राष्ट्रपति की पीड़ा : राष्ट्र की पीड़ा


राष्ट्रीय चिंता को प्रतिध्वनित करने वाले एक कठोर बयान में, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कोलकाता में हुए भयावह बलात्कार-हत्या मामले पर अपनी पीड़ा व्यक्त की है। राजनीतिक वक्तव्यों से अलग, इस बयान में लिंग आधारित हिंसा को रोकने और पीड़ितों के लिए न्याय सुनिश्चित करने में प्रणालीगत विफलताओं के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक सामाजिक विमर्श की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया है। राष्ट्रपति मुर्मू की घोषणा – बस बहुत हो गया – महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा के सामने सामूहिक आाढाश और तत्काल निर्णायक कार्रवाई की माँग को दर्शाती है।

कोलकाता मामले का विवरण किसी सदमे से कम नहीं है। कोलकाता में युवती पर ाढर हमला और उसके बाद उसकी हत्या, हिंसा और दंड से मुक्ति की व्यापक कुसंस्कृति के उस अजगर का प्रतीक है, जिसने हमारे समाज को अपनी कुंडली में भींच रखा है। पीड़िता की पीड़ा और जिस तरह से अपराध सामने आया, वह न केवल मानवीय गरिमा के घोर उल्लंघन को दर्शाता है, बल्कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए हमारे तंत्र में प्रणालीगत अपर्याप्तता को भी उजागर करता है।

राष्ट्रपति मुर्मू की प्रतिािढया उबलती हुई राष्ट्रीय भावना का प्रतिबिंब है। देश ऐसे अपराधों की नियमित प्रकृति और उसके बाद होने वाली अक्सर उदासीन प्रतिािढयाओं से तंग आ चुका है। बस बहुत हो गया वाक्यांश पर राष्ट्रपति का ज़ोर, यथास्थिति के प्रति गहरी निराशा को दर्शाता है और व्यापक सुधारों की तत्काल ज़रूरत को उजागर करता है। कार्रवाई के लिए उनके इस आह्वान में पूरे देश की करुण और क्षुब्ध पुकार की गूँज सुनी जा सकती है कि हमारे कानूनी और सामाजिक ढाँचे में अहम बदलाव का समय आ गया है।

राष्ट्रपति का बयान इस समस्या से निपटने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण का स्पष्ट आह्वान है। इसमें न केवल यह सुनिश्चित करना शामिल है कि अपराधियों को शीघ्र और न्यायोचित रूप से दंडित किया जाए, बल्कि उन अंतर्निहित सामाजिक और प्रणालीगत मुद्दों के समाधान की भी बात कही गई है, जो ऐसे जघन्य कृत्यों में योगदान करते हैं। बेहतर कानून प्रवर्तन तंत्र, पीड़ितों के लिए बेहतर सहायता प्रणाली और एक सांस्कृतिक बदलाव की तत्काल ज़रूरत है, जो महिलाओं के खिलाफ हिंसा के सामान्यीकरण को सािढय रूप से चुनौती दे और बदल दे।

राष्ट्रपति मुर्मू के बयान का एक मुख्य तत्व न्याय की माँग है। उन्होंने मामले को तेजी से निपटाने और ज़िम्मेदार लोगों के ख़िल़ाफ कानून की पूरी ताकत के इस्तेमाल का आग्रह किया है। यह हमारी न्याय प्रणाली में विश्वास बहाल करने और यह स्पष्ट संदेश देने के लिए एक आवश्यक कदम है कि ऐसे अपराधों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हालाँकि, इस संदर्भ में न्याय को केवल कानूनी कार्यवाही से आगे जाना चाहिए। इसमें एक समग्र दृष्टिकोण शामिल होना चाहिए, जो यह सुनिश्चित करे कि पीड़ितों को आवश्यक सहायता दी जाए और भविष्य की त्रासदियों को रोकने के लिए निवारक उपाय किए जाएँ।
उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रपति मुर्मू के हस्तक्षेप से प्रणालीगत सुधार की अहमियत पर सरकार का ध्यान केंद्रित होगा। इसमें महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा करने वाली नीतियों की समीक्षा करना और उन्हें सुदृढ़ बनाना, ऐसे मामलों को संवेदनशीलता और दक्षता के साथ सँभालने के लिए कानून प्रवर्तन कर्मियों के प्रशिक्षण को बढ़ाना और ऐसा माहौल बनाना शामिल है, जहाँ पीड़ितों को कलंक या प्रतिशोध के डर के बिना आगे आने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।

इस संबंध में मीडिया और नागरिक समाज की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। महिलाओं के अधिकारों के लिए निरंतर और ज़ोरदार वकालत की आवश्यकता है। मीडिया को सनसनीखेज रिपोर्टिंग से आगे बढ़कर जिम्मेदार रिपोर्टिंग का प्रयास करना चाहिए। समुदायों को संगठित करने और अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने में नागरिक समाज संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। दोनों को मिलकर काम करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि पीड़ितों की आवाज़ सुनी जाए और उनके अधिकारों की रक्षा की जाएगी।

अंतत, यह दुःख और खेद की बात नहीं तो और क्या है कि समय-समय पर देश में महिलाओं के ख़िल़ाफ भयानक अत्याचार होते देखकर भी समाज नहीं जागता! राष्ट्रपति मुर्मू ने इस घातक प्रवृत्ति को सामूहिक स्मृतिलोप (कलेक्टिव एमनेसिया) कहकर जन भावना को झकझोरने का प्रयास किया है।

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