क्या धरा है नाम में : शायद बहुत कुछ

पिकाचु की आँखों में आँसू हैं। हेलो किट्टी हैरान है। आखिर क्यों? जापान सरकार ने इन चमकदार (किराकिरा) नामों पर पाबंदी जो लगा दी है। सरकार को लगता है, किराकिरा से बड़ी किरकिरी होती है! जी हाँ; ये चटकीले नाम, जो 1990 के दशक से जापान में चमक रहे थे, अब खतरे में हैं। माता-पिता को कुछ तो सोचना चाहिए न, बच्चों को पॉकेमान, नाइकी, पुडिंग और लवली जैसे अजीबोगरीब नाम देने से पहले! मई 2025 से, जापान का नया पारिवारिक रजिस्ट्री कानून इन नामों पर रोक लगा रहा है। दिलचस्प बात यह भी है कि जापानी में प्राय एक तरह लिखे नामों को अनेक तरह पुकारने का रिवाज है।

नामों की अराजकता से व्यवस्था की ओर वापसी

इससे बहुत बार हास्यास्पद स्थिति पैदा हो जाती है। अत अब इन नामों को सामान्य रूप से स्वीकृत उच्चारणों तक सीमित करने का आदेश है। अब आप अपने बच्चे का नाम तारो रखकर उसे माइकल नहीं बुला सकते। यह सब सांस्कृतिक सुधार के नाम पर हो रहा है। लेकिन क्या माता-पिता को इस तरह बाध्य करना इक्कीसवीं सदी में लोकतांत्रिक कहा जा सकता है?
सयाने बता रहे हैं कि इस कार्रवाई की वजह है प्रशासनिक सिरदर्द और समाज की प्रतिक्रिया।

जापान की कांजी प्रणाली, जिसमें 2,999 स्वीकार्य अक्षर हैं, एक भाषाई भूलभुलैया है। इसके तहत एक अक्षर के कई उच्चारण हो सकते हैं। इस लचीलेपन ने किराकिरा नामों को जन्म दिया। माता-पिता ने खूब रचनात्मकता दिखाई। जैसे किरारा (चमक) तो चलो ठीक है, लेकिन अकुमा (शैतान) जैसे नाम? नतीजा? शिक्षक उपस्थिति लेते वक़्त हकलाने लगे। डॉक्टर मेडिकल रिकॉर्ड देखकर चकराए।

और तो और, लिखने और बोलने की इस अराजकता के आगे डिजिटल सिस्टम को भी हार माननी पड़ी। द गार्जियन की मानें तो, ये नाम प्रशासनिक परेशानी और सहपाठियों के मजाक का कारण बने, खासकर जब कोई बच्चा पिकाचु नाम से स्कूल में ताने सुनता था। इसीलिए अब यह प्रवृत्ति जापान की एकरूपता की संस्कृति को रास नहीं आ रही। समाधान? व्यवस्था की वापसी। लेकिन किस कीमत पर? 26 मई 2025 से लागू नए कानून के तहत, माता-पिता को बच्चे के लिखित नाम का सटीक उच्चारण भी जमा करना होगा। उसकी बाकायदा जाँच की जाएगी।

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रचनात्मक नाम बनाम परंपरा: नामों की नई कसौटी

अगर आपका चुना हुआ नाम किसी पॉप स्टार या जूते के ब्रांड जैसा लगता है, तो नगर निगम उसे ठुकरा देगा। नारुतो या एल्सा जैसे नाम अब कटघरे में हैं, क्योंकि वे अजीब हैं। इस नियम के लागू होने पर स्कूलों और अस्पतालों के रिकॉर्ड तो बेशक सुधर सकते हैं। लेकिन क्या यह नामकरण की रचनात्मकता को कुचलना नहीं कहा जाएगा? यह कैसे भूला जा सकता है कि कुछ माता-पिता किराकिरा नामों को जापान की कथित एकरूपता के खिलाफ विद्रोह मानते थे।

अब उन्हें नियमों के मुताबिक नाम चुनने होंगे, जिससे विद्रोह की वह चमक फीकी पड़ सकती है! दरअसल, जापान की नाम पुलिस को लगता है कि इस तरह वे बच्चों को गलत उच्चारणों से बचा रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि वे अभिव्यक्ति के एक अनोखे रूप की हत्या भी कर रहे हैं। क्या यह संभव नहीं कि आप माता-पिता को सपने देखने दें; और साथ ही उन्हें अपने बच्चों को सुशी (एक खाद्य पदार्थ का नाम) या गॉडज़िला (एक राक्षस का नाम) जैसे विचित्र नामों से पुकारने से बचने के लिए प्रेम से प्रेरित करें। कानून का डंडा ऐसे मामलों में भला कैसे वांछनीय हो सकता है!

इस मज़ेदार लेकिन अहम चर्चा को आगे बढ़ाते हुए यह भी कहना ज़रूरी है कि ज़्यादातर समाजों में सांस्कृतिक और पारंपरिक नामकरण को प्राथमिकता दी जाती है तथा नकारात्मक, तिरस्कार सूचक और हास्यास्पद नामों से बचने का प्रयास किया जाता है। भारत को ही लें, तो भले ही कुछ लोग अब खुद को या बच्चों को रावण, शैतान या तैमूर कहने लगे हों, इन नामों को व्यापक आत्मीयता नहीं मिलती दिखाई देती। दुःशासन, मंथरा और शूर्पणखा जैसे नाम तो विदूषकों के भी नहीं मिलते। हाँ, लड्डू और इमरती ज़रूर उपलब्ध हैं – शायद मिठास के कारण!

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