जीवन है क्षणभंगुर

न जीवन आदमी के हाथ में न ही मृत्यु की डोर कहीं पास। दोनों हवा की पतली लकीरों जैसे छूते ही बदल जाते हैं।

तितली के कोमल पंखों सदृश हिलते हुए क्षणों में खोया जीवन-नाजुक, बेहद नाजुक, मानो उंगलियों से छूते ही धूल बन उड़ जाए।

पल-पल बिखरती साँसें, पल-पल सिमटती परछाइयाँ- जीवन कोई ठोस सच नहीं, बस बहते पानी का बुलबुला है

जो अपने बनने में ही टूटने लगता है। कौन कहता है, डॉक्टर बचा लेते हैं जिंदगी ? यह आधा सच, आधा भ्रम है- वे बस एक कोशिश करते हैं, अंतिम निर्णय कहीं और लिखा होता है।

सुनील कुमार महला, (उत्तराखंड)

आदमी की हसरतें छोटी, किस्मत की लकीरें लंबी- हम बस यात्री हैं उन पलों के बीच जो आते-जाते रहते हैं। जीवन एक हल्की रोशनी है जो थरथराती भी है, चमकती भी-और मृत्यु उसी रोशनी का दूसरा, शांत रूप मात्र है।

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