हाइली ऑब्जेक्शनेबुल मैटर


(दिनेश प्रताप सिंह चित्रेश)

कहानी कुछ यूँ शुरू होती है। यहाँ पुनर्नवा में छोटे भाई उमेश मुझे लेकर करीब साढ़े सात बजे ही आ गये थे। यह हमारे शहर का एक नर्सिंग होम है, जिसे डॉक्टर दम्पति चलाते हैं। पत्नी गायनिकोलॉजिस्ट हैं और पति महोदय जनरल फिजिशियन। इन्होंने रिहाइशी मकान के निचले हिस्से को काट-छाँटकर अस्पताल में तब्दील कर रखा है।

उमेश का डॉक्टर से अच्छा मेलजोल है। उन्होंने छ बजे रिंग करके जाँच के लिए मुझे लेकर आने की बात की थी। मेरा मन तो नहीं था। मैं एकदम भला-चंगा महसूस कर रहा था, मगर रात वाली घटना के आधार पर सबने मुझे विवश कर दिया। खैर, हम पहुँचे तो नर्सिंग होम। मैं उनींदा-सा खड़ा था। रिसेप्सन की एकमात्र कुर्सी खाली थी। डॉक्टर का चैम्बर बंद पड़ा था। गलियारे में पड़े बेडों पर कुछ मरीज और तीमारदार दिख रहे थे।

कारीडोर में एक काला लड़का पोछा लगा रहा था। हम लोगों को देखकर वह इधर ही आने लगा। उमेश को देखकर वह मुस्कुराया, जिससे उसके दाँतों की सफेदी खिल उठी थी। नमस्ते के ाढम में हाथ उठाते हुए उसने पूछा, गुरुजी, इत्ती सुबह कैसे?

भैया का चेकप कराना है। उमेश ने बताया था। अभी-अभी डॉक्टर साहब कहीं निकले हैं। जानकारी देने के साथ उसने सुझाव भी दिया, आप फोन कर लें। इसके बाद पोछा वाला अपना छूटा काम पूरा करने में जुट गया। मैं फाइबर की कुर्सी खींचकर बैठ गया। पत्नी लम्बी बेंच के एक किनारे पर बैग टिकाये परेशान मुद्रा में खड़ी थी। उसी बेंच के दूसरे छोर पर बैठकर उमेश मोबाइल डायल करने लगे। तीन-चार रिंग के बाद फोन उठाया गया। उन्होंने बिना किसी औपचारिकता के कहा, डॉक्टर साहब, भाई को लेकर आ गया हूँ, आप कहाँ हैं?

डेढ़-दो मिनट बात होती रही। आखिर में उन्होंने बात खत्म करते हुए कहा, खैर, जल्दी आ जाएं, तब तक वार्ड या बेड…. करीब बीस मिनट बाद बड़े-बड़े फूलों वाले लाल सूट में सजी-धजी लंबी स्वस्थ्य महिला का पदार्पण हुआ। रंग गहरा सांवला और चेहरे पर अधिकार संपन्नता की चमक थी। उमेश ने आहिस्ते से कहा, डॉक्टर साहब की पत्नी हैं, फिर उन्होंने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। पत्नी अभिवादन की मुद्रा में आकर खड़ी हो गईं। मैंने आँख मूँद रखा था। हमारे करीब पहुँचते ही उन्होंने आवाज दी, रज्जन!

