अंतरिक्ष में भारत की बढ़ती धमक
अब से ठीक छह दशक पहले, 21 नवंबर 1963 को, भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत अमेरिका से दान में मिले एक नन्हे से रॉकेट से हुई थी। वह एक ऐसा दौर था जब भारत स्पेस टेक्नोलॉजी के लिए दुनिया के ताकतवर मुल्कों पर निर्भर था। आज, 21वीं सदी के तीसरे दशक में, वक्त का पहिया ऐसा घूमा है कि वही अमेरिका, दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और तकनीकी महाशक्ति, अपने सबसे महंगे, सबसे ज़रूरी और सबसे संवेदनशील सैटेलाइट्स को अंतरिक्ष में भेजने के लिए भारत के दरवाज़े पर खड़ा है। यह कोई मामूली बदलाव नहीं है; यह अंतरिक्ष में एक नए वर्ल्ड ऑर्डर का ऐलान है, जिसकी पटकथा भारत लिख रहा है।
अभी कुछ ही हफ्तों पहले, 30 जुलाई को भारत के जीएसएलवी रॉकेट ने जब दुनिया के सबसे महंगे, 1.3 बिलियन डॉलर की लागत वाले निसार सैटेलाइट को उसकी कक्षा में ऐसे स्थापित किया, जैसे कोई डाकिया पिन-कोड पर चिट्ठी पहुंचाता है, तो नासा के वैज्ञानिक भी इसरो की सटीकता के कायल हो गए। आज दुनिया का स्पेस मार्केट खरबों डॉलर का है और भारत अब उसमें सिर्फ एक खिलाड़ी नहीं, बल्कि गेम-चेंजर बनकर उभरा है।
आने वाले कुछ सालों में भारत जो करने जा रहा है, उसका अंदाजा लगाकर ही अमेरिका से लेकर यूरोप तक की स्पेस एजेंसियों की नींद उड़ी हुई है। आज ग्लोबल स्पेस मार्केट की कीमत 500 बिलियन डॉलर से ज्यादा है और ये रॉकेट की रफ़्तार से बढ़ रही है। दशकों तक इस मार्केट पर अमेरिका, रूस और यूरोप की कुछ कंपनियों का एकाधिकार था। वो अपने मनमाने दाम पर देशों को लॉन्च सेवाएं देते थे। लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है।
इसरो ने इस ग्लोबल मार्केट में भारत का ऐसा झंडा बुलंद कर दिया है, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। भारत ने सिर्फ कम लागत का दांव नहीं खेला, बल्कि भरोसे और दक्षता का ऐसा तड़का लगाया है कि दुनिया भारत के साथ काम करने को बेताब है। अब तक 34 देशों के 433 से ज्यादा सैटेलाइट्स को सफलतापूर्वक लॉन्च करना कोई मज़ाक नहीं है। यह इसरो की उस काबिलियत का सर्टिफिकेट है, जिस पर दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां और सरकारें आंख मूंदकर भरोसा कर रही हैं।
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में स्पेस नीतिगत बदलाव
जिस अमेरिका ने कभी भारत को क्रायोजेनिक इंजन तकनीक देने से इनकार कर दिया था, आज वही अमेरिका अपनी सबसे एडवांस्ड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी को अंतरिक्ष में भेजने के लिए भारत के स्वदेशी बाहुबली रॉकेट पर निर्भर है। इस बदलाव के पीछे सिर्फ इसरो के वैज्ञानिकों की दशकों की तपस्या ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूरदर्शी सोच और राजनीतिक इच्छाशक्ति का भी बहुत बड़ा हाथ है। पिछले एक दशक में भारत के स्पेस सेक्टर में जो तूफानी तेज़ी आई है, वह कोई इत्तेफाक नहीं है।
यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक सोची-समझी और साहसिक नीतिगत बदलाव का नतीजा है, जिसका मकसद स्पेस सेक्टर को सरकारी नियंत्रण से आज़ाद करके एक डायनामिक पब्लिक-प्राइवेट इकोसिस्टम बनाना था। आत्मनिर्भर भारत के विज़न के तहत 2023 में लाई गई इंडियन स्पेस पॉलिसी इस बदलाव का सबसे बड़ा दस्तावेज़ है। इस नीति ने भारत के स्पेस प्रोग्राम की दिशा और दशा हमेशा के लिए बदल दी।
इस क्रांति को ज़मीन पर उतारने के लिए दो प्रमुख संस्थाओं का गठन किया गया। पहली, आईएन-स्पेस (इंडियन नेशनल स्पेस प्रमोशन एंड ऑथराइजेशन सेंटर), जो प्राइवेट कंपनियों को बढ़ावा देने, उन्हें अधिकृत करने और उनके काम की निगरानी के लिए एक सिंगल-विंडो एजेंसी के तौर पर काम करती है।
भारत में स्पेस स्टार्टअप्स और आर्थिक रणनीति
इसने प्रभावी रूप से इसरो के साथ प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी का रास्ता खोल दिया। दूसरी संस्था है एनएसआईएल (न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड), जो इसरो की कमर्शियल ब्रांच है और जिसका काम भारतीय स्पेस टेक्नोलॉजी और सेवाओं को दुनिया भर में बेचना है। एनएसआईएल पहले ही करोड़ों का राजस्व कमा चुकी है। इन सुधारों का असर ज़मीन पर साफ दिखाई देता है।
2014 में जहां स्पेस सेक्टर में काम करने वाला सिर्फ एक स्टार्टअप था, वहीं 2025 तक इनकी संख्या 300 को पार कर गई। यह एक नए और ऊर्जावान इकोसिस्टम का जीता-जागता सबूत है। इसका सबसे शानदार उदाहरण है पिक्सलस्पेस इंडिया के नेतृत्व वाले कंसोर्टियम का चयन। यह कंसोर्टियम अगले पांच सालों में 1,200 करोड़ रुपये से ज्यादा का निवेश करके भारत का पहला पूरी तरह से स्वदेशी कमर्शियल अर्थ ऑब्जरवेशन सैटेलाइट नेटवर्क तैयार करेगा।
इस आग को और हवा देने के लिए सरकार ने एएफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) नीति को उदार बनाया है, जिससे कुछ क्षेत्रों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाज़त मिली और स्पेस स्टार्टअप्स को बढ़ावा देने के लिए वेंचर कैपिटल फंड भी स्थापित किए गए। इन कदमों का एक स्पष्ट आर्थिक लक्ष्य है, भारतीय स्पेस इकोनॉमी की मौजूदा 9 बिलियन डॉलर की 2 फीसदी वैश्विक हिस्सेदारी को बढ़ाकर साल 2033 तक 44 बिलियन डॉलर तक पहुंचाना और ग्लोबल मार्केट में 8 फीसदी की हिस्सेदारी हासिल करना। यह सब एक गहरी रणनीति का हिस्सा है।
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भारत का आत्मनिर्भर अंतरिक्ष मिशन और गगनयान तैयारी
अब तक हम हाई-रेजोल्यूशन तस्वीरों और डेटा के लिए विदेशी सैटेलाइट्स पर निर्भर थे, जिसके लिए हमें मोटी रकम चुकानी पड़ती थी। अब भारत की प्राइवेट कंपनियां खुद ऐसे सैटेलाइट्स का जाल बिछाएंगी, जो न केवल भारत की जरूरतों, जैसे- क्लाइमेट चेंज की निगरानी, आपदा प्रबंधन, कृषि और राष्ट्रीय सुरक्षा, को पूरा करेंगी, बल्कि दुनिया को भी डेटा बेचकर अरबों डॉलर कमाएंगी। यह आत्मनिर्भर भारत का अंतरिक्ष अवतार है।
