विडंबनाओं से ऊपर उठने का मार्ग है कर्मयोग
हम सभी एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जो विडंबनाओं और विरोधाभासों से भरी हुई है, जैसे की जन्म लेते ही हमारी मृत्यु हमारे इंतजार में लग जाती है। हर गुजरते दिन के साथ अमीर और अमीर हो रहे हैं तो गरीब और गरीब। अमीर अपनी सेहत की चिंता में वसा, चीनी और मसालों से मुक्त साधारण भोजन करने के लिए मजबूरन खुद को प्रतिबंधित करते हैं, तो दूसरी ओर गरीब अपनी गरीबी के कारण इसी प्रकार के आहार पर अपना जीवन काटते हैं, ये कैसी विडंबना?
गरीब व्यक्ति को पैसों की बचत के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता है, क्योंकि वे निजी वाहन का खर्च नहीं उठा सकते, वहीं दूसरी तरफ अमीरों को उनके डॉक्टर शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए प्रति दिन लंबी सैर करने की सलाह देते हैं। गरीब को अपने काम के सिलसिले में अक्सर परिवार से दूर रहना पड़ता है, जबकि अमीरों को अपने परिवार के सदस्यों के बीच होने वाले अहंकार-संघर्ष के कारण एक छत के नीचे सभी के साथ रहने पर भी सुख प्राप्त नहीं होता है।
कर्मयोगी बनने की आवश्यकता
इसलिए एक ही घर में रहने के बावजूद वे झूठे अभिमान और नैतिक अवनति के कारण अजनबियों की तरह जीते है। गरीब कुपोषण की वजह से शारीरिक विकार एवं रोगों से ग्रस्त रहते हैं, जबकि अमीर ज्यादा खाने की आदत की वजह से इसी पीड़ा से गुजरते हैं। जिनके पास अधिक धन है, वे अतिभोग एवं आसक्ति के संस्कारवश शारीरिक या मानसिक क्षमता को खो देते हैं, जबकि वे लोग जिनके पास ज्यादा धन नहीं है, वे जागरुकता की कमी की वजह से व्यसनों के जाल में फंसकर अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं। ये कैसी विडंबना?
भला ऐसे विरोधाभास और विडंबनाओं से भरी जिंदगी से ऊपर उठने का मार्ग क्या है? मार्ग इसका बिल्कुल सरल है और वह है- कर्मयोगी बनकर जीवन को जीना। एक कर्मयोगी कर्म करते हुए भी अनासक्त वृत्ति रखकर स्वयं को और दूसरों को भी सर्व बंधनमुक्त रखता है। वह कर्म के परिणाम या कोई अनहोनी की आशंकाओं में फंसकर खुद को नीचे नहीं गिराता है, अपितु सकारत्मक विचारधारा रखते हुए खुद को आत्मा समझकर उसी जागरुकता से सदा आगे बढ़ता है।
कर्मयोगी बनकर शांत, सुखी और संतुलित जीवन की ओर कदम
जब हम आंतरिक जागरुकता में रहकर शांति, पवित्रता और सद्भावना के अपने मूल स्वभाव को उभारकर कर्म करते हैं, तब हम भीतर से इतनी संतुष्टता प्राप्त कर लेते हैं कि हमें किसी और भौतिक सुख की लालसा नहीं रहती है। उनकी उपलब्धता न हमें लालायित करती है और न ही हमें उनका गुलाम बनाती है। इसी प्रकार उनकी अनुपस्थिति हमें न पीड़ा देती है और न ही हमारे मन की शांति को भंग कर पाती है।
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अत: इन बातों का सारांश यही है कि यदि हम अनेक प्रकार के विरोधाभास और विडंबनाओं से छूटकर एक सुखी व स्वस्थ जीवन जीने की चाहना रखते हैं तो उसके लिए कर्मयोगी बनना अनिवार्य है अर्थात कर्म करते हुए, उसके परिणाम से न्यारे रहना और खुद को शरीर नहीं अपितु चैतन्य आत्मा समझकर हर कर्म करना। यह तो बड़ा आसान है ना? तो चलिए, फिर देर किस बात की! आज से और अभी से ही कर्मयोगी बनने की शुरुआत करें।
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