जड़भरत को मृग मोह के कारण लेना पड़ा जन्म

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(नीति-ज्ञान)

जड़ भरत तत्वज्ञानी के पिता आंगिरस गोत्र के वेदपाठी ब्राह्मण थे। भगवान के अनुग्रह से जड़भरत को पूर्व जन्म की स्मृति प्राप्त थी। अत: सांसारिक मोह जाल में फंसने के भय से वह बचपन से ही सांसारिक संबंधों से उदासीन रहा करते थे। उपनयन के योग्य होने पर पिता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाया और उन्हें शिक्षा देने लगे। आचार्य ने उन्हें त्रिपदा गायत्री का अभ्यास कराया, परंतु वह गायत्री मंत्र का उच्चारण भी न कर सके। जड़भरत के पिता उन्हें विद्वान देखने की आशा में इस असार संसार से विदा हो गए।

पिता के परलोकवास के बाद इनके सौतेले भाइयों ने इन्हें जड़बुद्धि समझकर पढ़ाने का आग्रह छोड़ दिया। लोग जड़भरत को जो भी काम करने को कहते उसे वह तुरंत कर देते। कभी बेगार में, कभी मजदूरी पर, किसी समय भिक्षा मांगकर जो भी अन्न इन्हें मिल जाता उसी से अपना निर्वाह कर लेते थे। इन्हें यह बोध हो गया था कि स्वयं अनुभव स्वरूप और आनंद स्वरूप आत्मा मैं ही हूं। मान-अपमान, जय-पराजय, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों से मेरा कोई संबंध नहीं है। एक दिन लुटेरों के किसी सरदार ने संतान की कामना से नरबलि देने का संकल्प किया।

इस काम के लिए उसके साथियों ने जिस मनुष्य की व्यवस्था की थी, वह मफत्यु भय से उनके चंगुल से छूटकर भाग गया। अचानक उनकी दृष्टि जड़भरत पर पड़ी और वे उन्हें पकड़कर बलि-स्थल पर ले गए। जैसे ही सरदार ने उन्हें मारने के लिए अभिमंत्रित खड्ग उठाया, वैसे ही देवी ने मूर्ति से प्रकट होकर उन सभी दुष्टों को मार डाला और जड़भरत की रक्षा की।
एक दिन राजा रहूगण पालकी पर बैठकर, आत्मज्ञान की शिक्षा लेने के लिए कपिल मुनि के पास जा रहे थे। मार्ग में पालकी के एक कहार की मृत्यु हो गई।

जड़भरत की ज्ञान भरी वाणी से रहूगण विस्मित

राजा रहूगण ने अपने सेवकों से कहा कि वे कोई दूसरा कहार खोजकर लाएं। रहूगण के सेवक किसी दूसरे कहार की खोज में निकल पड़े। उनकी दृष्टि खेत की मेड़ पर बैठे जड़भरत पर पड़ी। सेवक उन्हें पकड़कर ले गए। जड़भरत ने बिना कोई आपत्ति किए, कहारों के साथ पालकी कंधे पर रख ली और बहुत संभल-संभलकर चलने लगे। उनके पैरों के नीचे कोई जीव दब न जाए, इसलिए उनके पैर डगमगा उठते थे। इससे राजा रहूगण को झटका लगता था, उन्हें कष्ट होता था।

राजा रहूगण ने कहारों से कहा, ‘तुम लोग किस तरह चल रहे हो? संभलकर सावधानी के साथ क्यों नहीं चलते? ‘ कहारों ने उत्तर दिया, ‘महाराज, हम तो सावधानी के साथ चल रहे हैं, किंतु यह नया कहार हमारे चलने में विघ्न पैदा करता है। इसके पैर रह-रहकर डगमगा उठते हैं।’ राजा रहूगण ने जड़भरत को सावधान करते हुए कहा, ‘क्यों भाई, तुम ठीक से क्यों नहीं चलते? देखने में तो हट्टे-कट्टे मालूम होते हो। क्या पालकी लेकर ठीक से चला नहीं जाता? सावधानी से मेरी आज्ञा का पालन करो, नहीं तो दंड दूंगा।’ रहूगण का कथन सुनकर जड़भरत ने कहा, आप शरीर को दंड दे सकते हैं, पर मुझे नहीं दे सकते। ‘मैं शरीर नहीं आत्मा हूं’।

