सबसे पहले मन की शुद्धि आवश्यक : राजमतीजी म.सा.

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हैदराबाद, मन पवित्र नहीं, तो कुछ नहीं हो सकता है। पहले मन की शुद्धि करना आवश्यक है। इसके बाद वचन और काया की शुद्धि करें। इससे मोक्ष की मंजिल प्राप्त कर सकते हैं। उक्त उद्गार सिख छावनी स्थित श्री आनंद भवन में श्री जैन श्रावक संघ कोरा (छावनी) के तत्वावधान में आयोजित चातुर्मासिक धर्मसभा को संबोधित करते हुए महासती श्री राजमतीजी म.सा ने दिये।

यहाँ महामंत्री गौतमचंद मुथा द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, पूज्य राजमतीजी म.सा. ने कहा कि भगवान की वाणी से कर्मों की निर्जरा होती है। हर व्यक्ति मोक्ष की चाह करता है। जिनवाणी सुनने से कान पवित्र होते हैं। दर्शन से नेत्र और सुमिरन से मन पवित्र होता है। मन को सरल रखेंगे तो भव अपने आप कम होगा। फिर हमें छठे आरे में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मन शुद्ध नहीं होगा, तो छठा आरा अपने आप मिलेगा।

चाहे दान, पुण्य थोड़ा करो, लेकिन मन के राग-द्वेष, अहंकार, मान, माया, आलस, प्रमाद को धीरे धीरे दूर करेंगे तो जीवन का कल्याण होगा। जीवन में मन, वचन, काया की शुद्धि आवश्यक है। अगर समकित को धारण किया है तो समकित से 67 बोल आना जरूरी है। म.सा. ने कहा कि सबसे पहले मन की शुद्धि करें। मन शुद्ध नहीं होगा, तो फिर चाहे जितना सुख हो, उसमें आनंद नहीं मिलेगा। पहले के समय में सभी कम खाते थे तो भी मौज थी, पर आज कितना भी खा रहे हैं, आनंद नहीं है।

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मन, वचन और काया की शुद्धि से मोक्ष प्राप्ति

म.सा. ने कहा कि पानी को गंदा करो, पर पानी थोड़े समय के बाद गंदगी को साफ कर लेता है। इसलिए जल हमेशा शुद्ध रहता है। मन को भी पानी की तरह पवित्र रखने पर आत्मा का कल्याण होता है। जीवन में क्रोध-मान-माया-लोभ आ गये तो चले जाएंगे, पर उनके साथ जो कचरा आता है, वह हमारे आचार, विचार और व्यवहार को बिगाड़ देता है। यदि मन पवित्र है, तो कचरा टिकने वाला नहीं है। जीवन में थोड़ा ही सही, पर मन, वचन, काया से धर्म करो।

महावीर को भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन प्रभु ने अपने मन को कभी मलिन नहीं किया। कर्म काटकर मोक्ष में गये। अच्छे कर्म का अच्छा फल मिलेगा। संघ के महामंत्री गौतमचंद मुथा ने मंच संचालन करते हुए जिनवाणी सुनने पधारे महानुभावों का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि नवकार महामंत्र का जाप निरंतर गतिमान है। प्रवचन प्रतिदिन 9.15 से 10.15 बजे तक रहेगा। महावीर गाथा का वाचन जीव्याश्रीजी ने किया।

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