धराली में जल प्रलय : दोषी कौन?

उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले का धराली गाँव – हिमालय की गोद में बसा एक खूबसूरत पर्यटक स्थल – मंगलवार, 5 अगस्त 2025 को एक भयावह प्राकृतिक आपदा का शिकार हो गया। खीर गंगा नदी में अचानक आई बाढ़ ने इस शांत गाँव को मलबे और तबाही के ढेर में बदल दिया। धराली में मंगलवार दोपहर करीब 1:45 बजे खीर गंगा नदी में अचानक उफान आया, जो मात्र 34 से 58 सेकेंड में विनाशकारी सैलाब में बदल गया।

इस तेज बहाव से धराली के बाजार, अनेक घर, होटल, होम स्टे और ऐतिहासिक कल्प केदार मंदिर मलबे में दब गए। इस आपदा में बहुत सारे लोगों की मृत्यु हो चुकी है और अनेक लापता हैं। (यह टिप्पणी लिखे जाने तक) सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और आईटीबीपी की टीमें युद्धस्तर पर बचाव और राहत कार्य में लगी हुई हैं। लेकिन खराब मौसम और बुनियादी ढाँचे की कमी की वजह से उन्हें भी बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

प्राकृतिक आपदा या मानवीय लापरवाही : धराली त्रासदी के कारण

प्रारंभिक रिपोर्टों में इस आपदा को बादल फटने का परिणाम बताया गया, लेकिन भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने इस दावे को खारिज किया है। उत्तरकाशी में दर्ज की गई बारिश बादल फटने के मानकों से काफी कम है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह आपदा ग्लेशियर पिघलने या हिमनदी झील के फटने से आई बाढ़ (ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड) का परिणाम हो सकती है, जैसा कि 2021 में चमोली में देखा गया था। इसके अलावा, लगातार बारिश से मिट्टी का संतृप्त होना, भूस्खलन और मलबे का प्रवाह भी इस त्रासदी के कारण हो सकते हैं।

इस तरह की त्रासदियों के लिए जिम्मेदारी तय करना आसान नहीं। इसके पीछे प्राकृतिक और मानवजनित दोनों वजहें शामिल हैं। प्राकृतिक रूप से, जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना और अनियमित मौसमी पैटर्न इस आपदा के लिए एक हद तक ही जिम्मेदार हैं। इनकी तुलना में, मानव गतिविधियाँ जल प्रलय की ऐसी त्रासदियों को बढ़ाने में ज़्यादा अहम भूमिका निभाती हैं।

धराली आपदा : विकास की दौड़ में उपेक्षित पर्यावरणीय संतुलन

अनियोजित शहरीकरण, नदियों के किनारे अवैध निर्माण और जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने प्राकृतिक जल निकासी तंत्र को बाधित किया है। स्थानीय और राज्य प्रशासन की ओर से आपदा प्रबंधन योजनाओं का प्रभावी कार्यान्वयन न होना और पर्यावरण नियमों का उल्लंघन भी निश्चय ही इसके लिए ज़िम्मेदार हैं।

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इसके अलावा, पर्यटकों और तीर्थयात्रियों की भारी भीड़ के प्रबंधन में कमी और ग्लेशियल झीलों की निगरानी में लापरवाही ने स्थिति को और गंभीर बनाया। यह सामूहिक जिम्मेदारी है, जिसमें सरकार, स्थानीय समुदाय और पर्यटक सभी शामिल हैं। आपदा से निपटने के लिए तात्कालिक और दीर्घकालिक उपायों की ज़रूरत है।

तात्कालिक रूप से, राहत और बचाव कार्यों को तेज करना होगा। हेलीकॉप्टर और ड्रोन का उपयोग कर लापता लोगों की खोज और आपूर्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए। बुनियादी ढाँचे – सड़कों और संचार लाइनों – को तुरंत बहाल करना होगा। दीर्घकाल में, हमें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को गंभीरता से लेना होगा। ग्लेशियल झीलों की निगरानी के लिए सैटेलाइट और ड्रोन आधारित प्रणालियाँ स्थापित की जानी चाहिए।

अंतत:अब समय आ गया है कि हिमालयी क्षेत्रों में अनियोजित निर्माण पर सख्त नियंत्रण लागू किया जाए और वन संरक्षण को प्राथमिकता दी जाए। मौसम विभाग की चेतावनियों को गंभीरता से लेते हुए आपदा प्रबंधन प्रणालियों को मजबूत करना होगा। स्थानीय समुदायों को आपदा प्रबंधन प्रशिक्षण और जागरूकता कार्पामों से जोड़ा जाना चाहिए।

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साथ ही, केंद्र और राज्य सरकारों को आपदा राहत कोष का प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करना होगा। धराली के निवासियों की तत्काल सहायता के साथ-साथ, हमें ऐसी नीतियाँ बनानी होंगी जो भविष्य में ऐसी आपदाओं को रोक सकें। दरअसल, यह आपदा केवल उत्तरकाशी या हिमालयी क्षेत्र ही नहीं, समूची मानवता के लिए चेतावनी है कि प्रकृति के साथ अतिचार न रुका तो प्रलय तय है!

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