम ही बीत गये। हमारी तृष्णा बूढ़ी न हुई, हम ही बूढ़े हो गये।
हमने भोग न भोगा, भोगों ने भुगताया हमें कहीं।
हमने तप नहीं किया, तपों ने हमें तपाया न्यून नहीं।।
काल न बीता बीते हम ही किया व्यर्थ ही जग व्यवहार।
तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई, हम गलपत पहुंचे अन्त किनार।।
तेन त्यक्तेन –
सांसारिक भोगों के भोगने से कोई रोकता नहीं है, न ही कोई यह कहता है कि सब कुछ छोड़कर अकर्मण्य हो जाओ, गार्हस्थ्य आश्रम त्यागकर किसी वन में जा बैठो। कभी कोई आपको यह उपदेश न देगा कि संसार के बन्धनों, झंझटों और कष्टों से घबराकर भीरु बन जाओ। कहने का तात्पर्य यह है कि यजुर्वेद के निम्नलिखित मंत्र को सदा सम्मुख रखो –
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा ना गृध कस्य स्विद्धनम्।
तप त्याग से उपभोग कर, मत ललचा, (ज़रा सोच तो सही) यह धन किसका है? त्यागभाव से भोग कीजिए। मैं आजकल निज़ाम सरकार की गुलबर्गा जेल में कैदी हूं। इस जेल के वार्ड नंबर 9 में रहता हूं। अब यह वार्ड मेरे ही नाम से विख्यात हो गया है। महात्मा नारायण स्वामी जी जिस वार्ड में रहते हैं, वह भी उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। राजगुरु पं. धुरेन्द्र सास्त्री में रहते हैं, परन्तु अब उसे सेगरेगेशन वार्ड नहीं कहा जाता, शास्त्री जी का वार्ड कहा जाता है। सब सत्याग्रही जेल के भगवे रंग के कपड़े पहनते हैं, जेल के तसले में दाल लेते हैं, चम्पू में पानी पीते हैं, जेल का टाट और कम्बल नीचे बिछाते हैं, जेल की इन सब वस्तुओँ का प्रयोग करते हैं, परन्तु इन्हें अपना नहीं समझते। अपनी कैद के दिन गुजारकर हम चल देंगे और ये लम्बे कमरे, ये बरतन, ये टाट और कम्बल यहीं छोड़ जायेंगे। जब हमें मुक्त किया जायेगा, तो हम इन वस्तुओं से लिपट लिपटकर रोयेंगे थोड़े ही। अपितु प्रसन्नता से इन्हें छोड़कर जेल से चले जायेंगे। इसी को कहते हैं त्यक्तेन भुऋजीथा। एक उदाहरण देखिए एक यात्री यात्रा के दिनों में किसी धर्मशाला अथवा सराया में ठहरता है। वहां कुछ घण्टे अथवा कुछ दिन रहता है। वहां के सारे पदार्थ प्रयोग करता है। पलंग पर सोता है, बर्तनों में खाना पकवाता है, कुर्सियों पर बैठता है, साथ ही वाटिका से पुष्प लेता है, फल खाता है, दूसरे यात्रियों से वार्तालाप करता है, खेलता है, किन्तु उसके मन में यह कभी नहीं आता कि मैं इन सब वस्तुओँ का स्वामी हूं और मैं इन सबको उठाकर साथ लेता चलूं। वह उन वस्तुओँ का भोग तो करता है, परन्तु उनमें लिप्त नहीं हो जाता, अपने आपको न उसका स्वामी समझता है, और न ही उनका दास। स्वामी भाव और दास भाव इन दोनों से ऊपर रहता है। यदि उसने लोभ किया। तो फंस गया, पकड़ा गया और जकड़ा गया। मन लोभ करे भी तो क्यों? आखिर यह धन है ही किसका? क्या रावण का यह धन था? क्या कंस इसका स्वामी था? क्या औरंगजेब और कारूं के पास यह था? मुगल बादशाहों का यह बना या किसी और का? किसी का भी नहीं भोले यात्री, किसी का भी नहीं! यह तो केवल भगवान् का है।
तू इसे कितना एकत्र कर लेगा और क्या ऐसा करने से तू सुखी हो सकेगा? यदि ऐसा होता तो आधुनिक काल का सबसे बड़ा धनी अमेरिकन अपने आपको सबसे बड़ा दुःखी न बतलाता। मिस्टर हेनरी फोर्ड के संबंध में कहा जाता है कि उसकी वार्षिक आय 2400000 डालर है, अर्थात् 90000 पौंड या सोलह लाख रुपया दैनिक। इस समय उसके पास नकद तथा सम्पत्ति 48 करोड़ पौंड की है। परन्तु उका धन उसे कोई विशेष सुख नहीं दे रहा। इसलिए केवल धन सुख का कारण नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि मैं धनोपार्जन के विरुद्ध हूँ। उतना दन कमाइये, जितना धर्म तथा न्याय से कमा सकते हैं। पाप से धनोपार्जन न कीजिए और दूसरों का अधिकार छीनकर मत समझिये कि आप सुखी हो सकेंगे। अथर्ववेद कहता है –
