बिहार विधानसभा चुनाव से मिलते संकेत

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कुल मिलाकर बिहार में मुख्य लड़ाई दो स्थापित गठबंधनों के बीच ही है। निस्संदेह, कुछ उम्मीदवारों को लेकर भाजपा के अपने ही कार्यकर्ताओं व समर्थकों में असंतोष है और उसका थोड़ा असर भी होगा, किंतु दूसरे गठबंधन में कलह और विद्रोह कहीं ज्यादा है। इसमें गठबंधन की एकजुटता, चुनावी तैयारी – प्रबंधन, नेतृत्व की छवि, जनता के मुद्दे और मतदाताओं के सामूहिक मनोभावों में बड़े परिवर्तन की कामना न होने जैसे कारक ही चुनाव परिणाम निर्धारित करने में मुख्य भूमिका निभाएंगे।

बिहार विधानसभा चुनाव की राजनीति स्वाभाविक ही चरम पर है। जब तक किसी चुनाव का परिणाम नहीं आता तब तक हर प्रकार के विश्लेषण और अनुमान आते रहते हैं, आते रहेंगे। बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर आम विश्लेषण यह है कि भाजपा जद यू वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या राजग और राजद, कांग्रेस, वामदल आदि के गठबंधन के बीच जबरदस्त टक्कर है और प्रशांत किशोर की नवगठित जन सुराज तीसरा स्थान पाने की स्थिति में है।

एक विश्लेषण यह भी है कि जन सुराज पार्टी दोनों पक्षों को क्षति पहुंचाकर प्रभावी स्थान बना सकती है। प्रश्न है कि आखिर बिहार चुनाव में इस समय क्या संभावनायें दिखतीं हैं? 2020 विधानसभा चुनाव में दोनों मुख्य गठबंधनों के बीच केवल 12,768 वोटों का अंतर था। तब राजग को 37.26 प्रतिशत (1,57,01,226 ) मत मिले थे जबकि महागठबंधन के खाते में 37.23प्रतिशत (1,56,88,458 ) मत गये। दोनों के बीच .03 प्रतिशत मतों का मामूली अंतर था।

बीते चुनावों का आंकड़ा और वर्तमान गठबंधन असर

इतने मामूली अंतर से राजग को 125 एवं राजद नेतृत्व वाले गठबंधन को 110 सीटें मिली थी। अन्य को आठ पर विजय हासिल हुई। इसके आधार पर पहला निष्कर्ष यही है कि अगर विरोधी गठबंधन को थोड़े मत और आ जाते तो नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजग की सरकार नहीं बनती। इसका निष्कर्ष यह भी है कि पुन: 5 वर्ष के शासन के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी सरकार को लेकर लोगों में कुछ न कुछ असंतोष होगा और इस सत्ता विरोधी रुझान का लाभ विरोधी गठबंधन को मिल सकता है।

पिछली बार बिहार की 243 सीटों वाली विधानसभा की 52 विधानसभा सीटों पर हार-जीत का अंतर भी 5 हजार से भी कम वोटों का था। लेकिन चुनाव का अंकगणित इतना सरल नहीं होता। पिछले चुनाव में चिराग पासवान की लोजपा अकेले 137 सीटों पर लड़ गई थी और उसे 5.66 प्रतिशत यानी 23 लाख 83 हजार, 457 मत मिले थे। इस बार चिराग पासवान गठबंधन में हैं और इन मतों को मिला दें तो दोनों के बीच बड़ा अंतर आ जाता है।

राजग और महागठबंधन की सीट संख्या

तब 83 सीटों पर 10 हजार से भी कम से हार जीत हुई थी। इन 83 सीटों में 28 पर राष्ट्रीय जनता दल और 10 पर कांग्रेस को जीत मिली थी। वास्तव में 2025 के विधानसभा चुनाव पूर्व का आकलन न 2020 और न 2015 के आधार पर हो सकता है।पिछले चुनाव में राजग गठबंधन में जीतनराम मांझी की हम और उपेंद्र कुशवाहा की रालोमो भी नहीं थी। इसी तरह मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी या वीआईपी राजग में थी जो इस बार दूसरे गठबंधन में है।

