मुर्शिदाबाद के दंगों पर ममता की हैरान करने वाली हरकतें!

ममता बनर्जी एक साल बाद होने जा रहे विधानसभा चुनावों में भला मुस्लिम मतदाताओं को नाराज करने की जहमत कैसे उठा सकती थीं? इसलिए उन्होंने न केवल वक्फ कानून के बाद पूरे देश में हो गई तनावपूर्ण स्थिति से कोई संज्ञान नहीं लिया बल्कि पुलिस प्रशासन ने तो अपनी तरफ से यह संदेश देने की भी कोशिश की कि दंगे होने पर पुलिस न्यूनतम बल का इस्तेमाल करेगी। ये सारी स्थितियां इस बात का सबूत हैं कि मुर्शिदाबाद के दंगों को न तो ईमानदारी से नियंत्रित किया गया और न कोई ऐसी मंशा जतायी गई? यह स्थिति भयावह है। ममता बनर्जी बंगाल विधानसभा पर कब्जा बनाये रखने के लिए जिस तरह की सियासी हरकतें कर रही हैं, उससे देश का लोकतंत्र उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।

मुर्शिदाबाद में दंगों के बाद शांति कायम करने की जगह इमामों की बैठक बुलाना, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की महज भाजपा के खिलाफ नफरतभरी राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं थी, यह एक तरह से बहुसंख्यक हिंदुओं के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसी प्रतिक्रिया थी। भला कोई कैसे यह स्वीकार कर सकता है कि जब बहुसंख्यक हिंदू समुदाय इस कदर डरा हो कि घरों से भागकर स्कूलों और अस्पतालों में शरण लिए हुए हो, उस समय ममता बनर्जी शांति कायम करने के लिए उनके बीच जाने की बजाय इमामों के साथ विचार-विमर्श करें?

ममता की निपटता या मुस्लिम वोट बैंक की सियासत?

उनके एक मंत्री ने तो मीडिया द्वारा हिंदुओं के गांवों से पलायन पर यह तक कह दिया कि पलायन कोई प्रदेश से बाहर थोड़े हुआ है। आखिरकार मुर्शिदाबाद के कुछ गांवों से लोग पश्चिम बंगाल में ही तो दूसरी जगह गये हैं। मुर्शिदाबाद में जो कुछ हुआ है, उसकी अब धीरे-धीरे परतें खुलकर सामने आ रही हैं और उनका खुलासा न सिर्फ लोगों को दहशत से भर रहा है बल्कि यह सोचने पर भी मजबूर कर रहा है कि ममता बनर्जी मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए किस हद तक राज्य की कानून और व्यवस्था से जोखिम का खिलवाड़ कर सकती हैं?

ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में पिछले 14 सालों से मुख्यमंत्री हैं, इसके बाद भी वह दंगों के लिए अमूर्त रूप से केंद्र सरकार और बांग्लादेश की तरफ अंगुली उठाती हैं, जबकि जिस भी मीडिया ने मौके से ईमानदार रिपोर्टिंग की है, वह हालात देखकर हतप्रभ रह गया कि किस तरह यह दंगा सरकार और प्रशासन की न सिर्फ लापरवाही बल्कि अप्रत्यक्ष निष्क्रियता का नतीजा था। मगर बंगाल में टीएमसी की सरकार और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसे साजिश बताने में लगी रहीं।

जबकि अगर प्रशासन ईमानदार और संवेदशील होता तो दंगे हर हालात में रोके जा सकते थे। यह तो शुक्र मनाइये कि दंगे सिर्फ एक सीमित इलाके तक ही सिमटे रहे वर्ना जिस तरह से दंगाईयों ने बेफ्रिक होकर चुन -चुनकर हिंदुओं के घरों को जलाया और न सिर्फ धारदार हथियार से की गई हत्याओं को फिल्माया गया बल्कि उसे बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया में भी वायरल किया गया, जो एक तरह दहशत को बड़े पैमाने पर फैलाने की कोशिश थी।

मुर्शिदाबाद में महिला आयोग की अध्यक्ष निशब्द

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष विजया रहाटकर मौके का दौरा करके जिस मनस्थिति में पहुंच गईं, वैसा बहुत कम होता है। जब मीडिया के लोगों ने राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा से पीड़ित महिलाओं से मिलने के बाद उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उनके जुबान से कोई शब्द नहीं निकला, बाद में वह बोलीं कि मैंने मुर्शिदाबाद में पीड़ित महिलाओं की जो स्थिति देखी है, वह परेशान करने वाली है।

मेरे लिए उनकी प्रतिक्रिया को शब्द देना मुश्किल है, मैंने अपने जीवन में इतना दर्द पहले कभी नहीं देखा और जो कुछ देखा है, उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, मैं निशब्द हूं। मुर्शिदाबाद में राजनीतिक रूप से सिर्फ तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस की ही मौजूदगी है। इसके बावजूद ममता बनर्जी पूरी कोशिश कर रही हैं कि दंगे की साजिश का आरोप भाजपा या केंद्र सरकार पर मढ़ दिया जाए।

जब इस पर उनका दावा कुछ कमजोर लगने लगा तो उन्होंने बांग्लादेशी कट्टरपंथी संगठनों और बीएसएफ की तरफ अंगुली उठाने की कोशिश की। जबकि उन्होंने खुद मौके पर जाकर शांति कायम करने की कोशिश नहीं की। बार-बार सिर्फ यही कहती रहीं कि मैं और मेरा राज्य वक्फ कानून को नहीं मानता। यह कैसी दलील है?

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क्या यह दंगा नहीं, नियोजित जनसंहार था?

