जी 7: युद्धों के बीच शांति की तलाश
आज जब मनुष्य आकाश को नाप चुका है, मंगल की मिट्टी पर अपने यंत्र उतार चुका है, कृत्रिम बुद्धिमत्ता से संवाद कर रहा है, वहीं धरती की छाती पर बारूद की गंध अब भी उतनी ही तीव्र है जितनी बीसवीं सदी के युद्धों में थी। तकनीक ने इंसान को तेज़ किया है, लेकिन संवेदनाएं कमज़ोर हो चली हैं और इन्हीं विषम संवेदनाओं के दौर में, जब विश्व अनेकानेक मोर्चों पर जल रहा है गाज़ा की गलियों से लेकर यूक्रेन की बर्फीली सीमाओं तक, यमन से लेकर सूडान तक, तब जी7 देशों का वार्षिक जमावड़ा उम्मीद नहीं, बल्कि एक अनुनाद बनकर रह गया है- एक गूंज, जिसमें समाधान नहीं, स़िर्फ परंपरागत वाणी और वैश्विक अभिजात्य का बड़बोलापन सुनाई देता है।
वर्तमान समय में वैश्विक भूगोल की रेखाएं स्थिर नहीं हैं। 2024 के उत्तरार्द्ध और 2025 की दहलीज़ तक आते-आते गाज़ा में इज़रायल का युद्ध, ईरान पर हमले, रूस-यूक्रेन संघर्ष, ताइवान के आसपास तनाव और अफ्रीका के कई देशों में तख्तापलट जैसे दृश्य एक ऐसी आग का विस्तार कर रहे हैं, जिसमें मानवता झुलस रही है। इस दौर की विडंबना यह है कि युद्ध अब केवल सीमाओं की लड़ाई नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक वर्चस्व, हथियार उद्योगों के लोभ और कूटनीतिक अविश्वास की परिणति बन गए हैं।
ऐसे में जब जी7- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, जापान और इटली, आधुनिक विश्व व्यवस्था के बुद्धिजीवी ठेकेदारों की तरह 50वीं वर्षगांठ पर कनाडा की कनानास्किस की वादियों में एकत्र होते हैं, तो यह दृश्य एक प्रतीक बन जाता है, शांति की तलाश में जुटे वे लोग, जिनकी नीतियाँ ही बारूदी सुरंगें बिछा चुकी हैं। जी7 की मूल आत्मा शांति, आर्थिक स्थिरता, वैश्विक समावेशन और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं के समाधान के लिए संवाद और सहयोग की थी। लेकिन आज यह मंच समाधान की प्रयोगशाला की बजाय स्वार्थों का मखौल बन चुका है।
भारत की संतुलित विदेश नीति की वैश्विक भूमिका
अमेरिका के ट्रंपवादी प्रभाव, यूरोपीय संकीर्णताओं और यूक्रेन-समर्थन की एकपक्षीय नीतियों ने जी7 को बहुपक्षीय दृष्टिकोण से वंचित कर दिया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जी7 के वर्तमान विमर्शों में फिलिस्तीन-इज़रायल युद्ध जैसी ज्वलंत मानवीय त्रासदी पर स्पष्ट शांति प्रस्तावों की बजाय सामरिक समर्थन और परोक्ष चेतावनियों का ही बोलबाला रहा है। वही अमेरिका, जो एक ओर ईरान से परमाणु समझौते की बातें करता है, दूसरी ओर उसी सप्ताह ईरानी सैन्य ठिकानों पर इज़रायली हमलों को मौन समर्थन देता है।
क्या यह द्वैधता ही विश्व की विफलता का कारण नहीं है? जी7 का यह समागम एक अवसर हो सकता था कि वह ग्लोबल साउथ अर्थात विकासशील और नवोन्मेषशील देशों की आवाज़ को समेटे, लेकिन यह अब भी पश्चिम का झुंड ही बना हुआ है। यही वह समय है जब भारत, इंडोनेशिया, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका और मेक्सिको जैसे देश एक नैतिक शक्ति के रूप में सामने आ सकते हैं।
भारत की बात करें तो उसकी भूमिका अब केवल एक विशाल बाज़ार या सॉफ्टवेयर शक्ति तक सीमित नहीं है। भारत आज एक ऐसे देश के रूप में उभर रहा है जो शांति, मध्यस्थता और विकास के संतुलन की बात करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति की युक्तिपूर्ण विविधता, जहाँ रूस से संबंध भी हैं, अमेरिका से सामरिक सहयोग भी और ईरान तथा अरब देशों से ऐतिहासिक मैत्री भी, एक अद्वितीय संतुलन रचती है।
