सब ‘बहादुर’ नहीं होते

(ममता कालिया)

उसका पति शिरीष उत्तरप्रदेश सरकार में एक विकास प्राधिकरण में उच्च पद का अफसर था। जब उनकी शादी हुई, तभी ये खबरें मिलने लगी थीं कि शिरीष गुप्ता कितना व्यस्त रहता है। दफ्तर की ज़िम्मेदारी उसके कंधों पर है, मुख्यमंत्री के सब प्रस्ताव उसे पूरे करने रहते हैं, आए दिन वह देश-विदेश के दौरों पर रहता है। किसी तरह उसने शादी के लिए एक महीने की छुट्टी जुटाई है।

इस तरह नंदा उसकी परिणीता बनकर लखनऊ के इस बड़े बँगले में आई। शादी की गहमागहमी के बाद भी तीन हफ्ते बचे थे। शिरीष ने कहा, चलो, घूमने चलते हैं। यहाँ दफ्तर वाले पीछा नहीं छोड़ेंगे। और कुछ नहीं तो बधाई देने ही आते रहेंगे। हनीमून हर लड़की को रातोंरात प्रेम सिखा डालता है। चाहे जैसी जोड़ी हो, पहाड़ पर जाकर अपने को जुगल-जोड़ी समझती है, हाथ में हाथ डाले घूमती है, खाना खाते हुए एक-दूसरे के मुँह में कौर डालती है, मोबाइल से तसवीरें उतारती है और सही समय पर वापस मैदानी इलाके में आकर अपना घर जमाती है।

यह सब हुआ। शिरीष वापस दफ्तर जाने लगा। घर में पुराना सेवक मनमोहन रसोई का काम सँभालता था।
नंदा ने पाया, इस घर में उसे माँ-बाप के घर से ज्यादा सुभीता है। जब उसका मूड होता, वह आवाज लगा देती-मनमोहन, एक कॉफी बना दो। मनमोहन, मेरे कपड़े इस्त्रा कर दो। मनमोहन के नाम की गूंज घर में होती रहती थी। शिरीष का यह हाल था कि दफ्तर में वह डबल इंजन की सरकार के लिए रफ्तार से काम करता। फिर भी शाम के सात बज जाते। कई बार नंदा उसके लिए मनमोहन के हाथों शाम की चाय दफ्तर भेज देती, तब उसे ख्याल आता कि बहुत देर हो गई है। अन्य कमरे खाली हो जाते, उसके विभाग में सब काम करते मिलते। वह कुर्सी से उठता। दफ्तर में चाय नहीं पीता, बल्कि चाय के थर्मस सहित घर लौट आता। निढाल काउच पर पसर जाता, ओफ! बड़ा भारी दिन रहा आज। मंत्रीजी को सारे काम आज ही याद आते गए।

नंदा मनमोहन से कहती, थर्मस वाली चाय तुम पी लो। हम लोगों के लिए ताजी चाय बना दो। साथ में साहब के लिए दो टोस्ट सेंक देना। चाय की ट्रे में टोस्ट देखकर शिरीष भड़क जाता। तुम्हें पता है, नौ घंटे से बँधा हुआ बैठा हूँ। बाथरूम तक नहीं गया। यह क्या मुँह में टोस्ट ठूँसने का वक्त है? वह तौलिया और मोबाइल लेकर वॉशरूम में घुस जाता है और आधे घंटे बाद तारोताजा होकर बाहर निकलता है। शाम की चाय पानी हो जाती है।

नंदा सहमी हुई आवाज लगाती, मनमोहन, साहब के लिए फिर से चाय बना दो। शिरीष कहता, नंदा, तुम्हें बेसिक समझ नहीं है। रात के नौ बजे कहीं चाय पी जाती है? तब तक मनमोहन ट्रे में चमचमाता गिलास, बर्फ की बाल्टी और सलाद एवं नमकीन की प्लेट लेकर प्रकट होता है। शिरीष का चेहरा खिल जाता है, लेकिन नंदा का बुझ जाता है। उसे लगता है, घर को उसकी उतनी ज़रूरत नहीं है, जितनी मनमोहन की। वह साहब के इशारे समझता है।