आवाज पर मेरी आँखें खुल गईं। पोछा वाले के साथ बीस-बाईस साल की उम्र का एक पीले चेहरे वाला लड़का भी टपर-टपर चला आ रहा था। मैडम ने तुरंत आदेश सुनाया, तीन नंबर वार्ड ठीक कर दो। साहब ने इसी में इनको शिफ्ट करने को बोला है। इसके बाद वे यंत्रवत गलियारे में आगे बढ़ गईं। फटाफट तीन नंबर में झाड़ू-पोछा कर दिया गया। हम अंदर आ गए। मैं बेड पर लेट गया। पत्नी ने पंखा चला दिया। इस जगह को देखकर लग रहा था कि बड़े कमरे को टुकड़ों में बाँटकर वार्ड बना दिया गया है। फिर भी खुली जगह थी। अटैच्ड टॉयलेट भी था। दीवार घड़ी आठ से ऊपर का समय बता रही थी। यह घड़ी न रहती तो ठीक होता। यह खच्च्….खच्च्.. की आवाज निकाल रही थी। इसके बावजूद मुझे धीरे-धीरे नींद ने आ घेरा। संभवत रात वाली दवा का असर था।

मैं गहरी नींद में था, तभी कुछ खटपट हुई। मैंने आँखें खोलीं। भारी होती पलकों को तीन-चार दफे झपकाया। तन्द्रा टूटने लगी। वार्ड की बेंच पर पत्नी के अलावा दो अन्य औरतें बैठी थीं। एक जो मुझे जागा हुआ देखकर बेंच से खड़ी हो गयी। वह उमेश से छोटे वकील भाई यानी राजेश की पत्नी थी। दूसरी जो गदबदे शरीर की खूब गोरी औरत थी, पूरी तरह पहचान में नहीं आ रही थी। उसने स्नेह से मेरे ऊपर नजर फेरते हुए पूछा, भैया अब कैसी तबियत है?

महिला की आवाज और बोलने के ढंग को अधूरी पहचान के साथ मिलाने पर उनकी वाकफियत सामने आ खड़ी हुई। वह मेरे पड़ोस के गाँव की लड़की है। यहीं शहर में रहती है। अपना मकान बनवाने के पहले वकील भाई उन्हीं के यहाँ किराएदार थे। मैंने उन्हें नमस्ते करके बोला, दीदी, मैं रात में बेहोश जरूर हो गया था, बाकी अभी न मुझे कहीं दर्द है, न कोई परेशानी, तो तबीयत ठीक ही होनी चाहिए। भगवान करे भैया, सब ठीक-ठाक हो। कहकर वह पत्नी की तरफ देखने लगी।

थोड़ी देर बाद उमेश बेड के पास आए, साथ में वकील भाई यानी राजेश भी थे। मेरी निगाह घड़ी की तरफ चली गई, सवा दस हो रहे थे। मैं उमेश से मुखातिब हुआ, डाक्टर साहब कहाँ रह गये?अभी पाँच मिनट पहले आने को बोले थे, फिर देखता हूँ। कहते हुए वे वार्ड से निकल गये।

हाल-समाचार लेने के बाद राजेश अपनी पत्नी और पुरानी मकान मालकिन के साथ वार्ड से चले गये। तभी सफेद लिबास पर आला लटकाए हल्के सांवले रंग के आकर्षक व्यक्तित्व वाले डॉक्टर अंदर आये। साथ में उमेश भी थे। नमस्कार करते हुए, मैं बेड पर बैठ गया। डॉक्टर ने स्टेथस्कोप को पीठ और सीने पर दायें-बायें रख-रखकर जाँच करना शुरू किया। बीच-बीच में वे रात में हुई तकलीफ के बाबत पूछताछ भी करते जा रहे थे। जैसा मेरे साथ हुआ था, वह सब मैंने बता डाला। बेहोशी के समय की बातें पत्नी ने बतायी। इस बीच मैं डॉक्टर के चेहरे को भी परखता रहा, किन्तु वहाँ भावशून्यता थी, जैसे रात का वाकया सामान्य से अधिक और कुछ न रहा हो।

इसी समय डॉक्टर का एक सहयोगी ईसीजी की मशीन उठा लाया। ईसीजी करते हुए भी उनके चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था, जिससे लगता हो कि मेरे साथ कुछ असामान्य है। ईसीजी की प्रािढया पूरी हुई, तो उमेश भी उनके साथ चले गये। मुझे लग रहा था, अभी वे लौटकर कहेंगे, फिलहाल सब ठीक है, अब घर वापसी…. मगर उमेश देर कर रहे थे। इस बीच हाल-खबर लेने कुछ अध्यापक आ गये, जिनके साथ बातचीत में समय आसानी से कट गया। आधे घंटे बाद उमेश लौटे तो साथ में पैथॉलाजी का एक टेक्नीशियन था। वह फटाफट ब्लड के तीन सैम्पल ले गया। तब मैंने उमेश से पूछा, डॉक्टर क्या बता रहे हैं?

