आत्मपीड़न बनाम यौन उत्पीड़न

अन्ना विश्वविद्यालय, चेन्नै में एक छात्रा के यौन उत्पीड़न की घोर निंदनीय घटना ने तमिलनाडु में न केवल इस अपराध की के कारण बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेप और कानून व्यवस्था की ख़ामियों को लेकर भी रोष पैदा किया । भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के तमिलनाडु प्रमुख के. अन्नामलै ने पीड़िता के दर्द और अपमान का प्रतीकात्मक प्रदर्शन करते हुए, नंगे पैर चलकर और खुद को कोड़े मारकर विरोध किया। आत्मपीड़न का उनका यह कृत्य शायद सार्वजनिक जीवन में सक्रिय उन तमाम लोगों के प्रायश्चित का भी प्रतीक है, जो ऐसे दुष्कर्मों को रोक पाने में विफलता के लिए व्यवस्था और स्वयं को ज़िम्मेदार मानते हैं! बेशक, इस प्रदर्शन ने मीडिया का व्यापक ध्यान आकर्षित किया, पर सवाल यह भी खड़ा किया कि यह निरा राजनीतिक प्रतीकवाद है या पीड़िता के लिए सच्ची वकालत?

दुष्कर्म की इस घटना ने उजागर किया है कि कैंपस सुरक्षा सुनिश्चित करने में विश्वविद्यालय प्रशासन कितनी बुरी तरह विफल रहा। मद्रास उच्च न्यायालय ने इस मामले में तमिलनाडु पुलिस की भी गंभीर ख़ामियों को लक्षित किया है। न्यायालय ने एफआईआर लीक करने के लिए पुलिस की आलोचना की, क्योंकि पुलिस की इस लापरवाही से पीड़िता की पहचान सार्वजनिक हो गई और उसकी पीड़ा बढ़ गई। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि इस मामले में पीड़िता को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए और सरकारी संस्थाओं व प्रशासन से पीड़िता के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने की अपील की।

दरअसल यह मामला कई तरह की संस्थागत विफलताओं को उजागर करता है। जैसे, कैंपस सुरक्षा में कमी, पीड़िता के प्रति असंवेदनशीलता और अपराधों को सनसनीखेज़ बनाने की प्रवृत्ति। जहाँ उच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने पर जोर दिया है कि जाँच प्रक्रिया पीड़िता को और अधिक नुकसान पहुँचाने का कारण न बने, वहीं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने भी नंगे पैर चलकर और खुद को कोड़े मारकर पीड़िता के साथ एकजुटता और व्यवस्था के प्रति रोष को ही अभिव्यक्त किया। लेकिन ऐसे नाटकीय प्रदर्शन से मुद्दे को राजनीतिक रंग मिलने के खतरे को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। समाज की जो सहानुभूति पीड़िता के साथ होनी चाहिए थी, कहीं उसकी दिशा को के. अन्नामलै चतुराई से अपनी ओर तो नहीं मोड़ रहे?

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इसमें संदेह नहीं कि विरोध प्रदर्शन ऐतिहासिक रूप से समाज में बदलाव लाने का प्रभावी माध्यम रहे हैं। महात्मा गांधी का दांडी मार्च या बाबा साहब अंबेडकर का महाड सत्याग्रह प्रणालीगत बदलाव लाने के उद्देश्य से किए गए थे। इसके विपरीत, अन्नामलै का खुद को कोड़े मारने वाला प्रदर्शन ध्यान खींचने वाला होते हुए भी, एक गंभीर मुद्दे को तमाशे में बदलने का खतरा पैदा करता है। ध्यान पीड़िता के लिए न्याय सुनिश्चित करने और संस्थानों को जवाबदेह ठहराने पर रहना चाहिए, न कि किसी व्यक्ति या पार्टी के राजनीतिक लाभ पर।

अन्नामलाई के प्रदर्शन को व्यापक मीडिया कवरेज मिलने से यह भी सवाल उठता है कि यौन हिंसा के मामलों में सनसनीखेज़ी की भूमिका क्या है? पीड़िता की आवाज़ को मुखर करने और प्रणालीगत सुधारों की माँग उठाने के बजाय, मीडिया नैरेटिव अक्सर राजनीतिक नाटकों में उलझ जाते हैं। इससे मुद्दे को हल्के में लिए जाने और कार्रवाई योग्य सुधारों से ध्यान हटने का जोखिम पैदा होता है।

सयाने बता रहे हैं कि गत दिनों कोलकाता के मेडिकल कॉलेज की भाँति अब चेन्नै के इंजीनियरिंग कॉलेज में भी दुष्कर्म की घटना और उसके बाद के राजनीतिक और न्यायिक घटनाक्रम यह दर्शाते हैं कि यौन हिंसा से निपटने के लिए बहु-आयामी दृष्टिकोण की ज़रूरत है। परिसर की, और उसमें भी छात्राओं की, सुरक्षा के प्रति लापरवाही के लिए ज़िम्मेदारी तय करनी ही होगी। कानूनी एजेंसियों को पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, गोपनीयता और तेज़ कार्रवाई सुनिश्चित करनी चाहिए। उच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ याद दिलाती हैं कि न्याय केवल अपराधियों को दंडित करने तक सीमित नहीं है, बल्कि ऐसा माहौल बनाना भी उसकी ज़िम्मेदारी है जिसमें पीड़ित सामने आने में सुरक्षित महसूस करें। इसी तरह, राजनीतिक दलों और नेताओं से भी नाटकीयता से ऊपर उठकर, ठोस सुधारों की वकालत पर ध्यान केंद्रित करने की ही उम्मीद की जानी चाहिए।

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