चिकित्सा नोबेल पुरस्कार-2025 : मानव प्रतिरक्षा प्रणाली के नियंत्रण को समर्पित है


इस साल चिकित्सा के क्षेत्र में मिलने वाला नोबेल जिस शोध को मिला है, वह कई जटिल बीमारियों के निदान और चिकित्सा के रास्ते सुगम करने वाला है। बड़ी बात यह कि यह शोध उद्योग जगत के भीतर हुआ है, जिससे पता चलता है कि वैज्ञानिक नवाचार केवल अकादमिक प्रयोगशालाओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि दूसरी कामकाजी जगहों पर भी हो रहे हैं।
कई वर्षों से फिजियोलॉजी या चिकित्सा अथवा मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार उन खोजों को मिल रहे हैं, जो सैद्धांतिक होने के साथ व्यवहारिक और प्रायोगिक भी हैं। कह सकते हैं कि ये संबंधित विज्ञान के साथ-साथ अनुप्रयोगिक तकनीक के भी बहुत करीब हैं। ऐसे में नोबेल से पुरस्कृत ये शोध शीघ्र ही तकनीक में तब्दील हो प्रायोगिक रूप में मानव सेवा को उपलब्ध हो जाने के लिये तैयार हो सकते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में चिकित्सा क्षेत्र के नोबेल पुरस्कारों की कई खोजें व्यवहारिक स्तर पर चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य में आज प्रभावी हैं। इनमें से कई क्लिनिकल ट्रायल तक पहुंच चुके हैं, कुछ प्रायोगिक-स्तर पर हैं, कुछ पहले ही इंसानों के उपयोग में हैं, जिनमें सुधार प्रक्रिया सतत है। साल 2023 का नोबेल- डॉ. कैटलिन कैरीको और डॉ. ड्रू वेसमैन को एमआरएनए आधारित वैक्सीन निर्माण को सुगम बनाने लिए दिया गया था, जिससे कोविड-19 वैक्सीनों की तेज़ डिलीवरी संभव हुई।
नोबेल शोध: टी-सेल्स और प्रतिरक्षा नियंत्रण
आज यह तकनीक कैंसर, लू और दूसरी वायरल बीमारियों में इस्तेमाल हो रही है। पिछले साल माइाढा आरएनए और इसकी जीन नियंत्रण में भूमिका पर शोध को नोबेल मिला, अब एक बायोमार्कर के बतौर अनेक प्रकार के कैंसर के निदान में इसके इस्तेमाल पर शोध निर्णायक स्तर पर हैं। जल्द ही यह व्यवहारिक बनेगी। इस साल का नोबेल मानव प्रतिरक्षा प्रणाली को गहराई से समझने, उसे नियंत्रित करने की दिशा में गहन शोध तथा अत्यंत महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए दिया गया है।
अमेरिका की मेरी ब्रंको, फ्रेड रेम्सडेल तथा जापान के शिमोन साकागुची के शोध इस बात का जवाब हैं कि रेग्युलेटरी सेल या टीरेग्स प्रतिरक्षा तंत्र के कार्य को कैसे, किसके जरिए घटाता-बढ़ाता है? इन्हें समझने के बाद कोई ऑन-ऑफ स्विच जैसा प्लग तलाशा जाए या ऐसी विधि जिससे इसके कार्य को बढ़ाया-घटाया अथवा नियंत्रित कैसे किया जाए? शोध के दौरान उन्होंने नियामक टी-कोशिकाओं टीरेग्स और प्रतिलेखन कारक एफओएक्सपी3 को इस भूमिका के लिए पहचाना।
