माँ के जीवन में लौटी मुस्कान

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मीना के हाथ कभी बेहद खूबसूरत हुआ करते थे, पतली, नाज़ुक उंगलियाँ और कोमल हथेलियाँ। उन पर जब वह हल्की-सी नेल पॉलिश लगा लेती, तो हाथ किसी गुड़िया के लगते। बचपन में माँ के घर वह उन कामों से हमेशा बचती थी, जिनसे उसके हाथ खराब हो सकते थे। माँ भी प्यार से कहतीं, ‘रहने दे मीना, तेरे हाथ तो बहुत कोमल हैं।’

लकड़ी के चूल्हे की कालिख़ से बर्तन धोना सचमुच मुश्किल था और माँ अपनी गुड़िया के हाथों को बचाए रखतीं। वक्त का तकाज़ा सबको बदल देता है। विवाह के बाद मीना के नाज़ुक हाथों ने घर-गृहस्थी की सारी जिम्मेदारियाँ उठा लीं। सुबह से रात तक काम ही काम बच्चों की देखभाल, खाना बनाना, सफाई, बर्तन, कपड़े। अब वही हाथ जो कभी फूलों जैसे थे, खुरदरे और रूखे हो गए थे। कभी-कभी जब वह अपने हाथों को देखती, तो मन के किसी कोने में एक टीस उठती, ‘क्या ये वही हाथ हैं, जो कभी सबकी नज़रों का केंद्र हुआ करते थे?’

हालाँकि अब गैस सिलेंडर ने चूल्हे की जगह ले ली थी, पर थकान और जिम्मेदारी की कालिख अब भी हाथों पर चढ़ी रहती थी। बस दिखती नहीं थी। समय बीतता गया। मीना का बेटा मंथन अब पाँचवीं कक्षा में था। चंचल, जिज्ञासु और माँ से बेहद लगाव रखता था। एक दिन स्कूल में प्रदर्शनी लगी थी। वहाँ तरह-तरह की चीजें बिक रही थीं- खिलौने, पेंटिंग्स और घरेलू सामान।

प्यार का छोटा सा तोहफ़ा, माँ की बड़ी मुस्कान

मंथन की नज़र एक स्टॉल पर पड़ी। वहाँ हल्के आसमानी रंग के सिलिकॉन हैंड ग्लोव्स रखे थे। पोता बता रहा था, ‘इन्हें पहनकर बर्तन धोएं या कपड़े हाथ बिल्कुल सुरक्षित रहेंगे। काम के बाद साबुन से धो लीजिए, सब स़ाफ।’ मंथन की आँखों के सामने अपनी माँ की तस्वीर घूम गई। साबुन के झाग में डूबे हाथ, फटी त्वचा और थकान से झुका चेहरा। उसने तुरंत अपनी जेब खर्च से वो ग्लोव्स खरीद लिए। घर लौटकर उसने उन्हें चुपके से छिपा दिया। रात को जब मीना बर्तन धोने लगी, तो मंथन दौड़कर आया और कहा ‘मां, ज़रा ये पहन लो न। मीना ने मुस्कुराकर कहा, अरे बेटा, मैं ऐसे ही ठीक हूं।’

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मंथन ने ज़िद की, ‘बस एक बार मेरे लिए।’ मीना ने दस्ताने पहन लिए। जब बर्तन धोकर हाथ निकाले तो वह खुद हैरान रह गई न गंध, न खुरदरापन, न थकान। हाथ पहले जैसे कोमल लग रहे थे। उसने मंथन की तरफ देखा उसकी आंखों में कृतज्ञता और स्नेह था। उस दिन के बाद मीना रोज़ ग्लोव्स पहनने लगी। धीरे-धीरे उसके हाथों में फिर चमक लौट आई।

अब वह नाखूनों पर फिर से नेल पॉलिश लगाने लगी और आईने में खुद को देखकर मुस्कुरा देती। मानो उसने अपना खोया हुआ आत्मविश्वास और स्त्रीत्व फिर पा लिया हो। मंथन हर दिन उसे मुस्कुराते हुए देखता और सोचता कि मैंने मां को सिर्फ हैंड ग्लोव्स नहीं, मुस्कुराने का कारण दिया है। और सच भी यही था, कभी-कभी ज़िंदगी में बड़े बदलाव किसी बड़े काम से नहीं, बल्कि एक छोटे से दस्ताने की जोड़ी से भी आ सकते हैं।

-प्रज्ञा पांडेय मनु

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