संकेत भाषा और मानव जीवन

सरल शब्दों में -जो लोग सुन या बोल नहीं सकते, ऐसी स्थिति में वे लोग अपने हाथ, उँगलियों, आँखें, चेहरे और शरीर के हाव-भाव से अपनी बात को सामने वाले तक पहुँचाते हैं। इसे ही सांकेतिक भाषा कहा जाता है। इस प्रकार सांकेतिक भाषा बिना शब्दों का प्रयोग करे अपने विचारों तथा भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम है। सांकेतिक भाषा मूक-बधिर व्यक्तियों के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

मानव जीवन में भाषा एक ऐसा सशक्त माध्यम है, जिससे मनुष्य के बीच विचारों का आदान-प्रदान संभव है। पृथ्वी के समस्त प्राणियों में मात्र मनुष्य को ही सोचने-समझने की शक्ति और वाक् शक्ति ईश्वर द्वारा वरदान स्वरुप प्राप्त हुई है। भाषा मानव जीवन के लिए मौलिक है, जो विभिन्न महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाती है। यह संचार को सक्षम बनाती है, सामाजिक संपर्क, सहयोग और विचारों के आदान-प्रदान को बढ़ावा देती है।

विश्व संकेत भाषा दिवस और मूक-बधिर अधिकार

शिक्षा, संस्कृति संरक्षण और पीढ़ियों के माध्यम से ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए भाषा आवश्यक है। प्रकृति हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। ये हमारी उपदेशक, मित्र, अध्यापक, माता-पिता, निर्देशक सब कुछ है। जिस समय भाषा की उत्पत्ति नहीं हुई थी उस समय लोग संकेतों के द्वारा विचारों का आदान-प्रदान करते थे। तत्पश्चात धीरे-धीरे शब्द बनने लगे और इस प्रकार भाषा मुखरित होने लगी। साधारणत लोगों में एक भ्रम फैला हुआ है कि भाषाई संदर्भ में संकेत भाषा वास्तविक भाषा नहीं हैं, लेकिन इसके बाद भी सांकेतिक भाषा उतनी ही समृद्ध और जटिल है जितनी कि कोई मौखिक भाषा होती है ।

प्रति वर्ष 23 सितंबर को सकल विश्व में विश्व संकेत भाषा दिवस मनाया जाता है। विश्व भर के मूक-बधिर समुदाय में सांकेतिक भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से विश्व स्तर पर यह दिन मूक-बधिरों को समर्पित किया जाता है। इस तिथि का चयन ऐतिहासिक महत्व रखता है क्योंकि इसी दिन 1951 में विश्व मूक-बधिर महासंघ (डब्लू.एफ.डी) की स्थापना हुई थी।

इस संगठन का प्रथम उदेश्य था सांकेतिक भाषाओं और मूक-बधिर संस्कृति को संरक्षित करना, जो मूक-बधिर समाज को उनके अधिकारों को दिलाने के लिए अत्यंत आवश्यक था। मूक-बधिर का व्यापक अंतरराष्ट्रीय सप्ताह, जो 1958 में अपनी स्थापना के बाद से बधिरों के अधिकारों की वकालत करने वाले एक वैश्विक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है। विश्व भर में 70 मिलियन से अधिक बधिर लोगों के साथ संकेत भाषाओं को पहचानने और बढ़ावा देने की आवश्यकता अधिक स्पष्ट हो गई है।

भारतीय सांकेतिक भाषा का महत्व और इतिहास

80 प्रतिशत से अधिक मूक-बधिर लोग विकासशील देशों में रहते हैं। बधिर शिक्षक सिबाजी पांडा को भारतीय संकेत भाषा का जनक माना जाता है। भारत में ऐसे 700 पाठशालाएँ हैं जहाँ संकेत भाषाएँ पढ़ाते हैं। भारतीय संकेत भाषा का अपना अनूठा व्याकरण और हाव-भाव है, लेकिन इसमें कुछ क्षेत्रीय अंतर भी पाया जाता है। सरल शब्दों में -जो लोग सुन या बोल नहीं सकते, ऐसी स्थिति में वे लोग अपने हाथ, उँगलियों, आँखें, चेहरे और शरीर के हाव-भाव से अपनी बात को सामने वाले तक पहुँचाते हैं।