चंद्रयान-3 की सफलता, मंगलयान की कामयाबी, निसार सैटेलाइट की सफल लॉन्चिंग बस एक झांकी है, असली पिक्चर तो अभी बाकी है। इसरो ने भविष्य का जो रोडमैप तैयार किया है, वो किसी भी स्पेस सुपरपावर को असुरक्षित महसूस कराने के लिए काफी है। भारत 2027 की पहली तिमाही तक अपने अंतरिक्ष यात्रियों को अपने रॉकेट से गगनयान मिशन के तहत अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी कर रहा है।
हाल ही में ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला की इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन की यात्रा इसी दिशा में एक अहम पड़ाव थी। भारत जल्द ही 40-50 अंतरिक्ष यात्रियों का एक पूल तैयार करेगा, जो भविष्य के मिशनों का नेतृत्व करेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने 2035 तक भारत के अपने स्पेस स्टेशन का जो लक्ष्य रखा है, वो भारत की महाशक्ति बनने की आकांक्षा का प्रतीक है। यह सिर्फ एक ऑर्बिटिंग लैब नहीं होगी, बल्कि अंतरिक्ष में भारत का एक स्थायी पता होगा, जहां से वो पूरे सौर मंडल पर नजर रख सकेगा। चंद्रयान-3 के बाद अब चांद से सैंपल लेकर वापस आने वाला मिशन चंद्रयान-4 और चंद्रयान-5 की तैयारी है।
भारत के प्रमुख रॉकेट मिशन और सैटेलाइट विस्तार
मंगलयान-2 और पा ऑर्बिटर मिशन भी पाइपलाइन में हैं। तो सूर्य का अध्ययन करने वाले आदित्य-एल1 की सफलता के बाद, भविष्य के सोलर मिशन भारत की प्राथमिकता बने रहेंगे। आज भारत सिर्फ रॉकेट नहीं बना रहा, बल्कि वह स्पेस मार्केट के हर सेगमेंट पर कब्ज़ा करने के लिए लॉन्च व्हीकल्स का एक पूरा तरकश तैयार कर रहा है। यह क्षमता उन महत्वाकांक्षी मिशनों की नींव है जो भारत को दुनिया की शीर्ष अंतरिक्ष शक्तियों में स्थापित करेंगे।
इस तरकश में हर ज़रूरत के लिए एक तीर है। छोटे सैटेलाइट्स के बढ़ते बाज़ार के लिए इसरो ने एसएसएलवी (स्मॉल सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) तैयार किया है। यह एक ऑन-डिमांड रॉकेट है जिसकी खासियत कम लागत, महज़ 72 घंटों का टर्न-अराउंड टाइम और फ्लेक्सिबिलिटी है। वहीं, पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) इसरो का भरोसेमंद घोड़ा है, जिसने भारत की कमर्शियल सफलता की कहानी लिखी है।

और फिर है एलवीएम-3, भारत का बाहुबली रॉकेट, जो 6,500 किलो के अमेरिकी सैटेलाइट और भारत के पहले मानव मिशन गगनयान को अंतरिक्ष में ले जाने की ताकत रखता है। आने वाले तीन से चार सालों में, भारत अंतरिक्ष में अपने सक्रिय सैटेलाइट्स की संख्या 55 से बढ़ाकर लगभग 165 करने जा रहा है। यह तीन गुना वृद्धि भारत को अभूतपूर्व क्षमता प्रदान करेगी। साठ साल पहले दुनिया ने भारत को अंतरिक्ष में एक शुरुआत दी थी। आज, भारत दुनिया को अपनी शर्तों पर सितारों की सैर करा रहा है। तिरंगा सिर्फ चांद पर नहीं है; यह ब्रह्मांड में मानवता के भविष्य का रास्ता तय कर रहा है। यह भारतीय अंतरिक्ष युग का उदय है और इसकी रोशनी आने वाली पीढ़ियों का मार्ग प्रशस्त करेगी।
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