जापान-चीन तनाव: खतरे की घंटी

दो एशियाई दिग्गजों – जापान और चीन – के बीच ताइवान को लेकर छिड़ा तनाव अब नई ऊँचाई पर पहुँच गया लगता है। हाल ही में जापान की नई प्रधानमंत्री ने खुलेआम कहा कि अगर चीन ने ताइवान पर हमला किया, तो जापान सैन्य हस्तक्षेप कर सकता है। यह बयान चीन को चुभ गया। बीजिंग ने जापानी राजदूत को तलब किया, यात्रा चेतावनी जारी की और आर्थिक दबाव बनाने की कोशिशें तेज कर दीं।

जून में चीनी विमानवाहक पोतों की जापानी द्वीपों के पास गतिविधियां भी इसी तनाव का हिस्सा हैं। जी-20 जैसे मंचों पर दोनों देशों के नेताओं की मुलाकात रद्द होने से साफ है कि रिश्ते खराब दौर से गुजर रहे हैं। लेकिन यह सिर्फ दो देशों का मामला नहीं; पूरे एशिया-प्रशांत क्षेत्र की स्थिरता दांव पर लगी है। भारत जैसे उभरते शक्ति केंद्र के लिए भी इसमें सबक हैं। सयाने याद दिला रहे हैं कि इस तनाव की जड़ें गहरी हैं।

ताइवान स्ट्रेट और चीन-ताइवान तनाव का भू-रणनीतिक महत्व

ताइवान स्ट्रेट, प्रशांत महासागर की वह संकरी पट्टी है, जहां से वैश्विक व्यापार का बड़ा हिस्सा गुजरता है। चीन ताइवान को अपना अभिन्न अंग मानता है और एक चीन नीति पर अड़ा है। उसे ताइवान की स्वतंत्रता स्वीकार्य नहीं। दूसरी ओर, ताइवान लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला समृद्ध द्वीप है, जो खुद को अलग राष्ट्र मानता है। जापान की स्थिति रणनीतिक है। ओकिनावा जैसे उसके द्वीप ताइवान के बिल्कुल पास हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध की यादें अभी ताजा हैं, जब जापान ने आक्रामकता का रास्ता चुना था। अब फिर जापान संविधान के अनुच्छेद 9 के बावजूद अपनी सेना को मजबूत कर रहा है। क्वाड (जापान, अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया) जैसे गठबंधन से वह चीन की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं का मुकाबला करने को तैयार है। लेकिन जापान की नीति लंबे समय से अस्पष्ट रही – न ताइवान को पूर्ण मान्यता, न ही स्पष्ट समर्थन। अब यह अस्पष्टता टूट रही है, जो चीन को उकसा रही है।

बेशक, इस तनाव के निहितार्थ गंभीर हैं। सैन्य स्तर पर, चीन की सेना ने ताइवान के इर्द-गिर्द अभ्यास तेज कर दिए हैं। जापान की तरफ से हस्तक्षेप की धमकी से स्थिति युद्ध जैसी हो सकती है। आर्थिक रूप से, दोनों देश करीब सौ अरब डॉलर का व्यापार करते हैं। चीन ने जापानी पर्यटकों पर पाबंदी लगाने जैसी चालें चली हैं, जो पर्यटन और निवेश को प्रभावित करेंगी। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला बाधित हो सकती है, क्योंकि ताइवान सेमीकंडक्टर चिप्स का बड़ा उत्पादक है।

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भारत के हित और हिंद-प्रशांत में शांति का महत्व

भारत के लिए भी यह चिंता का विषय है। हमारा निर्यात चीन-जापान बाजार पर बड़ी हद तक निर्भर है और हिंद-प्रशांत में शांति हमारी एक्ट ईस्ट नीति का आधार है। अगर तनाव बढ़ा, तो दक्षिण चीन सागर में हमारे हित प्रभावित होंगे। अमेरिका की भूमिका भी अहम है। ट्रंप प्रशासन के तहत वह ताइवान को हथियार बेच रहा है, जो चीन को और भड़काता है। कुल मिलाकर, यह तनाव बहुपक्षीय संघर्ष के बीज बो सकता है और कभी भी छोटी चिंगारी बड़ा धधकाव पैदा कर सकती है!

ऐसे में, भविष्य की संभावनाएँ दोहरी हैं। एक तरफ, युद्ध का खतरा मंडरा रहा है। जापान की धुर दक्षिणपंथी सरकार ताइवान को रक्षा रेखा मान रही है। उधर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी तेजी से आधुनिक हो रही है। अगर किसी दिन ताइवान औपचारिक स्वतंत्रता घोषित कर दे, तो संघर्ष अपरिहार्य है। लेकिन दूसरी संभावना शांति की भी है। इसके लिए दोनों देशों को संवाद की जरूरत है। जी-20 या एशियाई मंचों पर बातचीत से तनाव कम हो सकता है।

जापान को अपनी रक्षा को मजबूत रखते हुए डिप्लोमेसी पर जोर देना चाहिए। चीन को समझना होगा कि आक्रामकता से वैश्विक अलगाव बढ़ेगा। भारत जैसी तटस्थ शक्तियां मध्यस्थता कर सकती हैं। हमारी विदेश नीति स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी पर आधारित है – न किसी के साथ पूर्ण गठबंधन, न विरोध। क्वाड के जरिए हम क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित कर सकते हैं, बिना युद्ध में फँसे। अंत में, समझना होगा कि शक्ति का संतुलन टूटा तो सभी हारेंगे। एशिया को युद्ध नहीं, विकास चाहिए। जापान-चीन को पुरानी शत्रुता भूलकर सहयोग का रास्ता अपनाना होगा। वरना, यह तनाव महाद्वीप को अस्थिर कर देगा।

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