इसे ही सांकेतिक भाषा कहा जाता है। इस प्रकार सांकेतिक भाषा बिना शब्दों का प्रयोग करे अपने विचारों तथा भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम है। दूसरी भाषा की तरह सांकेतिक भाषा के भी अपने व्याकरण और नियम हैं। सांकेतिक भाषा मूक-बधिर व्यक्तियों के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसे ही मूक-बधिर लोगों की मातृ भाषा भी कहा जा सकता है। केतिक भाषा का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मौखिक भाषा का।

सांकेतिक भाषा मौखिक भाषा को पूरा करने का कार्य करती है इसलिए दोनों को एक-दूसरे का पूरक भी माना जाता है। मौखिक भाषाओं में हम सांकेतिक भाषाओं का भी प्रयोग करते हैं। मौखिक भाषा जितनी पुरानी है, सांकेतिक भाषा भी उतनी ही पुरानी है। जहाँ कहीं भी मूक-बधिर समुदाय होता हैं, वहाँ पर सांकेतिक भाषाएँ संचार के उपयोगी साधन के रूप में विकसित हुई हैं और स्थानीय मूक-बधिर संस्कृतियों का मूल आधार बनी हैं।

सांकेतिक भाषा के उपयोग और वैश्विक महत्व

हालाँकि सांकेतिक भाषा का उपयोग मुख्य रूप से बधिर और कम सुनने वाले लोग करते हैं, लेकिन इसका उपयोग सुनने वाले व्यक्ति भी करते हैं, जैसे कि शारीरिक रूप से बोलने में असमर्थ लोग, विकलांगता या स्थिति के कारण मौखिक भाषा में परेशानी वाले लोग और बधिर वयस्कों के बच्चों सहित बधिर परिवार के सदस्य आदि भी सहजता के साथ सांकेतिक भाषा का उपयोग करते हैं।

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ऐसे कई अध्ययन हो रहे हैं जो सुनने की अक्षमता वाले लोगों के लिए सांकेतिक भाषा सीखने के विशेष लाभों को उजागर करते हैं। मैरिलिन डेनियल के अनुसार, सांकेतिक भाषा संज्ञानात्मक विकास में एक महत्वपूर्ण कारक है, जो बच्चों के ध्यान अवधि, दृश्य भेदभाव और स्थानिक स्मृति में सुधार करती है। विश्व भर में सांकेतिक भाषाओं की संख्या का सही अनुमान नहीं लग पाया है। वैसे प्रत्येक देश की साधारणत अपनी मूल सांकेतिक भाषा होती है; कुछ में एक से अधिक होती हैं।

एथनोलॉग के 2021 संस्करण में 150 सांकेतिक भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है, जबकि साइन-हब एटलस ऑ़फ साइन लैंग्वेज स्ट्रक्चर्स में 200 से अधिक की सूची है और नोट किया गया है कि ऐसी और भी भाषाएँ हैं जिन्हें अभी तक प्रलेखित या खोजा नहीं गया है। 2021 तक, इंडो-पाकिस्तानी सांकेतिक भाषा दुनिया में सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली सांकेतिक भाषा है और एथनोलॉग ने इसे दुनिया की 151वीं सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा का दर्जा दिया है।