यही ब्लड की रिपोर्ट आ जाए तो पता चलेगा। उन्हों स्पष्ट किया। रिपोर्ट में जो आना है, आएगा, मगर अभी मैं एकदम नार्मल महसूस कर रहा हूँ। कल भी ऐसे ही था। दिन भर रूटीन के तहत काम किया था। आज शिक्षामित्रों की नई दिशा प्रशिक्षण की रिव्यू मीटिंग होनी थी। इसके लिए मैं चौराहे तक गया था। सवा सौ शिक्षामित्रों के लिए स्टेशनरी पैक कराके रख छोड़ा था। टीए के लिए फुटकर पैसों की जरूरत होनी थी, इस लिहाज से दुकानदार को छोटे नोटों के लिए कैश दे आया था। रोज की तरह करीब सात बजे गुनगुने पानी से स्नान किया। आठ बजे भोजन और फिर रिव्यू मीटिंग को लेकर होमवर्क…. शिक्षामित्रों की सम्भावित समस्यायें और उनका व्यावहारिक समाधान… यह सब करने के बाद मैं करीब दस बजे सोने के लिए मच्छरदानी में घुसा तो आज दिन की रूपरेखा स्पष्ट थी- सबेरे स्नान-भोजन होते-होते अक्षय सिंह आ जाएंगे। उनके साथ चौराहा, फिर स्टेशनरी और दुकानदार से दस-पाँच रुपयों के छोटे नोट लेकर विकास खण्ड संसाधन केन्द्र पहुँचना है और नौ बजे से रिव्यू मीटिंग की गहमागहमी।

मगर रात में अचानक ही मुझे गर्मी महसूस हुई। मैंने अपने ऊपर से चादर हटा दिया। दस-पन्द्रह सेकेण्ड बाद लगा, गर्मी लगातार बढ़ रही है। मैंने मच्छरदानी के ऊपर आसमान की तरफ देखा, कहीं बादल तो नहीं घिर आये! अन्यथा पहली अप्रैल की रात में ऐसी गर्मी, किन्तु ऊपर तारों भरा साफ आसमान टंगा था। सब तरफ चाँदनी झर रही थी, फिर यह गर्मी! आखिर माजरा क्या है?

मैं मच्छरदानी के बाहर आ गया। सामने चकरोड पर निकल आया। हवा के हल्के झोंके के साथ चाँदनी से नहाई गेहूँ की बालियाँ झूम रही थीं। मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। गर्मी के साथ सीने में जलन भी शुरू हो गयी। मैं फिर चारपाई के पास आ गया। स्टूल पर ताँबे के लोटे में कटोरी से ढँका पानी रखा था। मच्छरदानी का एक पल्ला ऊपर फेंककर मैं चारपाई पर बैठ गया। कटोरी में पानी लिया। घूँट-घूँट करके पीने लगा। मगर तीसरा घूँट न चाहते हुए भी उगल देना पड़ा। गर्मी बर्दाश्त के बाहर थी। जोरों का पसीना आ रहा था। मैंने बूशर्ट और पायजामा निकाल फेंका। बनियान पसीने से तर हो चुकी थी। सीने में जलन के साथ अब अकुलाहट भी होने लगी थी।

मोबाइल ऑन करके देखा, तो रात के दो बज रहे थे। मैंने घर की तरफ देखा, ओसारे में कम पॉवर के बल्ब की हल्की रोशनी फैली थी। मैं पस्तहाल-सा चलकर घर के मुख्य दरवाजे के सामने पहुँचा और कुंडी खड़काकर आवाज देने लगा। पत्नी ने दरवाजा खोला, मुझे पसीने से नहाया और सिर्फ कच्छे में देखकर घबड़ा-सी गई, ये…ये क्या?

