काशी में मृत्यु एक कामना है

स्कंद पुराण के काशी खंड, अध्याय 26 का श्लोक है- ये मृत्यु मिच्छवः सर्वे प्राणत्यागैकामानसाः । काशीं प्राप्य नरा देवा मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।। अर्थात जो मनुष्य मृत्यु की इच्छा रखते हैं और जिनका मन केवल प्राण त्याग की ओर होता है, वे जब काशी पहुंचते हैं, तो सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। दुनिया के अधिकांश शहर जीवन के रंगों से भरे हैं और जीवंतता के लिए प्रसिद्ध हैं। वहीं काशी दुनिया का एकमात्र शहर है, जहां लोग जीवन के उत्सव का भोग करने के लिए नहीं बल्कि मरने के लिए आते हैं और वह भी खुशी-खुशी।
यह सुनने में कुछ अटपटा-सा लग सकता है, मगर वाराणसी के रेलवे स्टेशन पर हर दिन कम से कम दो से चार लोग रोज उतरते हैं, जिनकी कामना इस शहर में मृत्यु की होती है। काशी संभवतः दुनिया का एक मात्र शहर है, जहां मृत्यु उत्सव है, मृत्यु महत्वाकांक्षा है, मृत्यु इच्छा है। मान्यता है कि अगर आप काशी में मरेंगे तो बार-बार जन्म के बंधन से मुक्त हो, मोक्ष पा जाएंगे। अगर किसी की काशी में मृत्यु होती है तो माना जाता है कि वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत शांति को प्राप्त कर लेता है।
काशी में मृत्यु-प्रार्थना की अनोखी परंपरा और आध्यात्मिक मान्यता
यही विश्वास है जिसके कारण सदियों से लोग खुशी-खुशी – काशी में मरने के लिए आते हैं और आते रहेंगे। काशी या वाराणसी जिसे स्कंद पुराण में भूमंडल का हृदय कहा गया है। माना जाता है कि यहां स्वयं भगवान शिव वास करते हैं और मनुष्य की मृत्यु के क्षण में वे उसके कान में तारक मंत्र कहकर मुक्ति प्रदान करते हैं। जैसा कि ऊपर के श्लोक में कहा गया है। काशी की व्यस्त गलियों में आपको ऐसे तमाम भवन मिल जाएंगे, जिनके दरवाजे पर मुक्ति धाम या अंतिम यात्रा जैसे शब्द लिखे होंगे, जो इस बात का संकेत होते हैं कि यहां मृत्यु की कामना लेकर आये लोग रहते हैं।
ऐसी परंपरा और कहीं नहीं है, लेकिन जो मृत्यु की कामना लेकर इस जीवंत शहर में आते हैं, वो जरूरी नहीं कि आने के कुछ ही दिनों में मृत्यु को प्राप्त हो जाएं। कई बार तो ऐसी विडंबना देखी गई है कि जो लोग देश या विदेश के किसी कोने से यहां मरने के लिए आते हैं और सोचते हैं कि बस महीने, दो महीने में अपनी यात्रा पूरी कर लेंगे। ऐसे लोगों के साथ कई बार किस्मत ऐसा मजाक करती है कि वो दस-दस साल तक जीते हैं और कई तो यहां आकर मरने के बजाय उल्टे स्वस्थ हो जाते हैं। हालांकि ऐसे शायद बहुत उदाहरण तो नहीं होगे, लेकिन फिर भी दर्जनों लोग ऐसे हैं, जो यहां मरने के लिए आए और सालों तक तब नहीं मरे तो ऊबकर बिना मरे ही चले गये।
निर्भय जीवन और आध्यात्मिक स्वीकार का दर्शन
यहां केवल कुछ वही लोग नहीं जो मृत्यु की कामना लेकर यहां आते हैं बल्कि ज्यादातर लोग मृत्यु के भय से लगभग परे और बड़े बेफिक्र होते हैं। इसलिए काशी के लोगों का अक्ड़पन और जीवन की निर्भयता को लेकर विश्वास जगजाहिर है। हालांकि काशी में दर्जनों ऐसे भवन हैं, जहां के कमरे सिर्फ मृत्यु की कामना लेकर आने वाले लोगों को ही मिलते हैं। इस मामले में यह शहर एक बिल्कुल विचित्र और हाहाकारी दृश्य प्रस्तुत करता है। क्योंकि जिन गलियों में मृत्यु की कामना लेकर आये लोग रहते हैं, वहां जीवन की एक अलग ही धमक देखने को मिलती है।