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वैश्विक अस्थिरता में भारत की भूमिका और चुनौतियाँ
जी7 जैसे मंच पर भारत की उपस्थिति, चाहे अतिथि के रूप में हो या भविष्य में जी20 के विस्तार जैसे किसी नए स्वरूप में- एक नैतिक चेतना का संचार कर सकती है। भारत को अब यह भूमिका अपनानी चाहिए कि वह लोकतांत्रिक दक्षिण की आवाज़ बन सके, जहाँ युद्ध नहीं, विकास, जलवायु न्याय और वैश्विक उत्तरदायित्व की बात हो। वर्तमान वैश्विक युद्धों का भारत पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रभाव हैं।
सबसे पहले, तेल के दामों में अस्थिरता भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। ईरान पर हमले और रेड सी में अशांति से समुद्री व्यापार मार्गों की बाधा, निर्यात और आयात की लागत बढ़ा रही है। दूसरे, रूस-यूक्रेन युद्ध से खाद्य आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित हुई है। गेहूं, सूरजमुखी तेल और उर्वरकों के दामों में वृद्धि से भारतीय किसानों और उपभोक्ताओं पर असर पड़ा है।
साथ ही, विदेशी निवेशक वैश्विक अस्थिरता के दौर में भारत से पूंजी निकालने लगते हैं, जिससे शेयर बाज़ार डगमगाता है। तीसरे, भारत की सुरक्षा नीति भी प्रभावित हो रही है। चीन-ताइवान तनाव, पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता और अफगानिस्तान में तालिबानी पुनरुत्थान, सभी भारत को चौतरफा सतर्कता की स्थिति में डालते हैं। यदि जी7 वास्तव में एक नई वैश्विक चेतना का वाहक बनना चाहता है, तो उसे अपने व्यवहार और दृष्टिकोण में गहरे सुधार करने होंगे।
भारत की भूमिका और वैश्विक सहयोग की दिशा
सबसे पहले, उसे किसी भी एकतरफा सैन्य हस्तक्षेप की खुलकर निंदा करनी चाहिए और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को पुनः सशक्त करने की वकालत करनी चाहिए, ताकि वैश्विक समस्याओं का समाधान अंतरराष्ट्रीय सहमति और कानून के दायरे में हो सके। आर्थिक नीतियों को हथियार के रूप में प्रयोग करने के बजाय सहयोग और साझा समृद्धि का माध्यम बनाया जाना चाहिए। इसके साथ ही, वैश्विक दक्षिण, जिसमें भारत, ब्राज़ील, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश शामिल हैं, की सक्रिय और समान भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए, ताकि निर्णयों में विविधता और न्याय का समावेश हो।
शांति स्थापना के लिए एक स्थायी मंच की भी आवश्यकता है, जो जी7, जी20 और संयुक्त राष्ट्र के संयुक्त तत्वों से निर्मित हो और जो न केवल संकट की स्थिति में संवाद का माध्यम बने, बल्कि दीर्घकालिक समाधान भी प्रस्तुत करे। इसके अतिरिक्त, जी7 को परमाणु हथियारों और सैन्य बजट में कटौती के लिए ठोस और व्यावहारिक पहल करनी चाहिए, ताकि शांति केवल भाषणों तक सीमित न रह जाए। इस समूचे परिप्रेक्ष्य में भारत की भूमिका भी निर्णायक हो सकती है।
उसे अब केवल नैतिक बौद्धिकता तक सीमित न रहकर अपनी कूटनीतिक चतुराई और संतुलनकारी क्षमता का प्रभावी उपयोग करना चाहिए, चाहे वह ईरान से ऊर्जा आपूर्ति को सुरक्षित रखना हो या इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष में संभावित मध्यस्थ की भूमिका निभाना हो। भारत की वसुधैव कुटुंबकम की प्राचीन अवधारणा आज के खंडित, युद्धग्रस्त और अविश्वास से भरे विश्व में एक ऐसी भावनात्मक और राजनीतिक औषधि बन सकती है, जो मानवता को फिर से जोड़ सकती है।
- – नृपेंद्र अभिषेक `नृप’
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