हालांकि 1990 के दशक में, कुछ प्रतिरक्षा विज्ञानियों ने अपने शोध के दौरान स्व-प्रतिक्रियाशील टी-कोशिकाओं के इस कार्य को परिभाषित तो कर दिया था, फिर भी वे स्वस्थ व्यक्तियों में स्व-प्रतिक्रियाशील टी-कोशिकाओं की प्रक्रिया नहीं बता सके थे। नोबेल विजेताओं ने पाया कि एफओएक्सपीओ3 के नष्ट होने से प्रतिरक्षा प्रणाली नष्ट हो जाती है। इस शोध और जैविक प्रयोगों के नतीजों ने स्वप्रतिरक्षी या ऑटोइम्यून प्रणाली से जुड़ी वैज्ञानिक समझ को बदलकर रख दिया।
प्रतिरक्षा प्रणाली और सेल्फ टॉलरेंस की खोज
नोबेल पुरस्कार विजेताओं के शोध ने प्रतिरक्षा प्रणाली से संबंधित क्रियाकलापों और कार्यप्रणालियों के जिन आणविक निर्धारकों का पता लगाया है, उसने पूरी प्रतिरक्षा प्रणाली को नए सिरे से पुनर्परिभाषित किया है और सुनिश्चित किया कि सेल्फ टोलरेंस टीरेग्स के विभेदन और रख-रखाव का नियंत्रण आणविक बदलावों पर निर्भर है। उनकी खोज से कई रोगों के शीघ्र निदान और लक्षित उपचारों का नया मार्ग प्रशस्त हुआ है।
निस्संदेह यह क्रांतिकारी खोज न केवल चिकित्सा विज्ञान में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है बल्कि इसने पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस से संबंधित प्रतिरक्षा सहिष्णुता या सेल्फ टॉलरेंस के नए क्षेत्र में आगे के शोध के लिए एक ठोस नींव भी रखी है। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर में पहुंचने वाले हर बाहरी तत्व, सूक्ष्मजीवों को उनके प्रोटीन के जरिए पहचानती, परखती है। ये विजातीय और नुकसान पहुंचाने वाले हुए तो इनसे हमलावर मानकर लड़ती है और रोग या विकार पैदा करने से उन्हें रोकती है।

यह जीवन रक्षक प्रणाली तब आत्मघाती बन जाती है, जब हमलावर बहुत चालाक निकलता है और वह ऐसा रूप बना लेता है जैसे लगे कि वह शरीर का ही हिस्सा है। ऐसे में हमारा इम्यून सिस्टम भ्रमित होकर अपने ही अंगों को नुकसान पहुंचाने लगता है, जिसे रोकना बहुत कठिन हो जाता है। कभी ऐसा भी होता है कि हमें अपने शरीर को सुचारु रूप से चलाने के लिये किसी बाहरी तत्व या अंग को शरीर में प्रत्यारोपित करना पड़ता है, लेकिन तब मुसीबत खड़ी हो जाती है जब सतर्क प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर में प्रत्यारोपित अंग को अनजाना और बाहरी समझकर उसे अस्वीकार कर देता है।
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पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस और क्लीनिकल शोध प्रभाव
इस संदर्भ में उस पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है, जिसके बारे में इस बार के नोबेल पुरस्कृत वैज्ञानिकों ने शोध किया है। यह सुरक्षा प्रणाली जो शरीर की अपनी कोशिकाओं और प्रोटीनों को पहचानती है और किसी भी हमलावर टी-सेल को निष्क्रिय या समाप्त कर देती है, ब्रूंको, रेम्सडेल और साकागुची ने इस प्रणाली के सुरक्षा प्रहरी-रेगुलेटरी टी-सेल्स की पहचान करने के साथ यह सुनिश्चित करने का तरीका खोजा कि ये टी-सेल्स इसके लिए नियंत्रक बने कि इम्यून सिस्टम गलती से अपने ही शरीर पर हमला न करे।
