जीवन का संदेश
निवेदन
जीवन के उस आरंभिक काल में जबकि साधारण बालक रात की काली चादर ओढ़कर मां की मीठी थपकियों में सो जाना पसंद करते हैं, मैं उन नीरव निस्तब्ध रातों में, जब सब सो जाते थे, गायत्री मां की लोरियां सुना करता था। बच्चों के लिए खेल-कूद भी बहुत आकर्षण रखते हैं, परन्तु मेरे लिए यही आकर्षण सबसे बढ़कर रहा कि मैं गायत्री मां की मृदुल गोद में खेला करूँ।
मैं खिन्न रहता था- संसार से निराश! आठ-नौ वर्ष की अल्पायु में ही मैंने अनुभव किया कि मेरा जीना निरर्थक है। संसार की कोई सूनी छोर खोजकर मैं रोया करता और अपनी मूक भाषा में अपने गांव से परे दिखती उन काली पहाड़ियों से पूछता कि मुझसे कोई भी क्यों प्रसन्न नहीं है? अध्यापक, मित्र, सगे-संबंधी और दूसरे क्यों मेरे साथ प्रेम व्यवहार नहीं करते? वे पहाड़ियाँ निर्जीव थीं, निश्चल और निप्राण। वे मेरे प्रश्न का उत्तर न दे सकती थीं, न देतीं। परन्तु एक दिन मेरी सजल आंखों को देखकर, मेरे मुर्झाये चेहरे को देखकर स्वर्गीय स्वामी नित्यानंद जी ने, जो उन दिनों हमारे गांव जलालपुर जट्टां में पधारे थे, मुझसे इसका कारण पूछा।
मैंने कहा, मेरा जीना निरर्थक है। मुझसे कोई भी प्रसन्न नहीं। किसी भी विषय में मेरा प्रवेश नहीं। ऐसे जीने का लाभ? स्वामी जी ने मेरे टूटे दिल को ढांढस बंधाया। मुझे आश्वासन देते हुए बोले- निराश न हो। हम तुम्हें एक उपाय बताते हैं। उसका सेवन करो। तुम्हारे संतप्त हृदय को शान्ति मिलेगी, सब शोक और विघ्न-बाधाएं दूर हो जाएंगी।
मैंने बालू के कणों में पानी की मिठास का अनुभव किया। इस अन्धकारमय संसार में उज्ज्वल ज्योति का मधुर आभास पाया। मैंने तिनके का सहारा लेते हुए कहा – बताइये, आपकी अनुकम्पा! और जब उनकी आज्ञानुसार मैं कागज का एक पन्ना ले आया तो स्वामी जी ने उस पर गायत्री मंत्र लिख दिया। गायत्री मंत्र मुझे पहले ही कण्ठस्थ था, किन्तु उस दिन उसे देखकर मेरी आंखें एक अद्भुत ज्योति से चमक उठीं। तब उन्होंने मुझे इसके अर्थ बतलाते हुए कहा – जब घर के सब लोग सो जायें, तब उठकर इस मंत्र का जाप किया करो।
इस घटना को आज लगभग 44 वर्ष हो चुके हैं, किन्तु मुझे एक ऐसा दिन स्मरण नहीं, जबकि मैं गायत्री मां की पवित्र गोद में न बैठा हूँ। इस जाप से मेरे निराश हृदय को आशा मिली, मेरे खिन्न चित्त को रस मिला और मुझे अशान्ति को शान्ति का महासागर! ज्यों ज्यों मैं इस मंत्र का जाप करता गया, मेरी रुचि प्रभु भक्ति की ओर उत्तरोत्तर बढ़ती गई। प्रत्येक मंत्र मेरे ऊपर अपना नया रंग छोड़ता गया और धीरे-धीरे मैं उसमें इतना रंग गया कि मुझे संसार की किसी दूसरी वस्तु में उससे अधिक आकर्षण नहीं दीख पड़ा।
