रेबा पाल ने रखा पटचित्र कला को जिंदा
रेबा पाल पिछले 50 वर्षों से पटचित्र कला को जिंदा रखे हुए हैं। यह वही पारंपरिक लोक कला है, जिसमें देवी-देवताओं, लोक-कथाओं और पौराणिक दृश्यों को कपड़े या कागज पर प्राकृतिक रंगों से उकेरा जाता है। उनके बनाए राधा-कृष्ण, दुर्गा, शिव-पार्वती जैसे चित्र सिर्फ कलाकृति नहीं, बल्कि संस्कृति के जीवित दस्तावेज हैं। सोलह साल की उम्र में उनकी शादी यष्टि पाल से हुई, जो एक कुशल कलाकार थे।
शादी के बाद उन्होंने अपने पति से यह कला सीखी और धीरे-धीरे इसमें महारत हासिल की। दोनों ने मिलकर अपने चार बच्चों का पालन-पोषण भी इसी कला से किया, लेकिन बीस साल पहले यष्टि का निधन हो गया। उस समय रेबा पाल पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा था। उनके जीवन में आर्थिक तंगी, जिम्मेदारियां और अकेलापन सब कुछ एक साथ आ गया था। चाहतीं तो वह कोई दूसरा काम कर सकती थीं, मगर उन्होंने अपने सपनों और संस्कारों को नहीं छोड़ा।

रेबा पाल : महिला सशक्तिकरण और रचनात्मकता की सच्ची मिसाल
रेबा के लिए पटचित्र सिर्फ कमाई का जरिया नहीं, बल्कि एक विरासत है। वह कहती हैं, ये कला मेरे जीवन का श्वास है। अगर मैं इसे छोड़ दूं तो लगता है, जैसे खुद को छोड़ दूं। वह आज भी अपने पुराने टूटे-फूटे घर में बैठकर रंग और ब्रश के सहारे जीवन की तस्वीरें बनाती हैं। उनके हाथ कांपते हैं, पर उनकी रेखाएं आज भी उतनी ही सटीक हैं जितनी वर्षों पहले थीं। त्योहारों के समय खासकर दुर्गा पूजा और दिवाली में बंगाल और ओडिशा में पटचित्र की बड़ी मांग होती है, लेकिन अफसोस इस परंपरा को आज बाजार में उतनी कीमत नहीं मिलती।

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आर्ट गैलरी और कलेक्टर इन चित्रों को ऊंचे दामों पर बेचते हैं, पर कलाकारों को उसका हिस्सा नहीं मिलता। रेबा पाल की कहानी सिर्फ एक कलाकार की नहीं, बल्कि महिला सशक्तिकरण की सच्ची मिसाल है। उन्होंने साबित किया कि कला और आत्मविश्वास किसी उम्र के मोहताज नहीं होते। एआई और डिजिटल आर्ट के इस दौर में जब पारंपरिक कलाएं धीरे-धीरे मिट रही हैं, रेबा पाल जैसी महिलाएं हमें यह याद दिलाती हैं कि असली रचनात्मकता वही है, जो दिल से निकले और परंपरा को जिंदा रखे। उनके बूढ़े हाथ भले ही कांपते हों, लेकिन उनमें एक पूरे युग की धड़कन समाई है।
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