जीवन रूपांतरण की प्रेरणा देते हैं महर्षि वाल्मीकि

वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
निकलकर आंखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान।
सुमित्रानंदन पंत की ये पंक्तियां हमें आदिकवि महर्षि वाल्मीकि के प्रेरक व्यक्तित्व की थाह देती हैं। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि का जीवन रूपांतरण की एक ऐसी मिसाल है, जो हर किसी को पौरुष के बल पर स्वयं को किसी भी हद तक ऊपर उठाने की प्रेरणा देता है। हम सब जानते हैं कि पहले उनका नाम रत्नाकर था।
वे अपने इलाके के खतरनाक डाकू थे, किंतु एक दिव्य प्रेरणा के चलते उन्होंने ईश्वर की तपस्या का कठिन मार्ग अपनाया और अपने समूचे जीवन को पूरी तरह से बदल दिया। उनका यह बदलाव दुनिया के हर इंसान के लिए सहज प्रेरणा है कि मनुष्य अपने कर्मों और दृढ़ मान्यताओं से स्वयं में किसी हद तक सुधार कर सकता है।
वाल्मीकि आश्रमों का धार्मिक और सामाजिक महत्व
रामायण के रचियता संस्कृत साहित्य के आदिकवि वाल्मीकि वह महारथी हैं, जिन्होंने हिंदू धर्म और संस्कृति को कर्तव्य, नैतिकता, अनुशासन और आदर्श की शिक्षाएं दी हैं। महर्षि वाल्मीकि जयंती शरद पूर्णिमा को मनाई जाती है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक, जब भगवान श्रीराम ने माता सीता को वनवास भेजा था, तो वह महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में ही रही थीं या कह सकते हैं कि उन्हें महर्षि वाल्मीकि ने आश्रय दिया था और उनके पुत्रों लव व कुश को शिक्षित एवं दीक्षित भी किया था।
इसी वजह से आज भी वाल्मीकि आश्रमों का धार्मिक और सामाजिक महत्व है। महर्षि वाल्मीकि की जीवनी हमें यह सीख देती है कि कोई भी व्यक्ति अगर अपनी जिंदगी में सकारात्मक बदलाव करना चाहता है, तो वह ऐसा कर सकता है। जिस तरह रत्नाकर डाकू से उन्होंने खुद को महर्षि वाल्मीकि बनाया, उससे हर कोई यह सीख लेकर आदर्श का उच्च पाठ सीख सकता है।
वाल्मीकि जयंती: सांस्कृतिक और धार्मिक गौरव का पर्व
वाल्मीकि समुदाय की धार्मिक एवं आध्यात्मिक पहचान को व्यक्त करने का वाल्मीकि जयंती सबसे उपयुक्त दिन होता है। इससे सामाजिक समरसता बढ़ती है और विभिन्न तरह के सांस्कृतिक कार्पामों से सार्वजनिक जीवन प्रेरित होता है। वाल्मीकि जयंती विभिन्न तरह की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों के जरिये सम्पन्न होती है।
इस दिन मंदिरों में विशेष पूजा और अलंकरण गतिविधियां सम्पन्न होती हैं, विशेष रूप से वाल्मीकि मंदिरों को फूलों, दीपों और रंगोलियों से सजाया जाता है। महर्षि वाल्मीकि की विशेष आरती सम्पन्न होती है और उनकी स्तुति के गीत गाये जाते हैं। इस दिन रामायण का पाठ और भजन, कीर्तन भी होते हैं। देश के कई स्थानों पर वाल्मीकि जयंती के दिन मेले लगते हैं।
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अमृतसर के राम तीर्थस्थल पर विशेष रूप से महर्षि वाल्मीकि की जयंती मनायी जाती है। माना जाता है कि यहीं पर उन्होंने सीता जी को आश्रय दिया था। यहां उनकी 8 फीट ऊंची सोने की पट्टिका वाली मूर्ति है। हर साल महर्षि वाल्मीकि जयंती पर देश-विदेश से लोग यहां आते हैं। इसी तरह चेन्नई में तिरुवन्मियूर वाल्मीकि मंदिर है। माना जाता है कि ये 1300 साल पुराना है। कहा जाता है कि रामायण की रचना के बाद महर्षि वाल्मीकि ने इसी मंदिर में विशेष पूजा-पाठ करके विश्राम किया था।
-आर.सी.शर्मा
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