शिरीष मूलत एक बेचैन आत्मा था। वह हमेशा व्यग्रता से घिरा रहता। अगर नंदा किसी बात पर नौकर से बहस में पड़ती, तो वह किचकिचाता, ये बातें मेरी मौजूदगी में मत किया करो। मैं थोड़े से घंटे घर में रहता हूँ। मुझे गति से जीना पसंद है। शिरीष स्टीरियो पर गाना लगा देता। वह करीम से सामिष भोजन का ऑर्डर दे देता। घर का शाकाहारी खाना फ्रिज का अटाला बढ़ाता।

मनमोहन भाग-भागकर सब काम करता। नंदा पहले अपने को अपमानित और ठगा हुआ समझती थी। जल्द ही वह पहचान गई कि ये हरकतें शिरीष को विजेता भाव देती हैं। उसे लगता है, वह घर का सही संचालन कर रहा है। कभी वह प्रेमवाश पति से कहती, सारा काम अपने कंधों पर क्यों से लेते हो? कुछ दूसरों को भी करने दिया करो।

शिरीष सगर्व बताता, मेरे सेक्शन में सत्ताईस लोग मेरे नीचे काम करते हैं, पर अक्ल अंदर 27 प्रतिशत भी नहीं है। इसीलिए मुझे हर डिटेल पर ध्यान देना पड़ता है। नंदा भी पति-दंभ में फूली नहीं समाती। प्यार-मुहब्बत की न्यूनता को वह गर्व की गुरुता में शिफ्ट कर लेती। वह भी मंडली में शान मारती, मेरे पति के बिना तो सरकार में पत्ता भी नहीं हिलता। सभी के पति उच्चाधिकारी थे। वे नंदा का बचकानापन नज़रअंदाज़ कर देतीं।

एक दिन शिरीष शाम को अपने संगीत कक्ष में बैठा पुराने फिल्मी गाने सुन रहा था, उसे एक गाना सुनाई पड़ा- मनमोहना बड़े झूठे, हार के हार नहीं मानी। गाना अच्छा था, पर शिरीष को खटक गया। उसे लगा, मनमोहन एक रोमांटिक नाम है। सारा दिन उसकी पत्नी नौकर को मनमोहन पुकारती है, यह सही नहीं है। क्या किया जाए? उसने नंदा को बुलाया। पास बिठाकर समझाया, मुझे लगता है, लड़के का नाम बहुत लंबा है। सारे दिन तुम्हें पुकारना पड़ता है मनमोहन। ऐसा करें, इसका नाम थोड़ा कट कर देते हैं। क्या करूँ, सब काम उसी से लेने होते हैं। सिर्फ मोहन। ठीक है न!

पहले उससे पूछ लो। सेवक से क्या पूछना। हमने कह दिया तो हो गया। अरे दफ्तर में मैं एक आदेश से हजारों पेड़ कटवा देता हूँ। क्या मैं एक नाम को काटकर छोटा नहीं कर सकता? देखो, मैं आवाज लगाता हूँ- मोहन, मोहन। मोहन कंधे पर पड़े गमछे में हाथ पोंछता हुआ आया, साहब, आपने बुलाया? हाँ, जरा यह खिड़की बंद कर दो। धीरे-धीरे इस घर में उसे सब लोग मोहन कहने लगे। मनमोहन को कोई खास फर्क नहीं पड़ा। गाँव में उसे पूरे नाम से बहुत कम लोग बुलाते थे। मोहना, मोनू और मुन्नू कहकर काम चलाते। नंदा घूमने की शौकीन थी।

अधिकारी परिवारों का क्लब था- हेलो लेडीज। वह उसकी सदस्य बन गई। उसे कविता, कहानी लिखने का शौक था, जो शादी के बाद मद्धम पड़ गया था। इधर उसने गर्भ धारण किया, उधर शिरीष की दफ्तर में व्यस्तता बढ़ी। नंदा वापस अपनी डायरी और लिखने की कॉपी में व्यस्त हो गई। उसे मुद्रित पत्रिकाओं की ज्यादा जानकारी नहीं थी। वह कोई कविता या लघुकथा लिखती तो अपनी फेसबुक वॉल पर डाल देती। तत्काल पचास-साठ लाइक और कमेंट आ जाते। उसके उत्साह में वृद्धि होती। कुछ कमेंट उसकी डीपी पर भी होते। उसने अपने कॉलेज के दिनों की तस्वीर डीपी में लगाई थी। सहेलियों ने बताया था, तस्वीर हमेशा पुरानी ही ठीक रहती है। पहचान का संकट नहीं रहता। इस बीच बड़ा दस-पंद्रह किलो वजन भी बेलेंस हो जाता है।