अब महागठबंधन में कुल आठ दल हो गए हैं। इस समय चुनाव पूर्व राजग के पास 131 सीटें हैं, जिसमें भाजपा के पास 80, जद(यू) -45 और हम (एस) को 4 सीट है । इनके अलावा दो निर्दलीय विधायकों ने भी राजग को समर्थन दिया था। महागठबंधन के पास 111 सीटें हैं, जिनमें राजद को 77, कांग्रेस को 19, सीपीआई (एमएल) को 11, सीपीआई (एम) 2 और सीपीआई के पास 2 सीट हैं।

इस बार इसमें वीआईपी, झारखंड मुक्ति मोर्चा और पशुपति पारस की लोजपा भी आ गई है। इस तरह विरोधी गठबंधन में 8 दल हो गए हैं । 2024 लोकसभा चुनाव के अनुसार देखें तो भाजपा को 20.52 प्रतिशत मत और 12 सीट, जद यू को 18.52प्रतिशत मत और 12 सीट , लोजपा 5.47 प्रतिशत मत व पांच सीट, हम-1, दूसरी ओर राजद को 22.5 प्रतिशत मत एवं 4 सीट, कांग्रेस को 9.20 प्रतिशत मत एवं 3 सीट, सीपीआई एमएल को 2.99 प्रतिशत मत एवं 2 सीटें मिलीं थीं।

चिराग पासवान की लोजपा से जदयू पर प्रभाव

2024 लोकसभा चुनाव के अनुसार राजग को 175 सीटों पर बढ़त है। इनमें भाजपा 68, जद यू 74, लोजपा- 29 और हम 5 पर आगे है। दूसरी ओर राजद गठबंधन को केवल 62 सीटों पर बढ़त है। इनमें राजद 36, कांग्रेस और सीपीआई एमएल 12- 12 , वीआईपी -1 एवं सीपीआई -एम 1 सीट पर आगे थी। 2020 विधानसभा चुनाव को भी देखें तो लोजपा जदयू से जुड़ा एक आंकड़ा और महत्वपूर्ण है। चिराग पासवान की लोजपा केवल एक सीट जीत सकी लेकिन कुल 33 सीटों पर जद यू को सीधा नुकसान पहुंचाया था। 54 ऐसी सीटें थी, जहां पर लोजपा को जीत-हार के अंतर से अधिक वोट मिले थे।

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इनमें 25 सीटों पर जदयू दूसरे नंबर पर थी और उसकी हार का अंतर चिराग के उम्मीदवारों को मिले वोट से कम था। साथ होने पर जद यू के खाते में 25 सीटें बढ़ जातीं। 9 सीटें ऐसी थीं, जिन पर चिराग पासवान की पार्टी दूसरे नंबर पर थी। इन 9 में से केवल दो रुपौली और हरनौत जद यू जीती और 7 पर उसकी हार हुई थी। जिस मटिहानी पर लोजपा ने जीत दर्ज की उस पर जद यू दूसरे नंबर पर थी।

इनमें कड़वा और कस्बा में कांग्रेस जीती तो रघुनाथपुर, जगदीशपुर, ब्रह्मपुर, दिनारा और ओबरा में राजद। ाह एक तथ्य बताता है कि लोजपा के कारण राजद और कांग्रेस को कई ऐसी सीटें मिलीं जो जद यू के खाते जा सकती थी। साथ रहते तो जद यू की सीटों की संख्या 76 हो जाती और राजग 150 का भी आंकड़ा पार कर सकता था। अंकगणित के इन तथ्यों के आईने में वर्तमान चुनाव को देखिए और निष्कर्ष निकालिए।

नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनने में बदलाव

लंबे समय की सत्ता के कारण सरकार, विधायकों, मंत्रियों, नेतृत्व यानी मुख्यमंत्री आदि सभी को लेकर कुछ न कुछ असंतोष का भाव होता है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस तरह भाजपा को छोड़ राजद और राजद छोड़ भाजपा से हाथ मिलाया उनसे उनकी साख और विश्वसनीयता काफी क्षीण हुई। बीच के काल में गुस्सा, तिलमिलाहट और वक्तव्यों में काफी असंतुलन उनकी पहचान बन रहा था। किंतु पिछले 6 महीनों में आप इसमें गुणात्मक परिवर्तन देख रहे होंगे। पहले लगता था कि दोबारा साथ आने के बावजूद भाजपा उन्हें चुनाव में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाने से परहेज करेगी।

तेजस्वी यादव सहित विरोधी नेताओं ने लगातार प्रचारित भी किया कि चुनाव लड़ने के बाद भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी। भाजपा के ज्यादातर शीर्ष नेताओं ने इधर लगातार बयान दिया कि हम नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहे हैं और फिर से वही मुख्यमंत्री होंगे। तो इसे लेकर संदेह बिल्कुल समाप्त हो गया है। इस कारण नीतीश कुमार के समर्थक मतदाताओं के अंदर का ऊहापोह भी खत्म हो गया होगा।

सीटों को लेकर गठबंधन में समस्याएं हमेशा रही हैं और इस बार भी हैं। बावजूद नीतीश कुमार चुनाव प्रचार कर रहे हैं और सभी घटक दल उनके साथ खड़े हैं। सबसे बढ़कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सभी एकजुट हैं और उनका आभामंडल सब पर भारी है। भाजपा और राज्य की ओर से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की नेतृत्वकारी राजनीतिक भूमिका का भी गहरा प्रभाव दिखाई देता है।

यह भी पढ़ें… आखिर गठबंधन की गदहपचीसी में कब तक उलझा रहेगा बिहार?

बिहार चुनाव 2025: गठबंधन एकजुटता और मतदाता रुझान

नेतृत्व के साथ एकजुटता की यही तस्वीर विरोधी खेमे में नहीं दिखाई देती। प्रशांत किशोर ने लंबी यात्राएं कर लोगों से संवाद किया है और उसका असर है। पर जमीन के स्तर पर दोनों गठबंधनों के मतदाताओं और समर्थकों के जन सुराज की ओर मुड़ने के न संकेत हैं और न इसके ठोस कारण दिखाई देते हैं। नई पार्टी तभी सफल हो सकती है जब सत्तारूढ़ घटक के विरुद्ध जनता में जबरदस्त असंतोष हो और बहुमत हर हाल में उन्हें उखाड़ फेंकना चाहता हो तथा विरोध करने वाले मतदाता यह मान चुके हो कि वर्तमान विरोधी गठबंधन भाजपा से मुकाबला करने में सक्षम नहीं है।

अवधेश कुमार
अवधेश कुमार

केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार और प्रदेश की नीतीश सरकार के विरुद्ध वैसा असंतोष कहीं नहीं है। भाजपा जदयू विरोधियों के अंदर भी यह भाव निर्मित नहीं हुआ कि विरोध के लिए अब राजद कांग्रेस आदि प्रभावी नहीं रहे और हमें जन सुराज की ओर पूरी तरह मुड़ जाना चाहिए। तो कुल मिलाकर बिहार में मुख्य लड़ाई दो स्थापित गठबंधनों के बीच ही है। निस्संदेह, कुछ उम्मीदवारों को लेकर भाजपा के अपने ही कार्यकर्ताओं व समर्थकों में असंतोष है और उसका थोड़ा असर भी होगा, किंतु दूसरे गठबंधन में कलह और विद्रोह कहीं ज्यादा है। इसमें गठबंधन की एकजुटता, चुनावी तैयारी – प्रबंधन, नेतृत्व की छवि, जनता के मुद्दे और मतदाताओं के सामूहिक मनोभावों में बड़े परिवर्तन की कामना न होने जैसे कारक ही चुनाव परिणाम निर्धारित करने में मुख्य भूमिका निभाएंगे।

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