दम तोड़ रहा नक्सलवाद!
नक्सलवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई अब एक निर्णायक मोड़ पर है। हाल के ऑपरेशनों ने नक्सलियों को बड़ा झटका दिया है। 2024 में छत्तीसगढ़ में 287 नक्सलियों को मार गिराया गया, करीब 1000 को गिरफ्तार किया गया और 837 ने आत्मसमर्पण किया। मई 2025 में छत्तीसगढ़ के कर्रेगुत्तालु हिल्स में 31 नक्सलियों को खत्म किया गया और उनके ट्रेनिंग कैंप व गुप्त अस्पताल को नष्ट कर दिया गया।
नक्सलवाद की जड़ें, विस्तार और गिरावट की कहानी
सीपीआई-माओवादी के महासचिव नंबाला केशव राव (बसवराजु) और झारखंड में एक अन्य कमांडर की मौत ने नक्सलियों की कमर तोड़ दी। सयाने बता रहे हैं कि ग्यारह साल पहले 126 जिले नक्सली हिंसा की चपेट में थे। जबकि अब नक्सलवाद सिर्फ छह जिलों – बीजापुर, कांकेर, नारायणपुर, सुकमा, पश्चिमी सिंहभूम और गढ़चिरौली – तक सिमट गया है। हिंसक घटनाएँ 2014 की 1,080 से घटकर 2024 में 374 हो गईं और सुरक्षाबलों की मौतें 287 से घटकर 19 रह गईं। इसे केंद्र सरकार की रणनीति की कामयाबी कहा जाना ठीक है।
सीआरपीएफ और कोबरा जैसे विशेष दस्तों ने नक्सलियों की सप्लाई चेन और भर्ती को तोड़ा है। खुफिया जानकारी और नक्सली इलाकों में सुरक्षा शिविरों ने उनकी गतिविधियों पर लगाम लगाई। साथ ही, आकांक्षी जिला कार्यक्रम और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं ने गरीबी और अलगाव जैसे मूल कारणों को दूर करने की कोशिश की। आत्मसमर्पण की नीति भी रंग लाई। जैसे सुकमा में 18 नक्सलियों ने हथियार सौंप दिए। वे माओवादी विचारधारा से तंग आ चुके थे। बसवराजु के एक करीबी ने भी मौत के डर से आत्मसमर्पण किया। ये कदम दिखाते हैं कि 31 मार्च, 2026 तक नक्सलवाद को खत्म करने का लक्ष्य करीब है।
पीछे मुड़कर देखें तो, नक्सलवाद की शुरूआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में हुई। तब गरीब किसानों ने जमींदारों के खिलाफ बगावत की थी। माओवादी विचारधारा से प्रेरित यह आंदोलन 2004 में सीपीआई-माओवादी बनने के बाद संगठित विद्रोह में बदल गया। इसके सशस्त्र दस्ते पीपुल्स लिबरेशन गोरिल्ला आर्मी ने सरकार के खिलाफ जनयुद्ध छेड़ा, जिसमें सुरक्षाबलों, अधिकारियों और बुनियादी ढाँचे को निशाना बनाया गया। 2000 के दशक के अंत में यह 180 जिलों में फैल गया। खासकर छत्तीसगढ़ के बस्तर, झारखंड और ओडिशा जैसे आदिवासी इलाकों में।
यह भी पढ़ें… आतंक के विरुद्ध अडिग संकल्प
नक्सलवाद खत्म करने के लिए समग्र रणनीति ज़रूरी
यहाँ गरीबी, जमीन छिनने और बुनियादी सुविधाओं की कमी से नक्सलियों को समर्थन मिला। उनकी ताकत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2010 का दंतेवाड़ा हमले में नक्सलियों ने 76 सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया था। लेकिन उनकी हिंसक रणनीति और जड़ विचारधारा ने कई समर्थकों को उनसे दूर भी किया। साथ ही ऑपरेशन ग्रीन हंट जैसे कदमों ने उन्हें कमजोर किया।
यहाँ यह भी कहना ज़रूरी है कि सुरक्षाबलों की हालिया सफलताओं को देखते हुए 2026 तक माओवाद के पूर्ण सफाये का लक्ष्य भले करीब दिख रहा हो, लेकिन यह भी सच है कि नक्सलवाद को जड़ से खत्म करने के लिए सिर्फ सैन्य कार्रवाई काफी नहीं। कइयों को तो यह भी लगता है कि आक्रामक ऑपरेशन आदिवासियों को सरकार से दूर कर सकते हैं। ऐसे अभियानों पर प्राय फर्जी मुठभेड़ और मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगते रहते हैं न! शांति वार्ता की कमी भी एक मुद्दा है, जो नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने का मौका कम करती है।
यह आशंका भी निर्मूल नहीं है कि बस्तर जैसे खनिज-समृद्ध इलाकों में खनन को बढ़ावा देने से कॉर्पोरेट शोषण का डर है, जिससे फिर से अशांति भड़क सकती है। अत नक्सलवाद को पूरी तरह खत्म करने के लिए सरकार को सुरक्षा के साथ-साथ समावेशी विकास पर जोर देना होगा। स्थानीय शासन को मजबूत करना, वन अधिकार कानून के तहत जमीन देना और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ बढ़ाना जरूरी है। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए पुनर्वास (नौकरी, प्रशिक्षण और जमीन देना) बढ़ाना होगा। शहरी नक्सलवाद और उनके वित्तीय नेटवर्क पर भी नकेल कसनी होगी। 2026 तक रेड कॉरिडोर को हिंसा से मुक्त कर विकास का रास्ता बनाना होगा, ताकि नक्सलवाद के बजाय हर दिशा में समृद्धि का झंडा ऊँचा हो सके।
अब आपके लिए डेली हिंदी मिलाप द्वारा हर दिन ताज़ा समाचार और सूचनाओं की जानकारी के लिए हमारे सोशल मीडिया हैंडल की सेवाएं प्रस्तुत हैं। हमें फॉलो करने के लिए लिए Facebook , Instagram और Twitter पर क्लिक करें।