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मैं दंड और पुरस्कार दोनों से परे हूं। दंड देने की तो बात ही क्या, ‘आप तो मुझे छू भी नहीं सकते। जड़भरत की ज्ञान भरी वाणी सुनकर रहूगण विस्मय की लहरों में डूब गए। ‘ उन्होंने आज्ञा देकर पालकी नीचे रखवा दी। वह उससे उतरकर जड़भरत के पैरों में गिर पड़े और कहा, महात्मन, मुझे क्षमा कीजिए। कृपया बताइए कि आप कौन हैं? कहीं आप कपिल मुनि ही तो नहीं हैं जिनके पास मैं आत्मज्ञान की शिक्षा लेने जा रहा था?

जड़भरत का ज्ञान और रहूगण का आत्मा की समझ में परिवर्तन

जड़भरत ने उत्तर दिया, ‘राजन! मैं न तो कपिल मुनि हूं और न कोई ऋषि हूं। मैं पूर्वजन्म में एक राजा था। मेरा नाम भरत था। मैंने भगवान श्रीहरि की प्रेम-भक्ति में घर-द्वार छोड़ दिया था। मैं हरिहर क्षेत्र में रहने लगा था। किंतु एक मफग शिशु के मोह में फंसकर भगवान को भी भूल गया और जब शरीर का त्याग किया, तो मफग का शरीर प्राप्त हुआ, किंतु भगवान की अनुकंपा से मेरा पूर्व-जन्म का ज्ञान बना रहा। मैं यह सोचकर बहुत दुःखी होता था कि मैंने कितनी अज्ञानता की? एक मफगी के बच्चे के मोह में फंसकर भगवान श्रीहरि को भुला दिया था। राजन! जब मैंने मृग शरीर का त्याग किया, तो मुझे यह ब्राह्मण शरीर प्राप्त हुआ।

ब्राह्मण का शरीर प्राप्त होने पर भी मेरा पूर्व-जन्म का ज्ञान बना रहा। मैं यह सोचकर कि मेरा यह जन्म व्यर्थ न चला जाए, अपने को छिपाए हूं। मैं दिन-रात परमात्मा रूपी आत्मा में लीन रहता हूं, मुझे शरीर का ध्यान बिल्कुल नहीं रहता। राजन, इस जगत् में न कोई राजा है, न प्रजा। न कोई अमीर है, न कोई ग़रीब। न कोई कृषकाय है, न कोई स्थूलकाय। न कोई मनुष्य है, न कोई पशु। सब आत्मा ही आत्मा हैं। ब्रह्म ही ब्रह्म हैं। राजन, मनुष्य को ब्रह्म की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए। यही मानव-जीवन की सार्थकता है। यही श्रेष्ठ ज्ञान है और यही श्रेष्ठ धर्म है।

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ब्रह्म की लीला समझने जगत में मिलती है सुख-शांति

रहूगण जड़भरत से अमृत-ज्ञान पाकर तृप्त हो गए। उन्होंने जड़भरत से निवेदन किया, महात्मन! मुझे अपने चरणों में रहने दीजिए, अपना शिष्य बना लीजिए। जड़भरत ने उत्तर दिया, राजन, जो मैं हूं, वही आप हैं। न कोई गुरु है, न कोई शिष्य। सब आत्मा है, ब्रह्म हैं। जड़भरत जब तक संसार में रहे, अपने आचरण और व्यवहार से अपने ज्ञान को प्रकट करते रहे। अंतिम समय आया, तो चिरनिद्रा में सो गए, ब्रह्म में समा गए। यह सारा जगत् ब्रह्म से निकला है और ब्रह्म में ही समा जाता है। ब्रह्म की इस लीला को जो समझ पाता है, उसी को जगत में सुख और शांति प्राप्त होती है।

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