क्या ज़रूरी है ठहाकों पर पहरा?

एक समय था जब स्टैंड-अप कॉमेडी का मतलब था – मंच पर आओ, चुटकुले सुनाओ, ठहाके लगवाओ और निकल जाओ। लेकिन अब, यह गणित बदल चुका है। अब कॉमेडी शो के बाद स़िर्फ तालियाँ नहीं, बल्कि एफआईआर, कानूनी नोटिस और गुस्साए समर्थकों की तोड़फोड़ भी मुफ़्त में मिलती है।

ख़बर गर्म है कि एक चर्चित कॉमेडियन को अपने शो में एक उपमुख्यमंत्री पर तंज़ कसने की अच्छी-ख़ासी कीमत चुकानी पड़ रही है। उन्होंने पैरोडी के ज़रिए नेता की राजनीतिक यात्रा पर कटाक्ष किया, और बस, पार्टी कार्यकर्ताओं का गुस्सा फूट पड़ा। मुंबई के हेबिटेट कॉमेडी क्लब में तोड़फोड़ हुई। शो रद्द करना पड़ा। कॉमेडियन के ख़िल़ाफ एफआईआर भी दर्ज हो गई।

क्या कॉमेडी अपराध बन चुकी है या यह डर की राजनीति है?

इससे पहले भी, पिछले महीने ही तो, एक अन्य कॉमेडियन पर सोलापुर में हमला हुआ था। उन्होंने एक अभिनेता को लेकर मज़ाक किया था। इंडियाज़ गॉट लेटेंट के दौरान की गई अभद्र टिप्पणियों पर तो ख़ैर देश भर में गुस्सा फूट पड़ा ही था। सवाल यह है कि, क्या हमारे यहाँ कॉमेडी करना अपराध बन चुका है?

एक समय था जब हास्य कलाकार नेताओं की नीतियों पर व्यंग्य करते थे, और जनता इसे लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा मानती थी। लेकिन अब, नेताओं के समर्थकों की सहनशीलता इतनी घट चुकी है कि कोई मज़ाक सहने को तैयार नहीं। स्टैंड-अप कॉमेडी को तो समाज के मुद्दों पर खुली बातचीत का माध्यम बनना चाहिए था।

लेकिन अगर कॉमेडियन को जोक लिखने से पहले चार बार सोचना पड़े कि कहीं अगली सुबह उनकी गिरफ़्तारी की ख़बर न आ जाए, तो इसे काम्य स्थिति तो नहीं ही कहा जा सकता। क्या सचमुच कॉमेडी ने कला की हदें पार करके अपराध की शक़्ल अख़्तियार कर ली है? या यह डर की राजनीति है? याद रहे कि हास्य-व्यंग्य का तो काम ही विकृतियों पर मीठी मार करना है।

तब ऐसा क्यों है कि हर बार जब कोई कॉमेडियन किसी धर्म, जाति या राजनेता पर व्यंग्य करता है, तो तुरंत भावनाएँ आहत होने का नाटक शुरू हो जाता है। सवाल यह है कि क्या हमारी धार्मिक और राजनीतिक आस्थाएँ इतनी कमज़ोर हैं कि एक मज़ाक भर से हिल जाएँ? लोकतंत्र की असली ताकत तो यही होनी चाहिए कि वह आलोचना सह सके, ठहाके सह सके।

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हास्य बनाम अभद्रता: व्यंग्य की सीमाएँ और लोकतंत्र

लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है कि अगर व्यंग्य मीठी मार के बजाय कड़वी गाली-गलौज में बदल जाए तो रार तो होगी ही! यानी, समाज और भाषा की मर्यादाओं का पालन हर नागरिक की तरह कॉमेडियन को भी करना चाहिए। ऊँची कमाई और लोकप्रियता के नशे में हदें पार करने को लोकतंत्र के नाम पर आख़िर कितनी दूर तक छूट दी जा सकती है, यही सवाल सारी डांडामेड़ी का आधार है न!

समझना यह भी ज़रूरी है कि राजनीतिक दलों के समर्थक शायद यह भूल जाते हैं कि जब वे कॉमेडी शो रुकवाते हैं, एफआईआर करवाते हैं, या तोड़फोड़ करते हैं, तो क्या वे असल में अपने ही दल और नेता की छवि को कमज़ोर नहीं कर रहे होते हैं! मज़बूत नेता तो वही होता है न, जो आलोचना को मुस्कान के साथ स्वीकार करे, न कि उसे दबाने के लिए कानून का सहारा ले!

कहना शायद ग़लत न हो कि अगर चार चुटकुलों से किसी नेता की छवि खराब हो सकती है, तो फिर समस्या कॉमेडियन में नहीं, बल्कि उस नेता की छवि में है! क्योंकि हँसी लोकतंत्र की मज़बूती की निशानी होती है, न कि उसकी कमज़ोरी की। अगर कोई मज़ाक हमें असहज करता है, तो उसे रोकने के बजाय, हमें आत्ममंथन करने की ज़रूरत है कि आख़िर हम उससे इतना डर क्यों रहे हैं।

अगर ठहाके गूँजते रहेंगे, तो समझ लीजिए कि लोकतंत्र ज़िंदा है। जिस दिन हँसी पर भी पहरा लग जाएगा, उस दिन हमें सोचना पड़ेगा कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। लेकिन ज़रूरी है कि व्यंग्य, व्यंग्य ही रहे, गाली न बने!

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