न कोई हड़बड़ी, न कोई मृत्यु से भय, न कोई चिंता बल्कि लोग आध्यात्मिक मनोभाव से मृत्यु का स्वागत-गान गाते मिलते हैं। ऐसे भी लोग होते हैं, जिनके साथ परिवार के कुछ दूसरे लोग आये होते हैं या शर्म छोड़कर कहें तो वे अपने परिजनों को मरने में मदद करने के लिए आये होते हैं। ऐसे लोग पूरे समय घर में रामचरित मानस का पाठ करते हैं या मृत्यु को लेकर मानसिक तैयारी का वातावरण रच रहे होते हैं। सवाल है, क्या ये लोग जो देश-दुनिया के कोनों से इस प्राचीन शहर में मृत्यु का वरण करने के लिए आते हैं, वे अपने जीवन में निराश, हताश और असफल होते हैं? बिल्कुल नहीं।
सहज मुक्ति और दिव्य उपाधि मानने की परंपरा
इनमें से ज्यादातर लोग सफल, समृद्ध और संवेदनशील जीवन जीए होते हैं, ये संसार से विरक्त हो चुके होते हैं, मृत्यु को सहज मुक्ति का साधन मान रहे होते हैं। यहां कई पश्चिमी देशों की तरह मृत्यु की कामना रखने वाले लोग ऐन-केन प्रकारेण मृत्यु का वरण करने के लिए उद्धत नहीं होते, बल्कि हंसी, खुशी और पूरी सहजता से मृत्यु की अगुवानी करते मिलते हैं। ये रोजमर्रा जीवन की तरह भोजन करते हैं, भगवत भजन करते हैं और अगर चोट लग जाए या कोई शारीरिक परेशानी पैदा हो जाए, तो बकायदा उसका इलाज कराते हैं।
ये खुद को मृत्यु की झोली में अपनी गलतियों से नहीं डालते बल्कि प्रकृति को उसके हिस्से का काम करने देते हैं यानी जब वास्तव में मरना होता है, तभी ये मरना चाहते हैं। बस सपना ये है कि ये काशी में मरें। यह प्राण त्यागने की स्वाभाविक प्रक्रिया का सम्मान है। प्राण त्यागने की कोशिश नहीं है। हिंदू परंपरा में मृत्यु को भी एक नया जन्म माना जाता है, लेकिन काशी में मृत्यु एक परम उपाधि है। लोग मानते हैं कि काशी एक विशाल श्मशान है। यहां हमेशा भगवान शिव की मौजूदगी रहती है, जो काशी में मरने वालों को कर्मों की जटिलता से मुक्ति देकर जन्म-मृत्यु के सिलसिले से बाहर कर देते हैं।
21वीं सदी में भी काशी की निर्भय सांस्कृतिक दृष्टि का महत्व
काशी में मरने वालों का अंतिम संस्कार गंगा में होता है। कुल मिलाकर काशी में मृत्यु की प्रतीक्षा करना जीवन से पलायन नहीं बल्कि भावनाओं, विश्वास और दर्शन का संगम है। काशी में मृत्यु एक ऐसा दर्शन है जिसमें जीवन की परम सच्चाई को स्वीकार किया जाता है और मृत्यु से बिना डर, बिना भय के गले लगने की कामना व्यक्त की जाती है। इसलिए लोग कहते हैं, वे यहां मरने नहीं, मुक्त होने आये हैं।
21वीं सदी में भी यह परंपरा आश्चर्य पैदा करती है, लेकिन यह शायद अभी भी इसलिए कायम है, क्योंकि लोगों का अभी भी जीवन और ईश्वर के प्रति आध्यात्मिक विश्वास बना हुआ है। काशी की सांस्कृतिक निर्भयता में यह सांस्कृतिक मंत्र है, जो मानव सभ्यता को मृत्यु के दरवाजे पर सभ्यता के शिखर की तरफ लेकर आती है। इसलिए कहा गया है कि काशी में मृत्यु होने के सुख का वर्णन करते ऋषि-मुनि भी नहीं थकते।
-एन. के. अरोड़ा
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