जीवन को पहचानो

ऋग्वेद में लिखा है- मनुर्भव जनया देव्यं जनम् अर्थात मनुष्य को अपने आपको सच्चा मनुष्य बनाना चाहिए और दिव्य गुणों वाली संतानों को जन्म देना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो सुयोग्य मनुष्यों के निर्माण में लगातार प्रयास करना चाहिए। व्यक्ति किसी पद पर पहुंचे या ना पहुंचे, पर उसे सच्चा व्यक्ति और व्यक्तित्व जरूर बनना-बनाना चाहिए। विचार करें तो सृष्टि में हर एक वस्तु बहुत ही मूल्यवान है। मनुष्य जन्म और जीवन सबसे मूल्यवान है। व्यक्ति सृष्टि में सभी वस्तुओं का ज्ञान और भोग करने में लगा रहता है। वह स्वयं को ही भूल बैठता है, ऐसा कई बार प्रतीत होता है। मनुष्य स्वयं से ऊपर उठकर जब सर्वे भवंतु सुखिन की ओर जाता है तो वह मानव से महामानव बनता चला जाता है। जीवन को पहचानो
मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल वस्तुओं का भोग करना नहीं है, बल्कि इस धरा-धाम पर रह रहे अन्य प्राणियों की रक्षा और सेवा का काम भी है। इस धरा-धाम की सारी धरोहर भगवान ने सोच-समझकर बनाई है, लेकिन कुछ मनुष्य उसे अपना बना लेने के चक्कर में पूरी मानवता और सृष्टि के लिए खतरा पैदा कर देते हैं। इस वैश्विक दौड़ में मूल्यों का पतन तेजी से हो रहा है। सृष्टि के हर जीव को शांति चाहिए, पर मनुष्य भ्रमित जीव है। उसके पास सब कुछ होते हुए भी वह शांति से दूर कुछ पाने की कोशिश में लग जाता है।
जीवन का सच्चा अर्थ और मानवता की सेवा
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कथा
एक युवक आत्महत्या करने का प्रयास कर रहा था। एक संत ने उससे पूछा, तुम ऐसा क्यों कर रहे हैं? युवक ने उत्तर दिया, मेरे पास कुछ करने योग्य कार्य नहीं है। इसलिए जीवन को समाप्त करना चाहता हूं। संत ने कहा, मैं तुम्हें राजा से मिलवा देता हूँ। वह कोई न कोई काम दिलवा देंगे, जिससे तुम्हारा रहन-सहन और गुजर-बसर हो जाएगा।
उसकी बात सुनकर युवक प्रसन्न हुआ और संत के साथ राजा के पास चल दिया। संत ने राजा के कान में कुछ कहा और राजा ने हाँ कर दी। संत ने राजा के सामने युवक से कहा, बेटा, राजा को तुम्हारा एक कान चाहिए। उसकी वह मुंह मांगी कीमत देंगे।

युवक ने तुरंत मना कर दिया। तब संत ने एक आँख या अंगुली देने को कहा। युवक ने इसे भी देने से मना कर दिया। इस तरह कई अंगों की बात हुई, लेकिन युवक मना करता चला गया। संत ने उसे समझाते हुए कहा, जब भगवान ने तुम्हें दिव्य गुणों से भरा इतना सुंदर शरीर दिया है, सोचने-समझने की शक्ति दी है, फिर इसे क्यों नष्ट करना चाह रहे हो? इतना सुंदर मन और आत्मा है।
फिर इसका विनाश स्वयं क्यों चाहते हो? अपने आत्म-ज्ञान से आत्म-मंथन करो। अपनी बुद्धि का प्रयोग करके सृष्टि में सेवा-भाव से उतर जाओ। प्रभु ने हमें यहां सेवा-भाव के लिए ही उतारा है, लेकिन हम हैं कि अपने आप में लगे हैं। स्वयं को स्वयंभू बनाने में लगे हैं। अपनी आवश्यकताओं से दूर भी एक सुंदर जीवन है, उसे भी अच्छे से समझने और जानने की जरूरत है।
डॉ. नीरज भारद्वाज
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