मछुआरे का जाल और वोट की मछली

कभी तू छलिया लगता है, कभी दीवाना लगता है, कभी अनाड़ी लगता है, कभी आवारा लगता है, जैसी पंक्तियों को यदि वाक्य मानकर वर्तमान राजनीतिक चरित्रों से जोड़कर प्रयोग किया जाए, तो नई पंक्तियाँ उभरती हैं – कभी मैकेनिक लगता है, कभी बावर्ची लगता है, कभी मछुआरा लगता है, कभी तू जोकर लगता है। इन पंक्तियों का असर उस पर तो पड़ सकता है, जो गंभीर होता है, जिसे शब्दों के अर्थ और भाव ज्ञात न हो, उनके लिए ये पंक्तियाँ कोई मायने नहीं रखती। ऐसे चरित्र अपनी ही धुन में मस्त रहते हैं। उनका मानना यही रहता है, कि तू जो अच्छा समझे ये तुझ पे छोड़ा है, जीवन भर नौटंकी से मैंने नाता जोड़ा है। राजनीति भी जाने कैसे-कैसे चरित्रों को ढो रही है।

कुछ लोग राजनीति में चाल, चरित्र और चेहरे की बात तो करते हैं, मगर दूसरों के चाल, चरित्र और चेहरे की। अपना चेहरा उन्हें दूध से धुला हुआ प्रतीत होता है। ऐसे चरित्र अपने चेहरे पर पड़ी धूल को साफ करने की बजाय शीशे को साफ करने लगते हैं। शीशे पर धूल से एक डायलाग याद आ गया, कि जिनके घर शीशे के बने होते हैं, वे दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते।

यह साधारण वाक्य नहीं है, बल्कि एक नसीहत है, जो औरों पर बयानों की कीचड़ उछालने में जुटे रहते हैं, उनसे कहा जाता है। ऐसे में बार-बार यह नसीहत दिए जाने के बाद भी जो न सुधरे, उसे दुनिया की कोई ताकत कभी नहीं सुधार सकती। फिर भी कुछ लोगों की आदत होती है, कि वे औरों पर उँगली उठाने से बाज नहीं आते। औरों पर उँगली उठाते हैं, जब उन पर उंगली उठाई जाती हैं, तो वे तिलमिलाते हैं।

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सियासत का स्वांग: जीत-हार और ड्रामा का खेल

समाज में यही सब तो चल रहा है। सियासत में खासकर यही होता है। सियासत जो न करा दे, सो कम है। सियासत नागिन नृत्य भी करा सकती है। सियासत मदारी भी बना सकती है। गोल टोपी भी पहनने के लिए मजबूर कर सकती है। कमीज के ऊपर जनेऊ पहनने का दिखावा भी करा सकती है। कबीलाई संस्कृति की पोशाक भी आसानी से पहना सकती है। पब्लिक के बीच पब्लिक जैसा दिखने के लिए नाटक करने के लिए विवश कर सकती है।

बहरहाल सियासी चरित्र बहरूपिया चरित्र से मेल खाता है। रूप भरने की कला में पारंगत होना सरल नहीं होता। स्वांग रचने के लिए पिप्ट के अनुसार रिहर्सल करनी पड़ती है। स्वांगशालाओं में प्रशिक्षण प्राप्त करना पड़ता है। सियासत में वोट का बड़ा महत्व होता है। वोट पाने के लिए स्वांग रचने पड़ते हैं। कभी किसी की किचन में इमरती बनानी पड़ती है, तो कभी किसी घर में कोरमा। कभी मैकेनिक बनना पड़ता है, कभी मछुआरा बन कर तालाब की कीचड़ में छलांग भी लगानी पड़ती है। इसके बाद भी कोई गारंटी नहीं होती कि वोट की मछली मछुआरे के जाल में फंस ही जाए। कई बार ऐसी जगह जाल डाल दिया जाता है, जहाँ मछलियाँ मिलती ही नहीं।

डॉ. सुधाकर आशावादी
-डॉ. सुधाकर आशावादी

तो जनाब, यह सियासत इतनी भी आसान नहीं है जितनी आपको देखने में लगती है, यहां सब कुछ करने के बाद भी हार का सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ता है। जीत जाएं, तो हर कोई पूछता है और हारने के बाद अपने भी कुछ दिनों के लिए तो पहचानने से भी मना कर देते हैं और फिर खुद को फिर से तैयार करना पड़ता है अगले ड्ऱामे, यानी चुनाव के लिए क्योंकि कहा जाता है ना, शो मस्ट गो ऑन, तो सियासत में भी जीत-हार चलती रहती है और राजनेता अपना रोल निभाते रहते हैं।

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