गर्भावस्था में वजन तेजी से बढ़ रहा था। शिथिलता भी। वह स्वर खींचकर आवाज लगाती- मोहन, ज़रा गीजर ऑन कर दो। मोहन, ज़रा मेरे कपड़े बाथरूम में रख दो। मोहन, नाश्ते में प्याज-बेसन का परौंठा बनाना। मिर्च बिल्कुल न डालना। शिरीष ने एक शाम गौर किया। वह पत्नी की आवाज की सांगीतिक लय से क्षुब्ध हुआ। क्या सेवक का नाम इतनी कोमलता से पुकारा जाता है। उसने कहा, मोहन बड़ा गलत नाम है। इससे अच्छा है, हम सेवक को बहादुर बोलाया करें। रोज-रोज नाम बदलने में क्या तुक है? नंदा ने एतराज़ किया।

तुम्हें मोहन नाम अच्छा लगने लगा है क्या? अच्छा क्या, बुरा क्या, नाम तो नाम है। हमारा ही नाम कोई रोज बदले तो हमें कैसा लगेगा। तुम मूर्ख हो! हम मोहन को बहादुर कहा करेंगे। सारे मुल्क में चौकीदार और सेवक बहादुर ही कहलाते हैं। नंदा को लगा, शिरीष न केवल सनकी होता जा रहा है, थोड़ा तानाशाह भी। जो वह कहे, वही मानने के लिए सब लोग बाध्य हैं। उसे यह आभास भी हुआ कि शिरीष को मोहन की मौजूदगी नागवार लग रही है। कई बार वह उसे बेबात झिड़क देता, अपनी जगह पर जाकर बैठो, कमरे में क्या कर रहे हो?

पति से उलझना बेकार था। वह अपनी बात कहकर फाइल बंद कर देता जैसे, आगे सुनवाई नहीं।
घर में एक बच्चा भी आ गया, मगर शिरीष का स्वभाव वैसा ही रहा। थक-हारकर नंदा अपनी सब शिकायतें अपने लेखन में ले गई। यहाँ उसने देखा, कच्ची-पक्की बातों के लिए बुलंद दरवाजा था। यहीं कुछ पत्रिकाओं और अखबारों के संपर्क-सूत्र मिल गए, जहाँ वह अपनी रचनाएँ भेजने लगी।

दोस्तियाँ बढ़ीं। अब हेलो लेडीज क्लब की सदस्याएँ उसे बोर लगने लगीं। लिखने ने साहस भी सिखाया। अपने सच को किरदार का सच बना दो। किरदार की कल्पना अपने जीवन में ले आओ। अब वह शिरीष की गैर-मौजूदगी में बहादुर को मोहन कहने लगी। अपने नए दोस्तों को दोपहर में घर बुलाने लगी और खुद भी कहीं जाती तो साढ़े पाँच से पहले घर लौट आती।

बेटा प्रखर दो साल का होने जा रहा था। नाम के अनुरूप वह चपल, चंचल और चतुर था। वह सवा साल की उम्र से ही बोलने लगा। वह नंदा को मम्मा कहता, शिरीष को डैड, और बहादुर को मूनभादुर। पहले कुछ दिन तो शिरीष ने गौर नहीं किया, एक दिन उसके कानों में शब्द पड़ा। मूनभादुर। उसने प्रखर को अपने पास बिठाकर पूछा, बेटू, आप बहादुर को क्या बोलते हैं? मूनभादुर। प्रखर ने तपाक से कहा।
यह नाम तुम कहाँ से सीखे? उसका नाम तो बहादुर है। नई मेरी मम्मा उसको मून बोलती।

शिरीष का माथा घूम गया। रात को डबलबैड पर चादर टेड़ी बिछी है, कहकर वह बहादुर पर नाराज हुआ और खड़े-खड़े उसे बाहर निकाल दिया। दफ्तर में ऊँचा पद होने के कारण सेवक मिलने में उसे खास परेशानी कभी नहीं हुई। बड़े बाबू ने इस बार अपने गाँव का एक पहाड़ी लड़का ला दिया। गोरे रंग और सुंदर नाक नवया का चौबीस साल का बालम आया तो था ड्राइवर की नौकरी के लिए, लेकिन बड़े बाबू ने समझाया, अभी ड्राइवर की कोई जगह खाली नहीं है। कुछ महीने बड़े साहब के यहाँ काम करो। खुश हो गए तो तुम्हारे लायक कोई-न-कोई जगह निकाल ही लेंगे।

