अपनी टांग उघारिये आपहिं मरिये लाज

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बेटा अपनी अम्मा से बोला-
अम्मा, तुमरे हाथों का खाना इतना भाता-
सच कहता हूँ, मन का कमल खिल जाता,
भले ही हो वो रोटी, परांठा या पूड़ी,
दाल या सब्जी, स्वाद में होतीं तगड़ी।

पर तुमरी बहू के हस्तों का भोजन नीरस ही लगा करता,
ऐसा लगता, मानो आहार बनाने में दिल नहीं लगा करता।

ढंग की रोटी तक उससे नहीं बनती,
तरकारी भी बेहद बेस्वादु ही लगती।

स्वादहीन खाने पे कभी-कभी इतना क्रोध आया करता,
सम्पूर्ण आहार को फेंकने का ही मन कर जाया करता।

परन्तु तुम्हारे दिये संस्कार के चलते किसी तरह उसे खा लिया करता,
किसी भी हाल में अन्न का अपमान करने का पाप नहीं किया करता।

पत्नी को तो जायकेदार आहार बनाना आना ही चाहिये,
न आये बनाना, लगन से, मेहनत से सीखना ही चाहिये।
खैर, उसके रसहीन खाने की बुराई उसके मायकेवालों से करूंगा,

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उसके मायकेवालों से ही नहीं, अपने कुटुंब के लोगों से भी करूंगा।
इस बीच अम्मा ने टोका,
कुछ और कहने से रोका,

बोलीं, बुराई से तुझे आत्मसंतुष्टि मिल जायेगी?
पतोहू, तेरा मनपसंद आहार बनाने लग जायेगी?
शिकायत करके बेवकूफ, अपने ही हाथों अपनी जगहँसाई करवायेगा,
अपनी टांग उघारिये, आपहिं मरिये लाज युक्ति चरितार्थ करवायेगा।

याद रख, घरवालों की कमजोरी बाहरवालों को नहीं बतानी चाहिये,
आ बैल मुझे मार वाली हरकतें करने की भूल नहीं करनी चाहिए।
अगर तेरी किसी कमी को भी बहू जग जाहिर करने लगे, तुझे सुहायेगा?
आव देखेगा न ताव, तू तो उसपे क्रोध के अंगारे ही बरसाने लग जायेगा।

खैर, चिंता मत कर, तेरी चाहत के हिसाब से ही बहू खाना बनाने लगेगी,
फिर तुझे मेरे नहीं, उसके हाथों की खाद्यसामग्रियां अधिक भाने लगेंगी।
उसे इतना निपुण कर दूंगी, तू अंगुलियां ही चाटते रह जाएगा,
भूले से भी उसके विरुद्ध कभी भी, कुछ भी नहीं कह पाएगा।

-महेन्द्र अग्रवाल

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