
इंदौर के होल्कर स्टेडियम में आईसीसी महिला विश्व कप का जोश उफान पर था। गेंदें गरज रही थीं, बल्ले तड़क रहे थे, तालियाँ गूँज रही थीं। भारत की मेज़बानी चमक रही थी। लेकिन एक शर्मनाक घटना ने सब पर कीचड़ उछाल दिया। दो ऑस्ट्रेलियाई महिला क्रिकेटरों के साथ यौन छेड़छाड़! यह स़िर्फ अपराध नहीं, हमारे समाज की सड़ांध का फूटा फोड़ा है।
दरअसल, उस दिन सुबह होटल रेडिसन ब्लू से दो खिलाड़ी अपने सुरक्षा मैनेजर को सूचित कर कैफे के लिए निकली थीं। 
करीब 500 मीटर दूर आरोपी अकील उर्फ नाइट्रा (28) ने उन्हें परेशान किया। पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है और उस पर रासुका लगाने की तैयारी है। पुलिस कह रही है कि खिलाड़ियों के बाहर निकलने की पूर्व सूचना नहीं मिली थी! यानी, सुरक्षा में यह भारी चूक तालमेल की कमी से हुई। इस बीच बीसीसीआई ने माफ़ी माँगी, सुरक्षा बढ़ाने का वादा किया। पुराना नाटक! हर बार माफ़ी, हर बार झूठे वादे। पुलिस ने पहले क्यों नहीं सोचा? विदेशी मेहमानों की इज़्ज़त की ज़िम्मेदारी किसकी?
इंदौर हादसा: सुरक्षा की चूक और सोच की सड़ांध
उधर, राजनीति की नौटंकी अलग चालू है। एक बोले, दुर्घटना है, इंदौर सुरक्षित है। दुर्घटना? यह सोची-समझी गुंडागर्दी है! इसे आप सुरक्षित होना कहते हैं? मध्य प्रदेश के एक स्वनामधन्य कैबिनेट मंत्री ने तो हद ही कर दी। बोले, यह सबक है – हमारे लिए भी, खिलाड़ियों के लिए भी। क्रिकेटर अपनी लोकप्रियता नहीं समझते। बाहर जाएँ तो प्रशासन को बताएँ। भारत में क्रेज़ जो है! शायद उन्हें अपराध की गंभीरता का अहसास ही नहीं।
उनका, पुरुष-मानस तो पीड़िता को ही दोषी मानने के लिए प्रशिक्षित है न! उनका बयान पुरुष-प्रधान सोच का कीचड़ ही तो है, जिसे हर बार महिलाओं के चेहरे पर उछाल कर व्यवस्था अपनी ज़िम्मेदारी से बच निकलती है। महोदय, अपना इलाज कराइए और पीड़िताओं को दोषी ठहराने की चालाकी से बाज़ आइए। यौन-छेड़छाड़ को आप क्रेज़ कहते हैं? क्रेज़ है तो सुरक्षा क्यों नहीं? ऐसे अपराधों से तो यही लगता है कि महिला सशक्तीकरण के सब दावे खोखले, झूठ और पाखंड हैं! कब तक भारत की सड़कें महिलाओं के लिए आतंक की सड़कें बनी रहेंगी।
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महिला सुरक्षा: व्यवस्था की चूक या सामाजिक विफलता?
आजकल सोशल मीडिया पर हंगामा होते देर नहीं लगती। कोई शहर को गाली दे रहा है, तो कोई देश को कोस रहा है। समझना ज़रूरी है कि इंदौर बस एक जगह है। हम शहर को बदनाम क्यों करते हैं? व्यवस्था की चूक और परवरिश की ख़ामियों पर विचार क्यों नहीं करते? सयाने बता रहे हैं, यह कोई इकलौती घटना नहीं। प्रवृत्ति है! अभी अक्तूबर में दक्षिण अफ्रीका की एक खिलाड़ी मॉल में खरीदारी करने गई थीं, लेकिन पुलिस को इसकी जानकारी बाद में हुई। इसी तरह न्यूजीलैंड टीम की कुछ खिलाड़ी भी बिना सुरक्षा के शहर के पब में पहुँची थीं।
मतलब साफ है कि विदेशी टीमों की सुरक्षा व्यवस्था में पहले से ही लापरवाही बरती जा रही थी। अब सवाल समाधान का है। कानून को सख़्त करना होगा – तेज़ ट्रायल, कठोर सज़ा। शिक्षा में जेंडर संवेदना अनिवार्य हो। पुलिस सुधार ज़रूरी – महिला थाने, महिला गश्त। सामाजिक जागरूकता बढ़ानी होगी- मोहल्ला समितियाँ, एनजीओ, मीडिया मिलकर अभियान चलाएँ। और सबसे पहले घर से शुरुआत – माँ-बाप लड़कों को सम्मान और सीमाएँ सिखाएँ।
अंतत, इंदौर भारत का हिस्सा है और उसके माथे का दाग़ भारत के माथे पर दिखना स्वाभाविक है। और सब दाग़ अच्छे नहीं होते! कब हम विदेशी मेहमानों को यह अनुभव करा पाएँगे कि वे भारत में सम्मानित और सुरक्षित हैं? अगर हमारी सड़कें और गलियाँ आज भी बेटियों के लिए सुरक्षित नहीं हैं, तो क्या लोकतंत्र के रूप में हम असफल नहीं हैं? परंपरा और संस्कार की बात तो ख़ैर जाने ही दीजिए!
