बाहर नहीं, भीतर से अच्छे बनो
‘जैसा बोओगे, वैसा पाओगे.. ‘ इस मशहूर लोक कहावत के आधार पर बचपन से ही हमें माता-पिता एवं शिक्षकों के द्वारा यह सीथ दी जाती है कि अपना चरित्र एवं चाल-चलन ऐसा रखें, जो आपको सभी के सन्मान एवं प्यार का पात्र बना सके। इसीलिए जब कोई बच्चा शरारत करता है, तो अमूमन लोगों से यही टिप्पणी सुनने को मिलती है कि इसके माँ-बाप ने इसे शिष्टाचार नहीं सिखाया होगा, तभी ऐसा कर रहा है। इससे इतना अवश्य सिद्ध होता है कि हमारे व्यवहार से हमारे संस्कारों का दर्शन होता है।
यह भी पढ़ें: सनातन धर्म धार्मिक प्रणाली नहीं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण है
इसीलिए यदि हम यह अपेक्षा रखते हैं कि हमारे साथ हमेशा सभी अच्छाई से पेश आएँ, तो हमें भी सभी के साथ अच्छाई से पेश आने का संस्कार धारण करना होगा, क्योंकि यह दुनिया का दस्तूर है कि जैसा दोगे, वैसा पाओगे। कई लोग अक्सर दूसरों के मन में अपनी छवि बनाने के ख्याल से सतही स्तर पर अच्छा बनने का ढोंग करते हैं और अपनी चतुराई या जालसाज़ी में कुछ हद तक कामयाब भी हो जाते हैं, किन्तु ऐसा करने में वह जैसा बोओगे, वैसा पाओगे वाली कहावत भूल जाते हैं और अपने भ्रम में अंदर ही अंदर खुश होते रहते हैं। उन्हें इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं होता कि कर्म का सार्वभौमिक कानून सबसे सूक्ष्म स्तर पर संचालित होता है।
समान दृष्टिकोण और निष्पक्ष व्यवहार का महत्व
अत आज नहीं तो कल उन्हें अपनी की हुई जालसाज़ी का फल उसी ही रूप में वापस मिलेगा। इसीलिए समझदारी उसी में है कि हम वास्तविक रूप से सभी के प्रति अपने भीतर अच्छी भावनाएं रखें, क्योंकि जब हमारी भावनाएं शुद्ध होंगी तब लोगों का व्यवहार भी अपने आप हमारे साथ अच्छा होगा। याद रखें, झूठे भ्रम का मुखौटा आज नहीं तो कल सत्यता और शुद्धता के सामने फीका पड़ ही जाएगा, इसीलिए आप जो हों, जैसे भी हों, अन्दर-बाहर समान ही रहें ताकि लोगों के मन में किसी प्रकार की विभ्रांति पैदा न हो। सामान्यत हमारे अंदर अपने करीबी एवं मित्रगणों के प्रति प्यार एवं शुद्ध भावना रखने की स्वाभाविक वृत्ति होती है, परन्तु उन लोगों का क्या जो हमारे परिवार और दोस्तों के इस वृत्त के बाहर हैं? बहुधा उन लोगों के प्रति हमारी भावनाएं व व्यवहार हमें उनसे हुए अनुभव के आधार पर बदलता रहता है।
हालाँकि, नैतिक रूप से यह गलत है, किंतु हमारी अपनी व्यक्तिगत धारणा के वशीभूत हम यह दोहरा मापदंड अपने अंदर बना लेते हैं, जो हमें एक प्रकार की गलती करने वाले दो लोगों के प्रति अलग-अलग प्रतिक्रिया देने को मजबूर कर देता हैं। मसलन, हमारा अपना बच्चा यदि हमारे ऊपर कीचड़ उछाले तो उसे हम बाल-लीला कहकर टाल देंगे ,परंतु यदि पड़ोसी के बच्चा हम पर ज़रा-सी मिट्टी फेंक दे, तो उसे हम बदतमीजी कहकर हंगामा खड़ा कर देंगे। ऐसे हम एक ही गलती के लिए किसी एक के प्रति सहानुभूति और दूसरे के क्रोध दिखाते हैं।
दयालुता और सहानुभूति से जीवन में लाएं सकारात्मक परिवर्तन
ज़रा सोचिए, यदि हम एक छोटे-से सकारात्मक प्रयास के साथ गलती करने वाले व्यक्ति की तरफ सहानुभूति दिखाकर उसे म़ाफ कर दें तो क्या उससे हमारी शान में कोई कमी आ जाएगी? नहीं ना। तो क्यों हम अपना स्वभाव उतना सहज नहीं बना पाते हैं? इसका सबसे सरल तरीका है- पाप और पापी के बीच के अंतर को समझना। अमूमन हम दयालु बनने के बजाय तुरंत ही किसी व्यक्ति द्वारा की हुई ग़लती के आधार पर उसकी निंदा करने लगते हैं और मन ही मन उसे नफरत की भावना से देखने लगते हैं। क्या ऐसा करने से उस व्यक्ति में सुधार आ जाएगा या हमें शांति मिलेगी? नहीं..।
इसीलिए ऐसे समय पर उचित तरीका है कि हम अपने मन म्ंढ यह सोचें कि वह अपने स्वभाव-संस्कार से मजबूर और लाचार होकर यह गलती कर रहा है तो क्यों न हम अपने सहयोग का हाथ उसकी ओर बढ़ाकर उसे इस दोष से उबरने में मदद करें। ज़रा सोचिए, विश्व के हर मनुष्य के भीतर दया की यह प्रकृति का निर्माण हो जाए तो कितना अच्छा होगा? कहीं कोई लड़ाई या हिंसा नहीं होगी। तो चलिए, आज से हम सभी दयालुता के संस्कार को धारण करके सर्व के प्रति शुद्ध और शुभ भावना रखें, जिससे कमजोर आत्माओं को अपनी कमजोरियों पर काबू पाकर अपने जीवन को बदलने का सुअवसर प्राप्त हो।

–राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंज
अब आपके लिए डेली हिंदी मिलाप द्वारा हर दिन ताज़ा समाचार और सूचनाओं की जानकारी के लिए हमारे सोशल मीडिया हैंडल की सेवाएं प्रस्तुत हैं। हमें फॉलो करने के लिए लिए Facebook , Instagram और Twitter पर क्लिक करें।