मुझे नहीं पता कि मैंने क्या बताया? पत्नी दौड़कर आंगन में खड़ी चारपाई गिराते हुए बोलीं, इस पर लेटो, मैं फर्राटा चला देती हूँ। मैं लड़खड़ाते हुए चारपाई की तरफ बढ़ने लगा, तभी…. इसके बाद जो हुआ, वह मुझे पत्नी के जरिए पता चला। वास्तव में चारपाई के पास पहुँचकर मैं होश खो बैठा और जमीन पर गिर पड़ा था। पत्नी की चीख-पुकार पर पहले उमेश आए, फिर उनका लड़का शिशिर और मेरे पुत्र संदीप। सबने मुझे उठाकर चारपायी पर लिटा दिया था।

मैं समझता हूँ कि यह बेहोशी वाला मामला आठ-दस मिनट का रहा होगा। क्योंकि होश में आने पर मैंने सुना था कि उमेश मोबाइल पर चौराहे के डॉक्टर रामसुंदर वर्मा को मेरे सिम्पटम बताते हुए दवा भेजने को कह रहे थे। दवा लेने के लिए शिशिर और संदीप के जाने की बात भी कर रहे थे। इसी समय बाहर बुलेट के स्टार्ट होने और धड़धड़ाते हुए जाने की आवाज भी सुनाई पड़ी थी। इस बीच मेरी अकुलाहट कम हो गयी थी। गर्मी का मामला भी ठंडा पड़ने लगा था। डॉ. वर्मा की डिस्पेंसरी से जो दवा आई थी, उसमें से दो टैबलेट मैंने चूसा था। आधा गिलास पाने में चार टैबलेट डाले गये थे, जो अपने आप घुल गए थे। यह मिठास भरा पानी भी मैंने पी लिया था।

इसके बाद मैं स्वयं जाकर मच्छरदानी के अंदर लेटा था। मुझे जल्दी ही नींद आ गयी। संभवत इसी समय मुझे अस्पताल लाकर चेकअप कराने की बात तय हुई थी। सबेरे छ बजे किसी ने मेरी एक न सुनी और विवश होकर मुझे अपने वरिष्ठ सहयोगी अक्षयबर सिंह को रिव्यू मीटिंग की जिम्मेदारी फोन करके सौंप देनी पड़ी।

मैंने दीवाल घड़ी की तरफ देखा, साढ़े बारह बज रहे थे। मैंने पत्नी से कहा, हमें यहाँ आये पाँच घंटे हो चुके, ले-देकर एक घंटे पहले मर्ज के जाँच-पड़ताल की प्रािढया शुरू हुई है। पूरे चार घंटे फालतू निकल गये। खैर, मोबाइल देना जरा, देखूँ मीटिंग कैसी चल रही है?पत्नी से मोबाइल लेकर मैंने अक्षयबर सिंह को फोन लगाया। जल्दी ही फोन उठ गय। हल्लो, कैसे हैं? बिल्कुल ठीक… मीटिंग के हालचाल…. एकदम बढ़िया…
मुझे तसल्ली हो गई। कुछ औपचारिक बातों के बाद मैंने फोन काट दिया। इसी समय ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर विद्या प्रकाश गुप्ता और समेकित शिक्षा के जिला समन्वयक जामवंत मौर्य आ गए। वार्ड में बैठने के लिए पर्याप्त फर्नीचर थे- दो कुर्सियाँ और लम्बी बेंच। फिर भी पत्नी खड़ी हो गयीं। दोनों अधिकारी बैठ गये, तब वे बैठीं। उनका अधिकारियों को मान देने का यह ढंग मुझे पसन्द आया। गुप्ता और मौर्य सर से मेरा अच्छा तालमेल था। पाँच-सात मिनट बैठने के बाद रात में मेरे साथ जो दिक्कत पेश आई थी, उसे बताया। गुप्ता सर ने कहा, मुझे पता है, मैं सुबह से ही उमेश के साथ लगा हूँ। पूरी रिपोर्ट आ जाए, आगे क्या करना है, यह तय होने तक दायें-बायें रहूँगा। पत्नी ने कृतज्ञता भरी नजरों से गुप्ता जी की तरफ देखा।
थोड़ी देर में दोनों अफसर वार्ड से निकल गये। मैंने टायलेट का यूज किया। वाशवेसिन पर हाथ मुँह धोकर बेड पर आया। घड़ी में दो बजने वाले थे, तभी सबेरे का पीले चेहरे वाला लड़का आ गया। बोला, सर, यहाँ एक पेशेंट को आना है। आप बाहर आ जाएँ।