यह खोज प्रतिरक्षा सहिष्णुता की अवधारणा को एक नई वैज्ञानिक परिभाषा देती है और चिकित्सा विज्ञान को एक नई दिशा प्रदान करती है। इन शोधों का महत्व केवल सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यवहारिक भी है- इससे कैंसर, ऑटोइम्यून रोगों और अंग प्रत्यारोपण से जुड़ी चिकित्सा विधियों में सुधार होगा तथा भविष्य में लाखों मरीजों के लिए यह खोज रोग से राहत का कारण बनेगी; क्योंकि इसके व्यवहार में आने के बाद जब कोई ऑटो इम्यून बीमारी अथवा प्रत्यारोपण का मामला पेचीदा दिखा, तो इन रेग्युलेटरी टीसेल्स के सक्रियता को बढ़ा दिया जा सकेगा और कैंसर जैसे मामलों इसे घटाया जा सकेगा ताकि इम्यूनोथैरेपी बेहतर हो सके।
इस प्रकार के शोध पर आज 200 से अधिक क्लीनिकल ट्रायल्स चल रहे हैं। इन नैदानिक परीक्षणों में मिलती सफलता से जटिल ऑटो इम्यून रोगों के इलाज हेतु कई नई दवाओं के निर्माण की भी संभावना बन रही है। सभी आशान्वित हैं कि बहुत जल्द इस शोध और विकास के आधार पर निर्मित दवाओं एवं प्रविधियों के जरिये अत्यंत जटिल रोगों की सरल चिकित्सा संभव होती दिखेगी। इसका तात्कालिक प्रभाव यह होगा कि ऑटोइम्यून रोग जैसे गठिया, मल्टिपल स्कलेरोसिस, क्रोंस डिज़ीज़ और कैंसर के संदर्भ में इम्यूनोथैरेपी के नतीजे बेहद शानदार हो जाएंगे।
टीरेग्स उपचार और भारतीय वैज्ञानिकों की भविष्य की भूमिका
बेशक, उपचार की संभावना बन रही है, लेकिन टीरेग्स आधारित उपचार विधियां अभी प्रारंभिक चरण और प्रयोगशालाओं से परीक्षणों की ओर बढ़ने वाले पांमण के दौर में हैं। इम्यूनोथैरेपी व ऑटोइम्यून थैरेपी अभी महंगी है पर लागत ही चुनौती नहीं, पार्श्व प्रभाव से बचाव के अलावा लंबी अवधि में इससे होने वाले नुकसान का पता लगाना भी अभी बाकी है। डिलीवरी विधि, नियामक स्वीकृति और पर्याप्त चिकित्सकीय प्रमाण का भी किंचित अभाव है और सुविधाएं भी अत्यंत सीमित हैं, लेकिन इसका दायरा बढ़ रहा है। इसलिए नोबेल संदर्भित शोध नतीजों पर उत्साहित हुआ जा सकता है। ब्रूंको और रैम्सडेल ने अपना शोध कार्य उद्योग जगत के भीतर ही किया, जिससे यह भी पता चलता है कि वैज्ञानिक नवाचार केवल अकादमिक प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं हैं।

पर साथ में यह भी बताता है कि जिन देशों में निजी या उद्योग जगत महंगे शोध और प्रयोगों के लिये धन खर्चने के लिये तैयार नहीं है, वहां के वैज्ञानिक प्रतिभावान होकर भी तब तक कुछ नहीं कर सकते, जब तक कि उन्हें किसी विकसित देश अथवा किसी बड़े कारपोरेट की सहायता न मिले। 1968 में हरगोविंद खुराना को मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार मिला था। उन्होंने जेनेटिक कोड की संरचना से प्रोटीन निर्माण को समझने में अहम भूमिका निभाई थी, उनकी खोजों ने कैंसर, औषधि-विकास तथा जेनेटिक इंजीनियरिंग के क्षेत्र में क्रांति ला दी थी। भविष्य में फिर कोई भारतीय वैज्ञानिक इस वैश्विक मंच पर अपनी प्रतिभा का परचम लहराए, उम्मीद रखने में क्या है।
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