यह भी पढ़ें… विश्व स्तर पर शक्ति की भाषा बनती हिंदी

सांकेतिक भाषा: संवाद और अभिव्यक्ति का प्रभावी माध्यम

कुछ सांकेतिक भाषाओं को किसी न किसी रूप में कानूनी मान्यता प्राप्त हो गई है। बोले गए शब्द की तरह सांकेतिक भाषा भी कई अलग-अलग रूप लेती है। विश्व भर में 300 से ज़्यादा अलग-अलग सांकेतिक भाषाएँ उपयोग में लायी जाती हैं।सांकेतिक भाषाएँ माइम नहीं हैं – दूसरे शब्दों में, संकेत पारंपरिक होते हैं। ग्रीक मूल शब्द है मिमोस इसी से बना माइम। जिसका शाब्दिक अर्थ है ऩकल करने वाला अभिनेता या विदूषक जिस प्रकार एक अभिनेता अपने चेहरे के हाव-भाव से संवाद करता है, ठीक उसी प्रकार मूक-बधिर भी अपने संवादों को संकेतों से प्रस्तुत करते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि बोली जाने वाली भाषाओं की तरह ही सांकेतिक भाषाएँ भी प्राथमिक होती हैं तथा अन्य भाषाओँ की तरह वह भी अर्थहीन इकाइयों को सार्थक एवं अर्थपूर्ण इकाइयों में व्यवस्थित करने की क्षमता रखती हैं। जैसा कि ऊपर भी लिखा गया है कि कई अवसरों पर ऐसे लोग भी सांकेतिक भाषा का उपयोग करने में सहजता का अनुभव करते हैं, जिन्हें बोलने और सुनने में कोई समस्या नहीं है।

जैसे मित्रगण, दो बहनें, दो भाई यदि समूह में बैठे हैं और अपनी बात सबके सामने कहना नहीं चाहते तो वे अपने चेहरे और आँखों के हाव-भाव से अपनी बात एक-दूसरे तक पहुंचा देते। यदि कोई किसी से अप्रसन्न है और उससे बात करना नहीं चाहता या चाहती तो वे सांकेतिक भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लेते। वैसे प्रेम का क्षेत्र भी सांकेतिक भाषा से अछूता नहीं है। इस सन्दर्भ में कवि बिहारी का लिखा एक दोहा इसके लिए सटीक है –

कहत-नटत-रीझत-खीजत, मिलत-खिलत-लजियात।
भरे भौन में करत है, नैनन ही सो बात।।

कई अवसरों पर देखा गया कि अपने बच्चों की भूल या शरारत के प्रति माँ या शिक्षक का क्रोध, शब्दों के रूप में उतना प्रभावकारी नहीं होता जितनी कि उनकी केवल बड़ी, फैली हुयी और घूरती आँखें असर कर जाती है। यहाँ तक कि कुछ खाते समय उस पकवान के स्वाद को भी हम बिना कुछ कहे अपने चहरे के हाव-भाव से प्रकट कर देते हैं। किसी भी पदार्थ का स्वाद मीठा हो या कड़वा, खट्टा हो या कसैला, नमकीन हो या फीका इन्हें प्रकट करने के लिए किसी शब्द या भाषा की आवश्यकता नहीं होती। इसके लिए सांकेतिक भाषा ही पर्याप्त होती हैं।

डॉ किरण शास्त्री
डॉ किरण शास्त्री

नवजात शिशु जब तक ध्वनि संसार से परिचित नहीं होता तब तक उसके माता-पिता उससे सांकेतिक भाषा का ही तो उपयोग करते हैं और जब तक शिशु बोलना नहीं सीखता तब तक वह भी अपनी बात संकेतों के माध्यम से ही प्रेषित करता है। भारतीय सांकेतिक भाषा को भी भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में घोषित करने की मांग की गयी। इस प्रकार हम देखते हैं कि मनुष्य ने अपनी सोच-समझ और वाक्शक्ति के बल पर विज्ञान का सहारा लेकर अनेकों चमत्कार किये हैं। जिनमें से एक है सांकेतिक भाषा। जिसने मूक-बधिरों को भी सम्प्रेषण के लिए सशक्त बना दिया। अंतरराष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस के उपलक्ष्य में विश्व के समस्त मूक-बधिर भाई-बहनों को हमारी ढेरों सुभकामनाएँ।

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