ऐसा कैसे… हम दिन भर के लिए वार्ड का पैसा देंगे। पत्नी ने प्रतिवाद किया, आखिर यह भी बीमार हैं।
ओह आंटी, अंकल जी डिस्चार्ज होने जा रहे हैं, तभी डाक्टर ने बोला है। लड़के ने बताया। डिस्चार्ज होने की खुशी में पत्नी का प्रतिरोध ठण्डा पड़ गया। हम उसके साथ वार्ड से बाहर आ गये। चौड़े कारीडोर में एक तरफ अगल-बगल बेड डाले गये थे। दो बेड के बीच लड़के ने एक उंगली दिखाते हुए कहा, यहाँ शिट हो जाएंं।

मैं उसी बेंच पर लेट गया। पत्नी एक स्टूल पर बैठ गईंं। एक घंटे से अधिक समय गया। डिस्चार्ज होने की कोई बात नहीं दिखी। धीरे-धीरे मुझे यहाँ असहज-सा लगने लगा। वार्ड में था तो आने-जाने वालों से कोई दिक्कत न थी, लेकिन यहाँ कोई आया तो…. मैं यानी सीनियर अध्यापक… एक बड़े विकास खण्ड संसाधन केन्द्र का हेड यानी समन्वयक… विकास क्षेत्र में शिक्षा से जुड़े उपामों को गतिशील बनाने वाला… अपने क्षेत्र का नामवर… ऐसी गलीच स्थिति में।

यहाँ पड़े-पड़े मैं खीज रहा था। इसी समय मेरे क्षेत्र के सात-आठ अध्यापक आ गए। अभिवादन… चरण स्पर्श… गुरुजी अब कैसा फील कर रहे हैं ? जैसी बातों के बीच मुझे यहाँ पड़ा रहना बड़ा नागवार गुजर रहा था। अचानक मेरे दिमाग में एक आइडिया आया, जिससे मैं तात्कालिक रूप से इस अपमानजनक स्थिति से उबर सकता था। मैं आहिस्ते से खड़ा हुआ। आगंतुकों में मेरे सहसमन्वयक चन्द्रप्रताप सिंह भी थे। मैंने उनके कंधे पर हाथ रखा, आइये चाय पीकर आते हैं।

हम बाहर कैंटीन में आ गये। बिस्किट, चाय, नमकीन के साथ गप्पबाजी चल रही थी, तभी हड़बड़ाये से उमेश आये और बोले, डॉक्टर साहब बुला रहे हैं, रिपोर्ट आ गयी है। मैं उमेश के साथ डॉक्टर के चैम्बर में आ गया। वे गुस्से में थे। मुझे देखते ही बोले, किसकी परमीशन से आप बाहर गये? यू आर नाट एबुल टू अन्डरस्टैंड योर ािढटिकल सिच्युएशन….. लिपिड प्रोफाइल इज शोविंग डैंजरस स्टेज ऑफ ट्राईग्लिसराइड एण्ड कोलेस्ट्राल… आईसीयू फैसिलिटी इज मस्ट फार यू इम्मीडिएटली… ऐसे में आपका बिना बताये बाहर जाना… हाइली ऑब्जेक्शनेबुल मैटर।

