न जीवन आदमी के हाथ में न ही मृत्यु की डोर कहीं पास। दोनों हवा की पतली लकीरों जैसे छूते ही बदल जाते हैं।
तितली के कोमल पंखों सदृश हिलते हुए क्षणों में खोया जीवन-नाजुक, बेहद नाजुक, मानो उंगलियों से छूते ही धूल बन उड़ जाए।
पल-पल बिखरती साँसें, पल-पल सिमटती परछाइयाँ- जीवन कोई ठोस सच नहीं, बस बहते पानी का बुलबुला है
जो अपने बनने में ही टूटने लगता है। कौन कहता है, डॉक्टर बचा लेते हैं जिंदगी ? यह आधा सच, आधा भ्रम है- वे बस एक कोशिश करते हैं, अंतिम निर्णय कहीं और लिखा होता है।
आदमी की हसरतें छोटी, किस्मत की लकीरें लंबी- हम बस यात्री हैं उन पलों के बीच जो आते-जाते रहते हैं। जीवन एक हल्की रोशनी है जो थरथराती भी है, चमकती भी-और मृत्यु उसी रोशनी का दूसरा, शांत रूप मात्र है।
