देवप्रबोधिनी एकादशी और तुलसी विवाह

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कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवउठनी, देवप्रबोधिनी, देवोत्थान एकादशी कहा जाता है, जो इस वर्ष 2 नवंबर, रविवार को है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी (हरिशयनी एकादशी) से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के चार महीनों में श्रीहरि विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में रहते हैं। इस अवधि में विवाह, गृह-निर्माण जैसे मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं। कार्तिक शुक्ल एकादशी को श्रीहरि जागते हैं, तो पुन शुभ कार्यों की शुरुआत मानी जाती है। इस एकादशी का व्रत हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ के समान फलदायी माना गया है। श्रीहरि को जगाने के लिए निम्न मंत्र उच्चारित किया जाता है-

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते।
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम्।।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव, गता मेघा वियच्चैव निर्मलम्।।

पौराणिक कथा

एक राजा के राज्य की सारी जनता एकादशी का व्रत एवं पूजा करती थी। इस दिन व्यापारी भी व्यापार नहीं करते थे। एक बार श्रीहरि ने उनकी परीक्षा लेते हुए, सुंदर स्त्रा का रूप धारण किया और राजा से विवाह करने की इच्छा प्रकट की। विवाह के बाद स्त्री ने शर्त रखी कि राजा केवल उसके हाथ का बना भोजन ही सेवन करें।

एकादशी के दिन उसने राजा को मांसाहारी भोजन खाने का आदेश दिया। राजा अब धर्मसंकट में पड़ गए। इस स्थिति में बड़ी रानी ने कहा कि पुत्र तो बाद में भी मिल जाएगा, लेकिन धर्म नहीं। यह सुनकर राजा धर्म की रक्षा हेतु अपना सिर कटवाने के लिए तैयार हो गया। उसी क्षण श्रीहरि अपने असली रूप में प्रकट होकर राजा को परमधाम का वर दिया।

तुलसी विवाह

तुलां सादृश्यं स्यति नाशयति। अर्थात तुलसी का कोई सादृश्य नहीं है। श्रीहरि के पूजन में तुलसी का स्थान सर्वोपरि है। स्नान, नैवेद्य, चंदन या पुष्पमाला आदि में तुलसी अनिवार्य है। पौराणिक कथा के अनुसार, असुरराज जलंधर अपनी पत्नी वृन्दा के सतीत्वबल से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर रहा था। ऐसे में श्रीहरि उसकी पत्नी वृन्दा का सतीत्व भंग करके उसे मोहित कर देते हैं, जिससे जलंधर का वध संभव होता है। सच्चाई जानकर क्रोधित वृन्दा उन्हें शाप देती है कि तुम पत्थर बन जाओ। तभी से श्रीहरि शालिग्राम और वृन्दा तुलसी के रूप में पूजित हुए।

तुलसी विवाह की विधि

कार्तिक शुक्ल नवमी से एकादशी तक निराहार व्रत रखें। एकादशी की गोधूलि बेला में लकड़ी के पीढ़े पर लाल कपड़ा बिछाकर तुलसी के पौधे को स्थापित करें। गन्ने का मंडप बनाकर तुलसी को लाल चुनरी, चूड़ी आदि पहनाकर दुल्हन-सा श्रृंगार करें। शालिग्राम और तुलसी को दूध में भीगी हल्दी लगाएँ। तुलस्यै नम मंत्र के साथ षोडशोपचार पूजन करें।

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दक्षिणा, नारियल और सात परिक्रमाएँ करके दीपक से आरती करें। अगले दिन द्वादशी को दान-दक्षिणा देकर व्रत पूरा करें। जिनके बेटी नहीं है, वे तुलसी विवाह करके कन्यादान का पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। जिन पर शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या हो, उन्हें तुलसी विवाह से विशेष लाभ प्राप्त होता है।

तुलसी विवाह गीत

तुलसी महारानी नमो नमो।
हरि की पटरानी नमो नमो।।
कौन तोरा बाप, कौनि महतारी।
केकरी भयू पटरानी नमो नमो।।
मेह मोरा बाप धरनि महतारी।
शालिग्राम की भयू पटरानी नमो नमो।।
छप्पन भोग धरे हरि आगे,
बिन तुलसी हरि न मानी नमो नमो।।

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अर्थ हे तुलसी माता! हरि की पटरानी, आपको नमन है। सोने के थाल में कपूर की बत्ती और घी की ज्योति रातभर जलती है, परंतु तुलसी के बिना भगवान हरि एक भी भोग स्वीकार नहीं करते।

-ज्योतिष शिक्षक श्री गणेश कथावाचक
पंडित भानुप्रतापनारायण मिश्र

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