महू दुष्कर्म : नारी तुम केवल असुरक्षित हो!


अभी कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज के बलात्कार और हत्याकांड की लपटें शांत नहीं हुई हैं कि मध्यप्रदेश के महू में सामूहिक बलात्कार की हालिया घटना ने जैसे एक और विस्फोट कर दिया है। कभी-कभी क्या ऐसा नहीं लगता कि हर दिशा में स्त्रियों की अस्मत के चीथड़े उड़ रहे हैं और मातृ शक्ति की पूजा का पाखंड करने वाला देश आँख-कान-मुँह बंद किए क्षीर सागर में सो रहा है?

महू कांड इसलिए और भी भयावह है कि यह जघन्य अपराध उस क्षेत्र में हुआ, जो अपनी सैन्य उपस्थिति के लिए जाना जाता है। इससे सार्वजनिक सुरक्षा के बारे में चिंता बढ़नी स्वाभाविक है। पीड़िता की यह मार्मिक अपील कि- या तो आरोपी को गोली मार दो या मुझे गोली मार दो- उस गहरे आघात और असहायता की भावना को उजागर करती है जो अब समुदाय में व्याप्त है। यह मामला शासन, महिलाओं की सुरक्षा और कानून प्रवर्तन की प्रभावशीलता के बारे में महत्वपूर्ण सवालों को सामने लाता है। क्या यह कल्पनातीत नहीं है कि आरोपियों ने 2 सैन्यकर्मियों और उनकी महिला मित्रों को घेरकर उनमें से एक महिला के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया? क्या यौन हिंसा का यह त्रासद मामला स्थानीय सैन्य समुदाय और कानून प्रवर्तन की क्षमता पर बड़ा सवालिया निशान नहीं है? कहना न होगा कि पीड़िता की पीड़ा और सार्वजनिक बयान ने राज्य की न्याय प्रदान करने की क्षमता में विश्वास के टूटने को उजागर किया है। तत्काल प्रतिशोध के लिए उसका आह्वान कई लोगों द्वारा महसूस की गई हताशा को दर्शाता है। क्या ऐसे अपराध भारतीय समाज के जंगल राज में प्रवेश के प्रतीक नहीं माने जाने चाहिए? राज्य कोई-सा भी हो या सरकार किसी की भी हो, स्त्रियाँ शायद ही कहीं सुरक्षित और आश्वस्त महसूस करने की स्थिति में हों!

अब यह कोई लुकी-छिपी बात नहीं है कि महू बलात्कार का मामला इस तरह का कोई अकेला मामला नहीं है; बल्कि, यह एक बड़े चलन का हिस्सा लगता है, जो शासन और पुलिस व्यवस्था में व्यवस्थागत ख़ामियों की ओर इशारा करता है। महत्वपूर्ण सैन्य उपस्थिति वाले क्षेत्रों में भी इस तरह के हमलों को रोकने में प्रशासन की विफलता चिंता का विषय है। ऐसी ही स्थितियाँ तो समाज को अंधे बुलडोज़री न्याय की दिशा में धकेलती हैं न!

महू कांड ने 2015 में मध्यप्रदेश के कजलीगढ़ किले में 45 महिलाओं के साथ हुए कथित सामूहिक बलात्कार की दुःखद यादों को भी ताज़ा कर दिया है। अतीत की डरावनी कहानियों की इन स्मृतियों का इस तरह जागना, महिलाओं की सुरक्षा और न्याय प्रदान करने की राज्य की क्षमता के बारे में चिंता को और गहरा करता है। सार्वजनिक सुरक्षा, विशेष रूप से महिलाओं के लिए, एक सर्वोपरि मुद्दा बन गई है, और प्रशासन की इससे प्रभावी ढंग से निपटने की स्पष्ट अक्षमता समाज में व्यापक बेचैनी का कारण बन रही है।

तात्कालिक अपराध से परे, ऐसी घटनाएँ बड़े सामाजिक मुद्दों की ओर इशारा करती हैं। दुर्भाग्य कि भारतीय समाज के अधिकांश हिस्सों में व्याप्त पितृसत्तात्मक रूढ़ियाँ महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को बढ़ावा देती हैं और उसके जारी रहने को वैधता प्रदान करती हैं। यही नहीं, न्याय की धीमी गति और प्रािढया के दौरान पीड़ितों को होने वाला संताप अक्सर दूसरों को अपराध की रिपोर्ट करने या मदद माँगने से रोकता है।

अत सरकार को इस बिगड़ती कानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। लोगों का भरोसा बहाल करने के लिए स़िर्फ आरोपियों की गिरफ़्तारी ही क़ाफी नहीं है। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए पुलिसिंग और कानूनी ढाँचे में व्यापक सुधारों के साथ-साथ तेज़ और पारदर्शी न्याय की ज़रूरत है। महिलाओं की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और इसके लिए स़िर्फ प्रतिािढयात्मक उपायों से ज़्यादा की ज़रूरत है। इसके लिए सािढय शासन की ज़रूरत है, जो तात्कालिक खतरों और ऐसी हिंसा को जन्म देने वाली सामाजिक स्थितियों, दोनों से दृढ़ता से निपट सके।

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