सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला, केवल बरी होना पर्याप्त नहीं, मुआवज़ा भी मिले!

भारत में तो गलत गिरफ्तारी, मुकदमों या दोषसिद्धि का रिकॉर्ड तक नहीं रखा जाता। अगर कभी किसी को मुआवजा मिलता भी है, तो बहुत मामूली। इसरो वैज्ञानिक नम्बी नारायणन 1996 में बरी हुए और 50 लाख रूपये का मुआवज़ा हासिल करने के लिए उन्हें 10 साल लगे। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि राज्य अपने प्रतिस्थानिक दायित्व से बच नहीं सकता, लेकिन 1998 में उसने ही नारायणन को 1 लाख रूपये मुआवज़े में दिये थे। यहां उम्मीद की जाती है कि टूटने व बिखरने के बाद अगर बरी हो जाओ, तो राज्य का एहसान मानो, टीटीई की तरह मरकर भी।

बात मई 1988 की है – दादर-नागपुर एक्सप्रेस के सेकंड क्लास स्लीपर कोच में एक टीटीई (ट्रेवलिंग टिकट एग्जामिनर) अपनी ड्यूटी कर रहा था कि अचानक सेंट्रल रेलवे की विजिलेंस टीम ने छापा मारकर उस पर आरोप लगाया कि उसने बर्थ आवंटित करने के लिए तीन यात्रियों से रिश्वत ली है, जो कुल 50 रूपये बैठती है और वह एक अन्य यात्री से 18 रूपये का किराया – अंतर लेने में भी नाकाम रहा है।

विभागीय जांच के बाद 1996 में टीटीई को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। उसने केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट) के समक्ष अपने बर्खास्तगी आदेश को चुनौती दी। कैट ने 2002 में रेलवे को टीटीई की नौकरी बहाल करने का निर्देश दिया। लेकिन उसे अपना जॉब वापस नहीं मिला, क्योंकि सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट में दस्तक दी, जिसने तुरंत प्रभाव से कैट के निर्देश पर रोक लगा दी। हाईकोर्ट में यह मामला 15 वर्ष तक लम्बित रहा, जिस दौरान टीटीई की मौत हो गई।

हाईकोर्ट ने 2017 में कैट के आदेश को निरस्त कर दिया और टीटीई की बर्खास्तगी को बरकरार रखा। रिश्वत के आरोप से टीटीई के परिवार की बहुत बदनामी हुई थी। इस कलंक को हटाने के उद्देश्य से टीटीई के परिवार के सदस्यों ने क़ानूनी संघर्ष को जारी रखने का फैसला किया। पहले हाईकोर्ट में और फिर सुप्रीम कोर्ट में। जिस साक्ष्य के आधार पर सेवाएं निरस्त की गईं थीं, उसकी जांच करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि जिन तीन यात्रियों से तथाकथित रिश्वत ली गई थी, उनमें से एक से तो पूछताछ की ही नहीं गई और शेष दो ने कहा कि टीटीई ने उनसे रिश्वत की कोई मांग की ही नहीं थी बल्कि टीटीई ने उन्हें स्पष्ट आश्वासन दिया था कि वह उन्हें रसीद देगा और अन्य कोचों की चेकिंग करने के बाद उन्हें बकाया पैसा लौटा देगा।

37 साल बाद मिला न्याय, लेकिन कितनी देर से

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नोट किया कि टीटीई पर जो अन्य आरोप लगाये गये, उनके सिलसिले में भी कोई सबूत नहीं हैं।
अब 37-वर्ष बाद टीटीई को 50 रूपये रिश्वत लेने के आरोप से बरी किया गया है और वह अपनी बेगुनाही की अच्छी खबर सुनने के लिए जीवित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने उसके पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा है कि उसके खिलाफ तो कोई मामला बनता ही नहीं था।

तीन दशक से भी अधिक पुराने केस को बंद करते हुए न्यायाधीश संजय करोल और न्यायाधीश प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने आदेश दिया कि पेंशन सहित सभी परिणामी आर्थिक लाभ टीटीई के क़ानूनी वारिसों को अदा किये जाएं। इस घटना से कुछ बुनियादी सवाल उठने लाज़मी हैं। क्या देर से मिले न्याय को इंसाफ कहा जा सकता है? अब जो टीटीई के क़ानूनी वारिसों को सभी परिणामी आर्थिक लाभ मिलेंगे, क्या उनसे परिवार के 37-साल के तनाव, तंगी व बदनामी की भरपाई हो जायेगी?

झूठे आरोपों व बर्खास्तगी के बाद तो टीटीई अपने ही खानदान, दोस्तों व समाज की नज़रों में गिर गया होगा, क्या उसका कोई मुआवज़ा है? तनाव व डिप्रेशन में रहने के कारण टीटीई की असमय मौत का दोषी कौन है? उन विजिलेंस अधिकारियों को दोषरहित कैसे माना जा सकता है, जिन्होंने टीटीई पर झूठे आरोप लगाये और उसकी व उसके परिवार की बर्बादी का कारण बने? उन सरकारी अधिकारियों का क्या जिन्होंने कैट के आदेश के विरुद्ध बॉम्बे हाईकोर्ट जाने का फैसला किया?