अमा कृत्वा पाप्मानं यस्तेनान्यं जिघांसति।
अश्वानस्तस्यां दग्धायां बहुला1 फट् कराति।।(4-19-3)
जो पाप करके, उसकेद्वारा दूसरे को हानि पहुंचाना चाहता है (वह भूल कर रहा है, शीघ्र ही) बहुत से पत्थर उसके सिर पर फट फटकर गिरेंगे। पाप करने वाले को इस धोखे में नहीं रहना चाहिए कि वह दूसरों को धोखा देकर स्वयं ही बचा रहेगा। समय आने वाला है, जब ये पाप पत्थर बनकर उसका सिर फोड़ देंगे, इसलिए दन के लिए पाप न कीजिए, इसे एकत्र तो कर लीजिए, लेकिन इसी को अपना प्राण न समझ लें। इसी के साथ बिक मत जाइये।
तैरने और डूबने वाली नौकाएँ
नदी के किनारे खड़े होकर आपने देखा होगा कि नदी में कुछ नौकाएं तैर रही होती हैं और कुछ डूबी हुई। मैं नौका का विरोधी नहीं हूं और न ही उसके तैरने का विरोध करता हूँ। मैं हूँ विरोधी उनके डूब जाने का। उनके तैरने और डूब जाने का क्या कारण है? तैरने वाली नौकाओं में छेद न होने केकारण उनमें पानी आ नहीं सकता। छोटा मोटा छेद होने से जो पानी सूराख की राह अन्दर आ भी गया, उसे बाहर फेंका जा सकता है। इसलिए ऐसी नौकाएँ न केवल स्वयं तैरती हैं, अपित दूसरे यात्रियों को भी पार ले जात हैं। जो डूब गई हैं, उनमें छेद हो जाने से इतना पानी भर गया है कि वे अपने को पानी से ऊपर न रख सकीं। इसलिए अब न स्वयं तैरने के योग्य रही हैं और न दूसरों ही को पार ले जाने में समर्थ हैं। धन की नदी में छलांग लगाने में कोई हानि नहीं। खूब धन कमाइये, परन्तु ध्यान रखिए कि धन का पानी मन में न जाने पाये। यदि यह चला गया तो फिर डूबना ही होगा। धन में हम तैरें, धन हमारे ऊपर न लगता है। तब धन देखकर मोह या लोभ पैदा नहीं होता, और जब मोह नहीं, तो फिर आनन्द ही आनन्द है, सुख ही सुख है। एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से प्रश्न किया- सुख किसे प्राप्त होता है?
गुरु ने उत्तर दिया- सुख किसे प्राप्त होता है?
हृदय किसका शान्त है?
जिसका मन चंचल नहीं।
मन किसका चंचल नहीं?
जिसे किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं।
अभिलाषा किसे नहीं है?
जिसे किसी वस्तु में आसक्ति नहीं।
आसक्ति किसे नहीं?
घुरु जी ने शान्त स्निग्ध मुद्रा से कहा – जिसकी बुद्धि में मोह नहीं है।
चाह मिटी चिन्ता गई, मनुआ बे-परवाह।
जिनको कछु ना चाहिए, सोई शाहन शाह।।
यह सब कुछ स्पष्ट हो जाने और यह मालूम हो जाने पर कि संसार असार है और जिस शरीर में हमें रखा गया है, वह भी क्षणभंगुर है, तब हमारा कर्त्तव्य यह हो जाता है कि अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इस संसार और इस शरीर से जितना लाभ उठा सकें उठायें, और वह लाभ यही है कि अपनी मनोवृत्ति भगवान् के भक्तों की-सी बनायें –
श्वास-श्वास पर ओम् कह,
वृथा जन्म मत खोय।
क्या जाने इस श्वास को,
आवन होय न होय।।
भगवान् की भक्ति में खोकर, शांत और शीतल मन से जरा ध्यान लगाकर सुनिये, कवि कितने मधुर, आकर्षक स्वर में आपको चेता रहा है-
सुमिरन कर मन ओम् नाम
दिन नीके बीते जाते हैं।
पाप गठरिया सिर पर भारी,
पग नहीं आगे जाते हैं।
मात-पिता, पति कुल धन दारा,
संग नहीं कोई जाते हैं।
दुनिया दौलत माल ख़जाना,
काम नहीं कुछ आते हैं।
सुमिरन कर मन ओम् नाम दिन नीके बीते जाते हैं।
– महात्मा आनंद स्वामी