बोध कथा : जाने किस वेश में….

एक समय किसी नगर में शिवजी के दो परम भक्त रहते थे। दोनों के जीवन में ज़मीन-आसमान का अंतर था। एक बहुत धनी था। सभी सुख-सुविधाओं का मालिक होने के कारण ऐश-ओ-आराम का जीवन व्यतीत कर रहा था और दूसरा अत्यंत द्ररिद्र था। भिक्षा से दो समय का भोजन जुटा पाता था, लेकिन शिव भक्ति में दोनों में से कोई भी कम नहीं था। जब वे एकाग्रचित्त होकर शिव-स्मरण करते तो शिव गद्गद् हो उठते थे।
एक दिन कैलाशवासी शिव के मन में विचार आया कि दोनों भक्तों की परीक्षा ली जाए। अत वे भूलोक पर पहुंचे। अपने वास्तविक रूप में धनी व्यक्ति के द्वार पहुंचे और उससे बोले-मैं शिव हूं। कुछ खाने-पीने को दो। धनी व्यक्ति ने शिव की ओर बड़े ध्यान से निहारा और हंसकर बोला-शिव का अच्छा स्वांग रचा है तुमने। तुम शायद मेरे विषय में यह अच्छी तरह जानते हो कि मैं शिवभक्त हूं, इसीलिए मेरी भक्ति का लाभ उठाने के लिए अपने आपको शिव बताकर भोजन और दान प्राप्त करने की इच्छा से यहां चले आए। मैं ऐसे व्यक्तियों को ख़ूब समझता हूं। चुपचाप यहां से खिसक जाओ।
दरिद्र भक्त की भक्ति और शिव का वरदान
धनी व्यक्ति के ऐसा कहते ही शिव जी अंतर्धान हो गए। इस तरह ग़ायब होते देखकर धनी व्यक्ति के होश फाख्ता हो गये। सोचा कि यह तो सचमुच शिव जी ही थे। यह मेरा दुर्भाग्य है कि अहंकार में फंसकर मेरी आंखें उन्हें पहचानने में धोखा खा गईं। वह पश्चाताप् की अग्नि में जलने लगा। इसके बाद शिव जी सीधे द्ररिद्र की झोपड़ी पर पहुंचे। उन्होंने एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और आवाज़ लगाई-भक्त, मैं शिव हूं। भूखा हूं, कुछ जलपान कराओगे?
द्ररिद्र व्यक्ति दौड़ा-दौड़ा बाहर आया। ब्राह्मण देवता के चरणों में दंडवत् किया। उन्हें झोपड़ी में ले जाकर एक फटे-गले टाट के टुकड़े पर बैठाया और घर में जो भी रूखा-सूखा था, वह प्रभु के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। शिव जी ने भोजन ग्रहण किया और तृप्त होकर अति प्रसन्न मुद्रा में द्ररिद्र व्यक्ति से पूछा- मैं शिव हूं। मेरे इस कथन को तुमने सत्य कैसे मान लिया?
द्ररिद्र ने हाथ जोड़कर कहा- प्रभु! मैं तो परम द्ररिद्र हूं। अभावों में जी रहा हूं। ऐसी दशा में मेरी झोपड़ी में कुछ प्राप्त करने की इच्छा से भला कौन आएगा? मैं भक्त हूं, इसलिए मेरी परीक्षा की आवश्यकता केवल शिव जी को है। आपको ब्राह्मण रूप में देखकर विश्वास हो गया कि और कोई नहीं, ये तो नीलकंठेश्वर ही हैं। भगवान शिव अपने असली रूप में आ गए। दरिद्र को दर्शन देकर उन्होंने उसे सदा सुखी रहने का वरदान दिया और अंतर्धान हो गए। उसके बाद ग़रीब की झोपड़ी सोने-चांदी और हीरे जवाहरातों से भर गई।
परशुराम संबल
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