न्याय की चूक और सुप्रीम कोर्ट की पहल

बॉम्बे हाईकोर्ट को टीटीई के निर्दोष होने के वह बिंदु नज़र क्यों नहीं आये, जिनका संज्ञान सुप्रीम कोर्ट ने लिया? यह सही है कि न्यायिक व्यवस्था में निचली से उच्चतम अदालतें हैं ही इसलिए ताकि एक जगह अगर चूक हो जाये, तो अपील में उसकी भरपाई हो जाये, लेकिन इस व्यवस्था में कहीं कुछ कमी तो अवश्य है कि फैसले तो सुनाये जाते हैं, मगर आम आदमी को इंसाफ नहीं मिल पाता।

किसी को दोषी ठहरा देना या किसी को बरी कर देना इंसाफ के लिए पर्याप्त नहीं है। जिन लोगों को गलत तरह से दोषी ठहरा दिया जाता है, उनकी अधिकतर मामलों में, भारत क्षतिपूर्ति नहीं करता है। सुप्रीम कोर्ट इसे ऐसी गलती मानता है जिसे सुधारा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा है कि वह गलत गिरफ्तारी, मुकदमे व दोषसिद्धि का मुआवजा देने के लिए नियम बनाने में सहयोग करे।

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एक व्यक्ति के गले पर छह वर्ष से फांसी का फंदा लटका हुआ था, उसके खिलाफ फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने उक्त इरादे की घोषणा की। इसका अर्थ यह है कि किसी का बरी हो जाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे जो गलत तरीके से सलाखों के पीछे रखा गया या टीटीई की तरह मानसिक पीड़ा व बदनामी से गुज़रना पड़ा, उसकी भी भरपाई होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने निरंतरता के साथ उन लोगों को बरी किया है, जिन्हें निचली अदालतों ने फांसी की सज़ा सुनायी थी और निम्नस्तरीय व बेईमानी भरे पुलिस कार्य व मुकदमों पर गुस्सा व दुःख व्यक्त किया है। निचली अदालतों के गलत फैसलों की उसने कड़ी आलोचना की है।

न्याय व्यवस्था में मुआवज़े की ज़रूरत

सुप्रीम कोर्ट का इरादा स्वागतयोग्य है, लेकिन उसे मुकम्मल होना ही चाहिए। हमारी न्यायिक व्यवस्था में जो यह कमी है, उसके एक-एक पहलू पर खूब चर्चा हुई है। विधि आयोग ने 2018 में इस संदर्भ में सिफारिश की। लोकसभा में इस पर क़ानून बनाने का प्रयास किया गया, लेकिन एक सदस्य का निजी बिल, गलत दोषियों के अधिकारों की सुरक्षा विधेयक, 2019 को गंभीरता से नहीं लिया गया और वह ठंडे बस्ते में चला गया।

बीएनएस (भारतीय न्याय संहिता) में मुआवज़ा फ्रेमवर्क के लिए गलत गिरफ्तारी, हिरासत व दोषसिद्धि को विधान में शामिल किया जा सकता था, लेकिन इस अवसर को भी गंवा दिया गया। गलत गिरफ्तारी केवल अन्याय नहीं है बल्कि सम्मान को नष्ट करना है, जीवनों को बर्बाद करना है और न्यायिक व्यवस्था पर से विश्वास का उठ जाना है। सवाल यह है कि मुआवजा किस तरह से तय किया जाये? विधि आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि मुआवजा तय करने के लिए अपराध की गंभीरता, सज़ा की सख्ती, हिरासत की अवधि, स्वास्थ्य को नुकसान, बदनामी और हां, आय व अवसरों के खोने का संज्ञान लिया जाना चाहिए।

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गलत सज़ा और मुआवज़े की सच्चाई

इसमें क़ानूनी फीस को भी जोड़ा जाये। न्यूयॉर्क सिटी ने 2014 में पांच अश्वेत व लातिनी पुरुषों को 40 मिलियन डॉलर मुआवजा दिया था। ये लोग जब अपनी किशोरावस्था में थे, तो इन पर गलत आरोप लगाया गया कि सेंट्रल पार्क में इन्होंने एक न्यूयॉर्क के जॉगर पर घातक हमला किया था। अदालत ने 1989 में इन्हें दोषी घोषित किया, लेकिन 25 साल बाद डीएनए फोरेंसिक के कारण ये बरी हो गये।

अमेरिका की पुनस्थापन राष्ट्रीय रजिस्ट्री ने 2023 में 153 पुनस्थापन दर्ज किया, जिनमें से लगभग 84 प्रतिशत अश्वेत थे और जिन्होंने सामूहिक रूप से अपने जीवन के 2,230 वर्ष खोये उन अपराधों के लिए, जो उन्होंने कभी किये ही नहीं थे। इस संदर्भ में राज्यवार रिकॉर्ड 1989 से रखना शुरू किया गया और तब से 2023 तक न्यूयॉर्क स्टेट गलत बंदी बनाने के लिए कुल 322 मिलियन डॉलर मुआवज़े में दे चुका है।

शाहिद ए चौधरी
शाहिद ए चौधरी

भारत में तो गलत गिरफ्तारी, मुकदमों या दोषसिद्धि का रिकॉर्ड तक नहीं रखा जाता। अगर कभी किसी को मुआवजा मिलता भी है, तो बहुत मामूली। इसरो वैज्ञानिक नम्बी नारायणन 1996 में बरी हुए और 50 लाख रूपये का मुआवज़ा हासिल करने के लिए उन्हें 10 साल लगे। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि राज्य अपने प्रतिस्थानिक दायित्व से बच नहीं सकता, लेकिन 1998 में उसने ही नारायणन को 1 लाख रूपये मुआवज़े में दिये थे। यहां उम्मीद की जाती है कि टूटने व बिखरने के बाद अगर बरी हो जाओ, तो राज्य का एहसान मानो, टीटीई की तरह मरकर भी।

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