नारी की रजस्वला स्थिति का करें सम्मान (प्रवचन)

सनातन धर्म की संस्कृति व परंपरा के रहस्य में मानव-विकास से भी अधिक आत्मा के उत्थान को महत्व दिया गया है। हमारी परंपराओं तथा रीति-रिवाजों को अंधविश्वासी, असभ्य, रूढ़िवादी करार देकर उनका तिरस्कार किया जाता रहा है। विभिन्न वर्गों में विभक्त समाज माना जाता है और स्त्रा जाति के प्रति हमारी मानसिकता को तुच्छ एवं नगण्य बताया जाता है, जबकि सनातन धर्म अध्यात्म से जुड़ा है।

इसमें मानव ही नहीं अपितु सृष्टि के पंचतत्वों की सुरक्षा व संवर्धन के प्रति आगाह किया गया है। सनातनियों का हर पर्व, हर परंपरा सृष्टि के कण-कण के प्रति कृतज्ञता अर्पित करती है। इसी श्रृंखला में प्रतिवर्ष आषाढ़ मास में आर्द्रा नक्षत्र के समय असम में स्थित कामाख्या मंदिर में तीन दिवसीय अंबुवाची पर्व मनाया जाता है।

मान्यता है कि इन दिनों पृथ्वी रजस्वला स्थिति में रहती है। जिस कारण कृषि-संबंधी कार्य निषेध माने गये हैं। नदियों को भी रजस्वला मानकर स्नान करना निषेध होता है, मात्र गंगा नदी को छोड़कर। इस पर्व के पश्चात ही कृषि संबंधी प्रक्रिया अपनाई जाती है।

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जिस धर्म में पृथ्वी को नारी समान रजस्वला मानते हुए, पृथ्वी की उर्वरता को बनाए रखने के उद्देश्य से परंपराओं का पालन किया जाता है, वह स्त्रा की रजस्वला स्थिति को हेय मानकर घृणा की दृष्टि से देखता हो, यह सोचनीय है। हमारे धर्म ग्रंथों में रजस्वला (मासिक धर्म) के संबंध में भी बहुत ही सूक्ष्म विवेचना की गयी है। इसे स्त्रा की प्रजनन क्षमता का द्योतक माना गया है, जिसके मूल में संतानोत्पत्ति हो, उसे हेय दृष्टि से देखा जाना हास्यास्पद लगता है। वास्तव में वर्तमान युग में चली आ रही धारणाएं भ्रामक हैं, जो कलुषित मनों की उपज हैं।

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स्वच्छता से लेकर सम्मान तक: रजस्वला परंपरा का सामाजिक पहलू

हिंदू धर्म में मासिक धर्म के प्रति दृष्टिकोण अलग-अलग हैं। कुछ हिंदू समाजों में मासिक धर्म के रक्त को अशुद्धता का प्रतीक माना जाता है, जिसके कारण इस अवस्था में महिलाओं पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए हैं, जैसे- मंदिरों में प्रवेश निषेध, धार्मिक समारोहों में उपस्थिति पर प्रतिबंध आदि।

वास्तव में इन सबके पीछे स्त्रा का शारीरिक स्वास्थ्य और उसके मन की पवित्रता को बनाए रखना है। मासिक धर्म के दौरान शरीर से अशुद्ध रक्त बहता है, जिस दौरान पांमण और रोगों से बचने के लिए बेहतर स्वच्छता की आवश्यकता होती है। प्राचीन काल में स्वच्छता बनाए रखने के लिए साधनों का अभाव था, इसलिए एकांतवास की व्यवस्था अपनाई गई, लेकिन समय के साथ उस व्यवस्था का मूल रूप ही नदारद हो गया और उसके स्थान पर छुआछूत जैसी अमानवीय व्यवस्था ने समाज में अपनी जड़ें गहराई तक जमा ली हैं।

आज स्वच्छता बनाए रखने और पांमण की संभावना को कम करने के लिए कई तरीके मौजूद हैं। अन्य विचारधारा के अनुसार, एकांतवास की व्यवस्था महिलाओं को शारीरिक एवं मासिक आराम देने का माध्यम है।

देश के कुछ हिस्सों को छोड़कर शेष भाग में आज भी कन्या के रजस्वला स्वरूप के सम्मान में रजोत्सव या ऋतु उत्सव मनाया जाता है। वैसे यह विषय बहुत विस्तृत है। इसलिए मैं पाठकों से इतना भर कहना चाहता हूँ कि नारी की इस अवस्था को छुआछूत जैसी घृणित दृष्टि से नहीं बल्कि एक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करते हुए, उसके प्रति सम्मानित भाव रखना चाहिए।

पवन गुरू

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