स्त्री -सशक्तिकरण जैन धर्म की अमिट विरासत
आज विश्व भर में स्त्रियाँ अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। भारत की एक प्राचीन धार्मिक प्राचीन परंपरा जैन धर्म ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करती है, जहाँ स्त्रियों को आध्यात्मिक गरिमा और समानता का स्थान सदियों पहले ही मिला। यह सशक्तिकरण न तो संघर्ष से उपजा, न ही आंदोलन से, बल्कि एक गहरी आध्यात्मिक दृष्टि का परिणाम था।
करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने जब चारगुटी संघ की स्थापना की, तो उसमें पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों को भी समान अधिकार दिए। उन्होंने न केवल साध्वियों और श्राविकाओं को संघ में स्थान दिया, बल्कि उन्हें नेतृत्व की भूमिका निभाने का अवसर भी प्रदान किया। इतिहास साक्षी है कि उस समय 36,000 साध्वियाँ और 3 लाख श्राविकाएँ संघ का हिस्सा थीं।
जैन महिलाओं में साक्षरता और नैतिक नेतृत्व का उच्च स्तर
यह संख्या पुरुषों से कहीं अधिक थी। श्री चंदनबाला जैसी महिलाओं ने संघ का मार्गदर्शन किया, यह उस युग में स्त्रा नेतृत्व का एक अद्वितीय उदाहरण है। जैन परंपरा में यह दृष्टिकोण स्थायी रहा। उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ को श्वेतांबर परंपरा में स्त्री के रूप में स्वीकार किया गया, जिससे यह सिद्ध होता है कि मोक्ष का मार्ग लिंग पर निर्भर नहीं होता है।
भगवान महावीर की माता त्रिशला देवी भी इस परंपरा की आध्यात्मिक गरिमा का प्रतीक हैं। आज की बात करें तो जैन महिलाएँ शिक्षा, नैतिक नेतृत्व और धार्मिक सहभागिता में अग्रणी हैं। एनएफएसएच-5 के अनुसार, 97 प्रतिशत जैन महिलाएँ साक्षर हैं और 65.5 प्रतिशत बच्चों की प्रीस्कूल उपस्थिति सभी धार्मिक समुदायों में सर्वोच्च है।
मात्र 24 प्रतिशत जैन पुरुष पत्नी पर हिंसा को उचित मानते हैं और 93 प्रतिशत महिलाएँ यह अधिकार स्वीकार करती हैं कि पत्नी को अपनी इच्छा के विरुद्ध यौन-संबंध से इन्कार करने का अधिकार है। हालांकि, इस प्रगतिशील सोच के बावजूद, शहरी जैन महिलाओं की कार्यबल भागीदारी केवल 10 प्रतिशत के आस-पास है, लेकिन यह कोई कमजोरी नहीं, बल्कि एक चयनित जीवन-शैली है।
जैन धर्म की विरासत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी
अनेक महिलाएँ शिक्षा, परिवार या आध्यात्मिक सेवा को प्राथमिकता देती हैं। वे प्रपामण का आयोजन, महिला मंडलों का संचालन और युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करती हैं। ये सब ऐसे कार्य हैं, जो समाज की नैतिक नींव को मजबूत करते हैं। आज की जैन महिलाएँ अपने व्यक्तिगत निर्णयों में भी अधिक स्वतंत्र हैं। 20-29 वर्ष की आयु वर्ग में अविवाहित स्त्रियों की संख्या बढ़ रही है, जो शिक्षा और आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता दे रही हैं।
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वे चुपचाप, लेकिन प्रभावी रूप से महावीर की उस दृष्टि को जीवित रखे हुए हैं, जहाँ स्त्रा और पुरुष समान रूप से आत्मकल्याण के अधिकारी हैं। यह परंपरा हमें सिखाती है कि सशक्तिकरण केवल बाहरी उपलब्धियाँ नहीं, बल्कि स्वतंत्र निर्णय, आत्मबल और मौन नेतृत्व भी है। जैन धर्म की यह विरासत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी।
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