मैं चुपचाप बरदाश्त कर जाने वाला आदमी हूँ, मगर इस समय पता नहीं क्या हो गया था? हो सकता है, सबेरे से जैसी स्थितियाँ पेश आई थीं, उससे अनजाने ही आाढाश पनपा हो, जो मौका पाते ही फूट पड़ा, डॉक्टर सर, इफ दैट वॉज सो, यू मस्ट हैव टोल्ड मी फॉर प्रॉपर प्रीकॉशंस… व्हाई कुड आई नो एबाउट दीज हिडेन कंडीशंस… डॉक्टर कुछ झेंप से गये थे। उन्होंने उमेश से कहा, इन्हें सँभालिए। उमेश के बजाय बीईओ साहब यानी गुप्ता जी मुझे बाहर ले आये। बोले, आपको लारी कार्डियोलाजी के लिए रेफर किया है। वहाँ सस्ता और अच्छा इलाज देते हैं। गाड़ी आ गई है।

उन्हेंने नीली इनोवा की तरफ इशारा किया। देखा, पिछली सीट पर पत्नी बैठी थीं, मैं भी वहीं बैठ गया। गुप्ता जी और चन्द्र प्रताप सिंह के साथ वाले अध्यापक इनोवा के पास आ गये थे। दो मिनट बाद उमेश आ गए। उनके सीट पर बैठते ही गाड़ी स्टार्ट हुई। गुप्ता सर और अध्यापकों ने हाथ हिलाकर मुझे विदा किया।
थोड़ा धैर्य रखें, कहानी अभी खत्म नहीं हुई है, पूरा एक एपीसोड बाकी है…… इनोवा का ड्राइवर तेज था। वह अलीगंज, मुसाफिरखाना, जगदीशपुर, हैदरगढ़ को पीछे छोड़ता किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी लखनऊ के लारी कार्डियोलाजी के परिसर में इनोवा को तीन घंटे से कम समय में खड़ा कर दिया। दो मिनट बाद उमेश के साथ एक वार्ड ब्वाय व्हील चेयर लेकर आया। मुझे ओपीडी में ले जाया गया। डॉक्टर वी.एस. नारायण ने मेरा चेकप किया। उनके साथ के कई नई उम्र के महिला-पुरुष डॉक्टर भी पूछताछ करने लगे, शुरू में क्या हुआ, कोई फैमिली हिस्ट्री…? ईसीजी, ब्लड प्रेशर, ब्लड सैम्पल.. कुछ और भी पता नहीं क्या-क्या? मैं बहत्तर घंटे के लिए आईसीयू में पहुँचा दिया गया। दूसरे दिन मुझे पत्नी से पता चला कि डॉक्टर नारायण ने बताया था- अगर नर्सिंग होम दो-तीन घंटे के अंदर डायग्नोस करके केस रेफर कर दिया होता तो हम इंजेक्शन आजमा कर नस खोलने का प्रयास कर सकते थे। मगर अभी अटैक पड़े सोलह घंटे से अधिक हो चुके हैं। अब कुछ जाँचों के बाद ऑापरेशन की डेट तय हो पाएगी।

यह सुनते हुए मेरे सामने लैश लाइट जैसी चमक के साथ हाइली आब्जेक्शनेबुल मैटर की कई आवृत्तियाँ हुईं, फिर हरेक फ्रेज के सारे अक्षर बिखर के मेरे सामने टंग जाते हैं। अब मैं बिखरे अक्षरों को ऊपर-नीचे, दायें-बायें, आड़ा-तिरछा कैसे भी देखता हूँ, तो मुझे दिखता है सिर्फ…. हाइली ऑब्जेक्शनेबुल मैटर…. बस और कुछ नहीं।

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