भगवान् की अपार कृपा से मेरा जन्म ऐसे माता-पिता के घर में हुआ, जो सच्चा आर्य जीवन व्यतीत करने वाले प्रभु भक्त हैं। उनके शिक्षण और पोषण ने मेरे अन्दर प्रभु भक्ति का भाव कूट-कूटकर भर दिया। इस पर भी कृपा हई, तो मुझे इस संसार में जीवन सड़िनी भी प्रभु भक्ति के रंग में रंगी हुई एक देवी ही मिली। विवाह के पश्चात् मेरे भक्ति भाव को इस देवी ने और भी तीव्र कर दिया। सहधर्मिणी के बाद सन्तान भी प्रभु भक्त ही मिली। मैं तो चारों ओर से प्रभु भक्ति और प्रभु विश्वास से ओत-प्रोत हो गया। और जब 1807 में श्री पूज्य महात्मा हंसराज जी के साथ संसर्ग हुआ तो प्रभु प्रेम पर एक और अनोखा रंग चढ़ गया। इसके पश्चात् मुझे जो संबंधी मिले, जो धर्मपुत्र और धर्मपुत्री भी मिले, ये भी प्रभु के सच्चे भक्त। इसी प्रकार मुझे मित्र भी वही मिले जो प्रभु भक्त के रंग में रंगे हुए थे।
ऐसा अनुकूल वातावरण पाकर प्रभु-भक्ति का रंग दिन प्रतिदिन गूढ़ होता चला गया। जीवन में समय-समय पर परिवार, संबंधियों तथा मित्रों की ओर से पूर्ण सुभीता होने से मुझे इस मार्ग पर अग्रसर होने में बड़ी सहायता मिली और जब मेरे भाग्योदय की घड़ी निकट आ पहुंची, तो फिर गुरु भी अचानक ही मिल गये। उन्हेंने स्वयं मेरा हाथ थामकर मुझे भगवान के सम्मुख बिठाकर उसकी झलक दिखा दी। जब कभी भी मैं एकाकी होकर अपने जीवन की अद्भुत घटनाओं पर विचार करता हूं तो मुझे इन सबके भीतर मेरी प्रिय माता वेद माता का ही हाथ निहित नजर आता है। मैं कुछ भी नहीं हूं, सिवाय इसके कि गायत्री मां की कृपा का पात्र हूं। मैंने जो कुछ भी पाया है, उसी के आशीर्वाद से पाया है।
यह कथा वर्णन करने का अभिप्राय यही है कि वे बालक-बालिकाएं, युवक-युवतियां तथा वृद्ध-वृद्धाएं और जो मेरी तरह आतुर और आकुल हो रहे हों, मेरे जीवन की इस सत्य राम-कहानी से कोई लाभ उठा सकें। वे ठोकरें खाने की बजाय एक निश्चित और सफल मार्ग की ओर अग्रसर हों।
हैदराबाद के धार्मिक संग्राम के संबंध में डेढ़ वर्ष के लिए कारागार में मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि इस जेल-यात्रा का प्रसाद अपने भाई-बहनों को क्या दूं? सौभाग्य से जिस जेल (गुलबर्गा जेल) में मैं बंदी था, उसी जेल में श्री पूज्य महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज भी बन्दी थे। उनके सत्संग में रहते हुए और प्रतिदिन उपनिषदों के रहस्य सुनते हुए, मेरी अन्तरात्मा से यही ध्वनि प्रतिध्वनित हुई कि प्रभु-भक्ति का ही प्रसाद उपयुक्त होगा। लेकिन मैं प्रसाद देने वाला कौन? मेरे पास रखा ही क्या है? यह तो उसी की कृपा का प्रसाद है। उसी की आज्ञा से आपके सम्मुख रख रहा हूँ। अच्छा लगे- न लगे, भाये – न भाये, यह प्रेम की भेंट है, स्वीकार कीजिये! भक्तों के चरणों की रज-समान
– खुशहालचन्द (महात्मा आनंद स्वामी)