चेतना की शुद्धावस्था है जागृति
(कथा प्रसंग)
हजारों वर्ष पूर्व की बात है। जापान में एक संत हुआ करते थे। वह एक ही शिक्षा देते थे- नींद का त्याग करो, सजग रहो। उस संत की ख्याति जापान के युवराज के कानों तक पहुँची। वह बहुत बेचैन रहता था। एक दिन उसने संत को बुलाकर पूछा, क्या आप मुझे भी जागना सीखा सकते हैं?
संत ने मुस्कुराकर कहा, सीखा सकता हूँ। इसके लिए आपको मेरे आश्रम में आना होगा और हाँ, यह मत पूछना कि कितने दिन लगेंगे? जितनी आपमें प्यास होगी, उतनी जल्दी जागरूक हो जाओगे। राजकुमार संत की बात को शिरोधार्य करके आश्रम चला गया। संत ने कहा, ‘आज से मैं दिन के किसी भी समय और किसी भी क्षण, तुम्हारे ऊपर लकड़ी की तलवार से प्रहार करूंगा। चाहे तुम खा रहे हो, पढ़ रहे हो या कुछ भी कर रहे हो, तुम्हें हर पल सचेत रहना होगा।’
संत की बात सुनकर राजकुमार कुछ घबरा गया। लेकिन नियम स्पष्ट था, कोई सवाल नहीं। दिनभर सजग रहने की चुनौती ने धीरे-धीरे राजकुमार के भीतर सावधानी और जागरूकता को जन्म दिया। तीन महीनों में वह इतना सजग हो गया कि संत का कोई भी प्रहार उसे छू तक नहीं पाता था। अब संत ने दूसरा पाठ शुरू करते हुए कहा, अब से मैं रात में, नींद के समय तुम पर लकड़ी की तलवार से प्रहार करूंगा। इसलिए तुम्हें सोते समय भी होश में रहना होगा।
अद्भुत है विचारशून्य और स्वप्नशून्य की अवस्था
राजकुमार संत का कथन सुनकर चकित रह गया कि नींद में कैसे जागे? धीरे-धीरे उसने लकड़ी की तलवार के प्रहार से बचने के लिए रात में भी सजग रहना शुरू कर दिया। तीन महीने बीत गये। अब वो सोते हुए भी सजग रहने लगा। उसके भीतर अब दिन विचारशून्य और रात स्वप्नशून्य हो गई थी। जब विचार नहीं रहते, स्वप्न नहीं रहते तब भीतर शुद्ध चेतना प्रकट होती है। यही साधना का बीज है।
अब संत ने तीसरा पाठ शुरू करते हुए कहा, अब मैं किसी भी समय तुम पर असली तलवार से प्रहार करूंगा। एक भी चूक का मतलब मृत्यु। संत का कथन सुनते ही राजकुमार के होश उड़ गये। अब उसके रोम-रोम में जागरण समाने लगा। इन तीन महीनों में गुरु अचानक किसी भी समय उस पर चमचमाती तलवार से प्रहार कर देते थे, लेकिन एक बार भी राजकुमार से चूक नहीं हुई और वह पूर्ण रूप से सजग रहने लगे। इससे राजकुमार का मन शांत और विचार रहित रहने लगा। कहने का अर्थ है कि वह भीतर से आनंदित रहने लगा और उसके मन में प्रकाश का स्रोत फूट पड़ा।
संत को राजकुमार की सजगता देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने राजकुमार से कहा, अब तुम जाग गए हो, कल तुम्हारी विदाई है। राजकुमार उस शाम आश्रम में बैठा था। उसे अचानक ख्याल आया कि क्यों न मैं भी इस संत की सजगता की परीक्षा लूं?
उसके मन में यह सोच उत्पन्न हुई और इसी के साथ कुछ दूरी पर बैठे गुरु ने कहा, नहीं! ऐसा मत करना, मैं बूढ़ा हो गया हूँ।
संत का कथन सुनकर राजकुमार स्तब्ध रह गया, क्योंकि उसने तो केवल अपने मन में सोचा था!
गुरु ने कहा, ‘जब मन पूर्ण शांत हो जाता है, तो दूसरे के मन की भी ध्वनि सुनाई पड़ती है, यही परम चेतना है।’ इस तरह संत ने प्रहार का भय दिखाकर राजकुमार को विचारशून्य और स्वप्नशून्य की अवस्था में रहना सिखाया। यही है, पूर्ण जागरूक अवस्था या सचेतावस्था। इस अवस्था में रहकर ही मनुष्य अपने जीवन में अद्भुत कार्य कर सकता है।

– पवन गुरू
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