शऱीफ की उम्मीद बनाम इतिहास का बोझा
इन दिनों पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भारत के साथ रिश्ते सुधारने के लिए काफी लालायित दिख रहे हैं। (इतने कि किसी को भी सहज ही संदेह हो!) शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के सिलसिले में विदेश-मंत्री एस.जयशंकर के साथ पाकिस्तान गए भारतीय मीडिया के सामने भी उन्होंने उम्मीद जताई कि भारत और पाकिस्तान अपने इतिहास को पीछे रखकर भविष्य की समस्याओं को हल करेंगे। उन्होंने कहा बताते हैं कि शांति प्रािढया बाधित नहीं होनी चाहिए। ये सब उपदेश देते वक़्त शायद उन्हें याद रहा हो (न भी हो तो क्या फ़र्क पड़ता है) कि ख़ुद उन्हीं के कार्यकाल के दौरान भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर की बस यात्रा की थी और इस यात्रा के कुछ वक़्त बाद ही पाकिस्तानी सेना ने करगिल में हमला कर दिया था! उस इतिहास से भला कैसे मुक्त हुआ जा सकता है कि जब भारतीय जवानों ने मुँहतोड़ जवाब देते हुए पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था! पाकिस्तान की इस करतूत के बाद दोनों देशों के रिश्तों में कभी आपसी यकीन बहाल नहीं हो सका। क्या जनाब शऱीफ साहब बता सकते हैं कि उनकी हरकत से पैदा हुई इतिहास की दरार को भरने के लिए उनके देश ने आज तक कोई एक भी नेक काम किया है क्या?
वैसे नवाज़ शऱीफ की हाल ही में – अतीत को भूलकर भारत के साथ आगे बढ़ने की गुहार – भारत-पाक रिश्तों में कोई नई बात नहीं है। लेकिन यह प्रस्ताव अहम इसलिए है कि एक निर्णायक क्षण में आया है। पाकिस्तानी राजनीति में वापस लौट रहे शऱीफ इसे तनाव कम करने के अवसर के रूप में देखते हैं, ख़ासकर शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन और भारतीय विदेश-मंत्री एस. जयशंकर की पाकिस्तान यात्रा के संदर्भ में। शायद इसमें कोई संकेत इस बात का भी छिपा हुआ है कि बहुचर्चित नेपथ्य की कूटनीति के किसी हद तक सफल होने से रिश्तों के सुधरने की आस बँधी है। शायद इसीलिए इस यात्रा के दौरान दोनों पक्ष ज़बान सँभाले रहे! शऱीफ का संदेश भी अतीत की शत्रुता को प्रगति की बाधाओं के रूप में पेश करके कूटनीतिक रूप से नरम पड़ने की कोशिश करता प्रतीत होता है। लेकिन भारत तो सीमा पार आतंकवाद और भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने में पाकिस्तान की संलिप्तता के बारे में अपनी लंबे समय से चली आ रही चिंताओं के खिल़ाफ ही इस इशारे को तोलकर देखेगा न! ये महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, ख़ासकर यह देखते हुए कि पाकिस्तान द्वारा उग्रवाद को समर्थन दिए जाने के कारण शांति के पिछले प्रयास अल्पजीवी रहे हैं।
इसलिए नवाज़ शऱीफ की अपील पर भारत की प्रतिािढया का सतर्कतापूर्ण होना स्वाभाविक है। बेशक, राजनयिक रिश्तों को बहाल करने में संभावित लाभ निहित हैं, लेकिन किसी भी तरह की बातचीत पाकिस्तान की ओर से आतंकवाद को रोकने और कश्मीर में हस्तक्षेप न करने की स्पष्ट, सत्यापन योग्य प्रतिबद्धताओं पर निर्भर होनी चाहिए। पाकिस्तान द्वारा शुरू की गई पिछली वार्ताएँ अक्सर उस देश की घरेलू राजनीतिक अस्थिरता या सैन्य हस्तक्षेप के कारण लड़खड़ा गई हैं। नवाज शऱीफ के इरादे भले ही ऊपर से नेक और सकारात्मक प्रतीत होते हों, पर ये उनकी अपनी राजनैतिक पैंतरेबाज़ी का हिस्सा भर भी हो सकते हैं, क्योंकि वे विभाजित और अस्थिर राजनैतिक परिदृश्य के बीच पाकिस्तान में विश्वसनीयता और शक्ति हासिल करना चाहते हैं।
भारत के लिए प्राथमिकता अपने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित रखना है, यह सुनिश्चित करना है कि पाकिस्तान के सहयोग के वादे महज़ बयानबाज़ी न हों (जो कि वे हैं)! माना कि शांति वांछनीय है, लेकिन यह आपसी विश्वास और भारत की सुरक्षा चिंताओं के अनुरूप कार्यवाहियों पर आधारित होनी चाहिए। अंतत, भले ही कर्ज़ और भूख से बेहाल पाकिस्तान भारत से रिश्ते सुधारने की खातिर इतिहास को भूलने की दुहाई दे रहा हो, लेकिन भारत न तो करगिल को भूल सकता है और न ही पुलवामा को!