‘उदयपुर फाइल्स’ पर रोक की मांग, जमीयत प्रमुख पहुंचे दिल्ली हाईकोर्ट

नई दिल्ली, टेलर कन्हैयालाल हत्याकांड पर आधारित फिल्म ‘उदयपुर फाइल्स’ की रिलीज़ पर रोक लगाने की मांग को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई है। याचिका में दावा किया गया है कि यह फिल्म देश में सांप्रदायिक तनाव भड़का सकती है और सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित कर सकती है।

यह याचिका जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष और दारुल उलूम देवबंद के प्राचार्य मौलाना अरशद मदनी द्वारा दायर की गई है और इसकी सुनवाई बुधवार को होने की संभावना है। मदनी ने याचिका में कहा है कि फिल्म का ट्रेलर 26 जून 2025 को जारी किया गया था, जो ऐसे संवादों और घटनाओं से भरा हुआ है, जिन्होंने 2022 में सांप्रदायिक वैमनस्य को जन्म दिया था और जिनमें दोबारा वही भावनाएं भड़काने की पूरी संभावना है।

याचिका में कहा गया है कि फिल्म में अदालत के दृश्य, एक वर्तमान मुख्यमंत्री द्वारा मामले में एक पक्ष का समर्थन करने वाला बयान, और राजनेता नुपुर शर्मा का वह विवादास्पद बयान स्पष्ट रूप से दिखाया गया है, जिससे पहले सांप्रदायिक हिंसा हुई थी और अंततः कन्हैयालाल की नृशंस हत्या हुई थी। याचिका में यह भी कहा गया है कि केवल ट्रेलर को देखकर ही यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्म की कहानी एक संपूर्ण समुदाय को पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से चित्रित करती है, जिससे उस समुदाय के सदस्यों के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार का उल्लंघन होता है।

उदयपुर फाइल्स’ से सौहार्द को खतरा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग का आरोप

याचिका में कहा गया, “ट्रेलर स्वयं इसकी अत्यंत भड़काऊ प्रकृति को दर्शाता है, जो समुदायों के बीच फूट डालने और देशभर में शांति एवं सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने में सक्षम है, जैसा कि पहले इन्हीं बयानों के कारण हो चुका है।” याचिकाकर्ता ने कहा कि जहां कन्हैयालाल की हत्या दो कट्टरपंथियों ने की थी, वहीं ट्रेलर इसे समुदाय के धार्मिक नेताओं की मिलीभगत से अंजाम दिया गया कृत्य दर्शाने की कोशिश करता है।

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याचिका में दावा किया गया है कि “फिल्म ‘उदयपुर फाइल्स’ की रिलीज़ से सांप्रदायिक तनाव भड़क सकता है और सार्वजनिक व्यवस्था प्रभावित हो सकती है।” याचिका में यह भी कहा गया है कि फिल्म “पूरे धार्मिक समुदाय को बदनाम करती है, नफरत फैलाती है और देश की धार्मिक सौहार्द की भावना को कमजोर करती है,” जो संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, क्योंकि यह भेदभाव को बढ़ावा देती है और समुदाय के गरिमामय जीवन और सुरक्षा के अधिकार को खतरे में डालती है।

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याचिका में यह भी आरोप लगाया गया है कि फिल्म “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का हथियार बनाकर संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन करती है और एक बहुल, समावेशी और धर्मनिरपेक्ष भारत की संवैधानिक दृष्टि को कमजोर करती है, बल्कि सामाजिक और धार्मिक विभाजन को गहरा करने वाले नैरेटिव को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करती है। याचिका में कहा गया है, “कलात्मक अभिव्यक्ति, चाहे जितनी भी प्रभावशाली हो, उसे भाईचारे को खत्म करने और संविधान में निहित राष्ट्र की नैतिक नींव को उखाड़ने का साधन नहीं बनने दिया जा सकता।”

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