जब कोई कानून संसद में पास होता है और राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर कर देते हैं तो किसी राज्य को न चाहते हुए भी यह हक कौन देता है कि वह उस कानून को नहीं मानेगा और सार्वजनिक रूप से यह कहना कि वह इस कानून को नहीं मानती, क्या यह दंगाईयों को उकसाने जैसा नहीं था? वास्तव में मुर्शिदाबाद में जो कुछ हुआ, वह दंगा नहीं बल्कि एक समुदाय द्वारा पूरी तैयारी के साथ दूसरे समुदाय के जनसंहार की कोशिश थी।

अगर ऐसा न होकर यह स्वाभाविक दंगा होता तो दोनों तरफ से दंगें की कोशिशें होतीं। ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही समुदाय की सौ फीसदी दुकानें जलायी जाएं, एक ही समुदाय को सौ फीसदी घरों से भगाने और पलायन करने के लिए मजबूर किया जाए, फिर भी पुलिस यह कहे कि वह पूरी ताकत से पुलिस बल का इस्तेमाल नहीं करेगी बल्कि न्यूनतम बल का प्रयोग किया जायेगा।

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आखिर आप किसे संदेश दे रहे थे, यह दंगाईयों को प्रोत्साहित करने जैसा था? जब पुलिस प्रशासन को धीमी गति से चलने के लिए निर्देश देता है तो पुलिस वाहन टूट जाते हैं, अधिकारी घायल हो जाते हैं। अगर वास्तव में मुर्शिदाबाद के दंगों पर पुलिस और प्रशासन ने ईमानदारी से दृढ़ता दिखायी होती तो यह स्थिति ही नहीं बनती।

मुर्शिदाबाद दंगों में पुलिस की निष्क्रियता क्यों?

यह तो देश का सौभाग्य कहिए कि हिंसा मुर्शिदाबाद और मालदा जिलों तक ही सीमित रही, पुलिस के न्यूनतम बल के इस्तेमाल के बावजूद तीन चार दिनों में दंगे नियंत्रित हो गये वर्ना ऐसी राजनीतिक और सामरिक विफलता शायद ही पहले किसी राज्य के इतिहास का हिस्सा बनी हो। जबकि पुलिस के पास न सिर्फ सतर्क रहने की वजह थी बल्कि पूरा समय था।

देश में दंगों के अनुकूल माहौल था और पहले से ही आशंका थी कि पावार की नमाज के बाद एक उत्तेजित समुदाय हिंसा की हरकतों पर उतारू हो सकता है। बावूजद इसके बंगाल में और उसमें भी उस मुर्शिदाबाद में जिसे लेकर सबसे ज्यादा आशंका थी, पुलिस किसी अदृश्य इशारे की बिना पर अगर निष्क्रिय नहीं भी रही तो भी उसका निष्क्रिय जैसा व्यवहार रहा।

नतीजा यह निकला कि थोड़े से लोगों ने भी कई गांवों के अल्पसंख्यकों को वहां से भागने के लिए मजबूर कर दिया।अगर देश के दूसरे हिस्सों की तरह वक्फ कानून बनने के बाद पश्चिम बंगाल की पुलिस और प्रशासन मुस्तैद होते, तो जैसे देश के दूसरे हिस्से में दंगे नहीं हुए, वैसे ही बंगाल में भी दंगा नहीं होता।

वक्फ कानून के बाद भी बंगाल में क्यों हुए दंगे?

अगर ममता बनर्जी यह कहती हैं कि उनकी सरकार को ऐसी किसी साजिश की आशंका नहीं थी, तो फिर उनका खुफिया विभाग क्या कर रहा था? जब पूरे देश में सनसनी थी कि 11,12 अप्रैल 2025 को प्रतिक्रिया के नाम पर कई जगह पर दंगे हो सकते हैं और पुलिस के मुस्तैदी के चलते ये नहीं हुए तो फिर ममता बनर्जी की सरकार को आखिर क्यों ऐसा लग रहा था कि कुछ नहीं होगा? जब किसी वक्त विशेष में माहौल तनावभरा हो तो उसे नियंत्रित करना आसान होता है।

1992 में बाबरी मस्जिद मुद्दे पर पूरे देश में तनाव था और 6 दिसंबर के बाद पूरे देश को हाई अलर्ट पर रखा गया था, तब भी कोलकाता के हावड़ा इलाके में बेहद तनावपूर्ण स्थितियां थी, लेकिन तत्कालीन वामपंथी सरकार ने ऐसे मौके पर राजनीति नहीं की बल्कि हर हालात में कानून और व्यवस्था को बनाये रखने की कोशिश की। नतीजतन दंगे होने से बच गये।

लेकिन ममता बनर्जी एक साल बाद होने जा रहे विधानसभा चुनावों में भला मुस्लिम मतदाताओं को नाराज करने की जहमत कैसे उठा सकती थीं? इसलिए उन्होंने न केवल वक्फ कानून के बाद पूरे देश में हो गई तनावपूर्ण स्थिति से कोई संज्ञान नहीं लिया बल्कि पुलिस प्रशासन ने तो अपनी तरफ से यह संदेश देने की भी कोशिश की कि दंगे होने पर पुलिस न्यूनतम बल का इस्तेमाल करेगी।

ये सारी स्थितियां इस बात का सबूत हैं कि मुर्शिदाबाद के दंगों को न तो ईमानदारी से नियंत्रित किया गया और न कोई ऐसी मंशा जतायी गई? यह स्थिति भयावह है। ममता बनर्जी बंगाल विधानसभा पर कब्जा बनाये रखने के लिए जिस तरह की सियासी हरकतें कर रही हैं, उससे देश का लोकतंत्र उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।

-वीना गौतम

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