राजनैतिक पंडाल में राग चुनावी की जुगलबंदी
बिहार की राजनीति का रंगमंच इस चुनावी मौसम में भोजपुरी लोकगीतों की मधुर धुनों से गूँज रहा है। मुजरे और नाच की प्रतिद्वंद्वी सुर-लहरियों के बीच! 2025 के विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और महागठबंधन दोनों ही मोर्चों पर पार्टियाँ मतदाताओं के दिलों को छूने के लिए आकर्षक गीतों का सहारा ले रही हैं। सांस्कृतिक जश्न भी; और राजनैतिक चतुराई भी! मनोज तिवारी, पवन सिंह, दिनेश लाल यादव निरहुआ और रवि किशन जैसे सितारे एनडीए के प्रचार को नई ऊर्जा दे रहे हैं, तो खेसारी लाल यादव महागठबंधन के संगीत अभियान की कमान सँभाले हुए हैं।
कहना न होगा कि भोजपुरी गीत बिहार की मिट्टी की साँस हैं। ये न सिर्फ मनोरंजन करते हैं, बल्कि सामाजिक संदेश भी देते हैं। चुनावी माहौल में इनका बोलबाला इसलिए भी है कि ये ग्रामीण मतदाताओं तक सीधे पहुँचते हैं। एनडीए का कैंपेन सॉन्ग हाँ, हम बिहारी हैं जी इसका बेहतरीन उदाहरण है। मनोज तिवारी की आवाज में यह गीत बिहार की सांस्कृतिक विरासत को सलाम करता है – नालंदा से लेकर कुँवर सिंह तक की गाथा।
एनडीए बनाम महागठबंधन: सुरों में सियासी जंग
यह प्रवासी बिहारियों की पीड़ा को छूता है, जो शहरों में कमरतोड़ मेहनत करते हैं, फिर भी अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं। पॉवर स्टार पवन सिंह भी इस बार एनडीए के साथ हैं और उनकी धुनें युवाओं को लुभा रही हैं। निरहुआ के गीतों में ग्रामीण जीवन की सादगी झलकती है, जो मतदाताओं को विकास की बातें सरल शब्दों में समझाती है। रवि किशन अपनी ऊर्जावान प्रस्तुतियों से रैलियों को संगीतमय बना देते हैं। सयाने बता रहे हैं कि ये सितारे न सिर्फ भीड़ खींचते हैं, बल्कि एनडीए की एकजुटता का प्रतीक भी हैं – भाजपा, जदयू, लोजपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा सबके लिए एक सुर!
दूसरी ओर, महागठबंधन का संगीत अभियान तेजस्वी यादव को केंद्र में रखता है। खेसारी लाल यादव की अगुवाई में ये गाने आरजेडी, कांग्रेस, वीआईपी और वाम दलों की एकता को रेखांकित करते हैं। उनका सॉन्ग तेजस्वी को बिहारी शेर बताता है, जो नाविक बनकर बिहार को पार लगाएँगे। इसमें माई-बहिन मान योजना, युवाओं के लिए रोजगार, 200 यूनिट मुफ्त बिजली और 1500 रुपये पेंशन जैसे वादे गूँजते हैं। खेसारी की लोकप्रियता ग्रामीण अंचलों में जबरदस्त है। उनके गाने न सिर्फ मनोरंजक हैं, बल्कि सामाजिक न्याय की पुकार भी बुलंद करते हैं।
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संगीत और राजनीति का संगम: मतदाता बनें सजग
इसी तरह, प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी भी रोजी-रोजगार चाहत हैं नया बिहार जैसे गीतों से युवाओं को ललकार रही है। यह दर्शाता है कि भोजपुरी गीत-संगीत अब सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि राजनीतिक टूल है। कहना न होगा कि प्रतिद्वंद्वी भोजपुरी गीतों की यह जुगलबंदी लोकतंत्र को समावेशी बनाती है। पारंपरिक भाषणबाज़ी से ऊब चुके गरीब, किसान और प्रवासी मतदाता इन धुनों से जुड़ते हैं।
ये गाने विकास, जाति और पहचान के मुद्दों को लोकप्रिय बनाते हैं। महिलाओं और पिछड़ों को सशक्तिकरण का संदेश भी देते हैं – जैसे मैथिली ठाकुर की प्रस्तुतियाँ। लेकिन ये संगीतमय अभियान विवादों से भी अछूते नहीं। हाल ही में उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी के नचनिया वाले बयान पर हंगामा मचा। मनोज तिवारी ने इसका बचाव किया। कहा कि कलाकारों का सम्मान एनडीए की परंपरा है। यह घटना दर्शाती है कि सांस्कृतिक हथियार राजनीति में कितना संवेदनशील हो जाता है! कइयों को कई सारे गाने अश्लील प्रतीत होते हैं। जातिवादी और उत्तेजक!
सवाल यह भी उठता है कि कहीं ये तमाम धुनें मुद्दों से भटकाव तो नहीं पैदा कर रहीं! बिहार की समस्याएँ गंभीर हैं – बेरोजगारी, प्रवासन, बाढ़ और शिक्षा। गीत इनका समाधान सुझाते हैं, लेकिन सतही! अतः लोक संस्कृति का यह मेल बिहार को एक नई पहचान अवश्य दे रहा है, जहाँ राजनीति मनोरंजन से जुड़कर जीवंत हो रही है। लेकिन मतदाताओं को सतर्क रहना होगा। धुनों के जाल में न फँसकर वायदों की पड़ताल करनी होगी। आख़िर, बिहार का भविष्य किसी चुनावी राग से नहीं, बल्कि मजबूत नीतियों से ही तय होगा।
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