शिरीष ने पहले ही समझा दिया, देखो, हमारे घर की रीति है कि हर सेवक को हम बहादुर नाम से बुलाते हैं। तुम इस नए नाम की आदत डाल लो तो अच्छा रहेगा। इस बात से बालम को तकलीफ हुई। जबसे उसने होश सँभाला, घर में उसने अपना नाम बालम ही सुना था। दर्जा आठ तक स्कूल में भी उसका नाम बालमसिंह लिखा हुआ था। उसके नाम से साहब को क्या एतराज़ हो सकता है। गाँव का भोला-भाला नौजवान बालम नामों के अर्थ, गूढ़ अर्थ और पेंचों से कतई अनजान था। मन मारकर उसने काम तो शुरू कर दिया, लेकिन उसका चित्त उखड़ा रहा।

जब उसे आवाज लगाई जाती, बहादुर चाय बनाओ। वह बैठा रहता। उसे यह चेत ही नहीं आता कि यह हुक्म उसके लिए है। घर में बहादुर की ज़रूरत हर काम के लिए थी। बिस्तर ठीक करने से लेकर रात को सिरहाने पानी का थर्मस और नींद की गोली रखने तक। कई बार शिरीष खीझकर रसोई में जाता, बहादुर, जब तुम्हें आवाज दें तो बोला करो, जी साहब आता हूँ।

बालम चुपचाप सुनता और सिर झुका लेता। नंदा उसे काम समझाती, आज क्या खाना बनेगा। वह रसोई के काम कर देता। लेकिन जब कहती बहादुर, प्रखर बाबा को बाहर घुमाने ले जाओ। तो वह बैठा रह जाता। उसे घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था। बच्चे को संभालने में भी उसे दिलचस्पी नहीं थी। वह रसोई के स्टूल पर बैठा अपने मोबाइल फोन में पहाड़ी गीत सुनता रहता।

अब तक जितने सेवक उनके यहाँ आए, सब फुर्तिले थे। वे साहब और मेमसाहब, दोनों को खुश रखना जानते थे। नंदा ने एक दिन कहा, सुनो, मुझे लगता है, यह बहादुर कुछ ऊँचा सुनता है। जल्दी उठकर आता नहीं है। ऐसे कैसे काम चलेगा। बेबी से भी कभी नहीं खेलता। शिरीष ने कहा, दरअसल, जो पहली बार पहाड़ से मैदान में आते हैं, उन्हें एडजस्ट करने में काफी परेशानी होती है। नंदा बोली, मन तो उसे खुद ही लगाना पड़ेगा। हम क्या कर सकते हैं?

शिरीष ने पैंतरा बदला, पिछले छ महीनों में हमारे यहाँ तीन सेवक बदले गए। लोग यही कहते हैं कि गुप्ताजी की पत्नी बहुत तेज मिजाज की है। इसीलिए सेवक नहीं टिकते। नंदा ने त्योरी चढ़ाई, कौन कहता है, मेरे सामने कहे। मैं तो सेवकों से बोलती तक नहीं। किसी तरह महीना पूरा हुआ तो शिरीष ने बालम के हाथ पर तनख्वाह रखी और हिदायत दी, तुम नौजवान आदमी हो बहादुर। जरा चुस्ती-फुर्ता से काम किया करो।

बालम ने तनख्वाह ले ली और हाथ जोड़कर बोला, साहब, आपसे एक बात बोलना है। हमको इधर बिल्कुल दिल नहीं लगता। आपने नाम बदला तो हमको लगता है कि हम बालमसिंह नहीं कोई और हैं। आपको बहुत से बहादुर मिल जाएँगे साहब। हमें जाने दें। कहीं और नौकरी मिल गई है क्या तुमको? नहीं साहब! हम अपने घर लौट जाएँगे। हमको अपने छोटे बच्चे की याद आती है। हमको अम्मा की याद आती है। मसे कोई गलती हुई हो तो माफी दें साहब! उधर, पहाड़ पर हमारे नाम से चिट्ठी आती, बालमसिंह। इधर आकर हम बहादुर कैसे बनेंगे, बोलो साहब! मेमसाहब से भी हमारा माफी और नमस्ते बोल देना, साहब।

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